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रेटिंग****
कुछ फिल्मकार कभी कभी अपनी फिल्म के लिये ऐसा वि<य उठा लेते हैं कि न चाहते हुये भी वो विवादित होकर रहता है। लेखक निर्देशक विवेक अग्निहौत्री ने अपनी फिल्म ‘द ताशकंद फाइल’ में स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री की मौत पर कुछ ऐसे नोकीले सवाल उठाये हैं जो आपको काफी कुछ सोचने पर मजबूर कर देते हैं।
कहानी
एक राजनेतिक पत्रकार रागिनी (श्वेता बसु प्रसाद) को उसका एडिटर पंदरह दिन की मोहलत देता हैं कि अगर उस दौरान वो कोई स्कूप नहीं ला पाई तो उसे अपनी नोकरी से हाथ धोना पड़ सकता है। रागिनी को अपने जन्मदिन पर लाल बहादुर शास्त्री की मौत को लेकर एक ऐसा स्कूप मिलता है,जिस पर वो आगे काम कर पूरे राजनैतिक माहौल को गर्मा देती है । उसके सवाल हैं कि क्या पाकिस्तान के साथ युद्ध के बाद 1966 में लाल बहादुर शास्त्री को ताशकंद समझौते के समय हार्ट अटैक हुआ था या उन्हें जहर दिया गया था। क्योंकि जब उनकी डॅड बॉडी लाई गई थी तो वो सूजी हुई थी और काली पड़ गई थी। इसके अलावा उनकी बॉडी पर कट के निशान भी थे जिनसे खून बह रहा था। पॉलीटिक्स के चिर प्रतिदंव्दी श्याम सुंदर त्रिपाठी (मिथुन चक्रवर्ती) तथा पीकेआर नटराजन( नसीरूद्धीन शाह) एक कमेटी का गठन करते हैं जिसमें स्वंय रागिनी, श्याम सुंदर त्रिपाठी,एक्टविस्ट इंदिरा जोसफ राय(मंदिरा बेदी), इतिहासकार आयषा अली षाह(पल्लवी जोषी),औमकार कश्यप (राजेश शर्मा),जस्टिस कुरियन अब्राहम (विश्व मोहन वडोला) तथा गंगाराम झा (पंकज त्रिपाठी) आदि मेंबर्स जमा होते हैं। वहां वाद विवाद के दौरान ऐसे ऐसे मुद्धे सामने आते हैं जिनसे कहानी में सनसनीखेज खुलासे होने लगते हैं। इस बीच कई मौत भी होती हैं। यहां रागिनी की मदद एक जासूस( विनय पाठक) करता है। कहने का मतलब कि 1966 में घटी ये घटना रागिनी के साथ होने वाले शढयंत्रों और धमकियों का प्रभावशाली तरीके से खुलासा करती है ।
डायरेक्शन
विवेक अग्निहौत्री ने फिल्म को विश्वसनीय बनाने के लिये कितनी ही ऐतिहासिक किताबों, संदर्भो, खबरों तथा तथ्यों का बेहद प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल किया है । यहां ये भी पता चलता है कि विवेक अपनी फिल्म की कहानी के लिये इस कदर रिसर्च किये हुये थे कि दर्शक पर फिल्म में उठाई गई बातों का गहरा असर पड़ता है। बेशक कहानी बाद में एक तरफा लगने लगती है बावजूद इसके अंत में दर्शक शास्त्री जी की मौत का खुलासा सुनने के लिये आतुर हो उठता है । बेशक फिल्म में उठाये गये तथ्य इतने विश्वसनीय हैं कि उनके सामने एक बार तो कमेटी के सारे सदस्य चुप होकर रह जाते हैं । पता नहीं, शास्त्री जी के पोते द्धारा विरोध स्वरूप फिल्म को नोटिस दिये जाने के बाद ये फिल्म चुनाव के समय ही क्यों दिखाई जा रही है, जबकि इसे तो कभी भी दिखाया जा सकता था । फिल्म की कास्टिंग कमाल की है तथा बेहतरीन फोटोग्राफी के चलते बीच बीच में आते गीत व्याधान पैदा करते हैं ।
अदाकारी
श्याम सुंदर त्रिपाटी के किरदार को मिथुन चक्रवर्ती ने इस तरह जी कर दिखाया है कि आप उन्हें देख भूल जाते है कि वे असल में मिथुन हैं लिहाजा इसमें कोई दो राय नहीं कि ये किरदार उनके कॅरियर के गिने चुने किरदारों में से एक है । नसीरूद्धीन शाह छोटे से किरदार में हैं लेकिन वे जितनी बार भी पर्दे पर दिखाई देते हैं अपना प्रभाव छौड़ जाते हैं । इनके अतिरिक्त एक समय बाद पल्लवी जोशी पर्दे पर दिखाई दी, तथा पंकज त्रिपाठी, राजेश शर्मा तथा मंदिरा बेदी आदि कलाकार भी अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय करने में सफल साबित रहे, लेकिन इन सबके ऊपर श्वेता बसु प्रसाद एक पावरपैक्ड अभिनेत्री साबित होती हैं उसने एक यंग जर्नलिस्ट के किरदार को अविवसनीय तरीके से जी कर दिखाया है ।
क्यों देखें
राजनीति या खोजी फिल्मों के शौकीन दर्शक ये फिल्म मिस न करें।