Review Film 12th Fail: आत्मसम्मान खोए बिना हार न मानने की दास्तां

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By Shanti Swaroop Tripathi
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Review Film 12th Fail: आत्मसम्मान खोए बिना हार न मानने की दास्तां

रेटिंग -  3.5 स्टार
निर्माता: विधु विनोद चोपड़ा
लेखक: अनुराग पाठक, उनका उपन्यास '12जी फेल'
निर्देशक: विधु विनोद चोपड़ा
कलाकार: विक्रांत मैसे, पलक लालवानी, मेधा शंकर, प्रियांशु चटर्जी, संजय विश्नोई, हरीश खन्ना, विकास दिव्यकीर्ति, विजय कुमार डोगरा
अवधि: दो घंटे 26 मिनट

'खामोश', 'परिंदा' और '1942 ए लव स्टोरी' जैसी फिल्मों के सर्जक  अपने चिरपरिचित अंदाज से बाहर निकलकर ग्रामीण पृष्ठभूमि की आदर्श वाद का पाठ पढ़ाने वाली और 'इंसान को कभी हार नहीं माननी चाहिए' का प्रेरक संदेश देने वाली फिल्म ''12 जी  फेल' लेकर आए हैं.जो कि अनुराग पाठक के उपन्यास ''12जी  फेल' पर ही आधारित है.यह फिल्म यह संदेश देती है कि इंसान को अपनी आत्मा को बेचकर कोई काम नही करना चाहिए. हमने इस किताब को पढ़ा नही है, इसलिए यह कहना मुश्किल है कि फिल्मकार ने किताब में कितना बदलाव किया है.मगर कहानी के स्तर पर फिल्मकार ने कुछ नया पेश नही किया है.उत्तरप्रदेश व बिहार के हिंदी भाषी क्षेत्रों से हर वर्ष गरीब तबके के बच्चे, सब्जी बेचने वाले, रिक्शा चलाने वालों के बच्चे, आईएएस या आईपीएस उत्तीर्ण करते आए हैं. आईएएस व आईपीएस की पढ़ाई का गढ़ इलहाबाद, उत्तरप्रदेश है. वहां पर हमने बच्चों को जिस लगन व मेहनत से पढ़ाई में डूबे हुए देखा है, उसे फिल्मकार अपनी फिल्म में पूरी इमानदारी से नहीं दिखा पाए. विधु विनोद चोपड़ा की खासियत रही है कि वह अपनी हर फिल्म में प्रेम कहानी जरुर पिरोते हैं, तो इस फिल्म में भी वह प्रेम कहानी है. इतना ही नहीं फिल्मकार ने प्रेम कहानी को इस तरह से पिरोया कि कहीं न कहीं नायक का अपना आदर्शवाद व मेहनत गौण हो जाती है. फिल्म देखकर अहसास होता है कि उसकी प्रेमिका जो अब डिप्टी कलेक्टर बन चुकी है,वह पत्र लिखकर उससे प्यार करने,उससे शादी करने और यदि वह आईपीएस नहीं बन पाया, तो एक चक्की चलाने वाले संग जिंदगी जीने का वादा करती है. उसके बाद नायक इंटरव्यू में कुछ ज्यादा ही अकड़ कर आदर्शवाद की बातें करता है. यॅंू तो फिल्मकार का दावा है कि यह एक सत्य कथा है.. (जी हाॅ! यह कहानी इन दिनों मुंबई में सहायक पुलिस आयुक्त के पद पर आसीन मनोज कुमार शर्मा व उनकी पत्नी श्रद्धा जोशी की है, जो कि इन दिनों महाराष्ट्र राज्य महिला आयोग की सचिव हैं.).. अब यह सवाल उठाना लाजिमी है कि पुलिस अफसर मनोज कुमार शर्मा को अपने जीवन की निजी कहानी को बड़े परदे पर लाने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई और इस फिल्म में जो कुछ दिखाया गया है, उसमें कितनी सच्चाई है?, यह भी वही जानते हैं.

कहानी:

फिल्म की कहानी शुरू होती है चंबल इलाके के एक गांव से, जहां मनोज शर्मा ( विक्रांत मैसे ) नामक युवक बारहवीं की  परीक्षा देने वाला है.उसके पिता (हरीश खन्ना) अति ईमानदार हैं और वह विधायक की कालाबाजारी पर अपने हस्ताक्षर करने से इंकार कर देता है, फिर वह अपने वरिष्ठ अफसर को जूता मारता है, इसलिए उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है. उसके पिता अकड़ में हैं और अदालती लड़ाई लड़ने के लिए चले जाते हैं. इधर हर साल की तरह इस साल भी मनोज नकल करके बारहवीं पास कर नौकरी पाने की लालसा लिए हुए परीक्षा देने स्कूल पहुॅचाता है. पता चलता है कि इमानदार व सख्त डीवायएसपी दुश्यंत (प्रियाशु चटर्जी ) आ जाता है.विधायक व स्कूल प्रशासक की नहीं चलती.जिसके चलते नकल करने का अवसर नहीं मिलता और मनोज सहित सभी बच्चे फेल हो जाते हैं. फिर मनोज व उसका भाई 'जुगाड़' मंे सवारी भरकर चलाने लगता है.पर विधायक की बस चल रही है, तो स्वाभाविक तौर पर विधायक के इशारे पर स्थानीय पुलिस मनोज का जुगाड़ जब्त करने के साथ ही मनोज व उसके भाई को लाॅकअप में बंद कर देती है. मनोज के अंदर चंबल का खून है. वह मौजूद पुुलिस इंस्पेक्टर से कहता है कि मुझे मौका दे अभी घर से दुनाली लाकर तेरे सिर पर मार दॅूंगा. वह उसे जाने देता है ,पर भाई को बंद करके रखता है.मनोज सीधे दुश्यंत के बंगले पर पहुॅचकर सच बयंा करता है.दुश्यंत उसके साथ पुलिस स्टेशन जाकर उसके भाई को छुड़ा देता है.अब मनोज के दिमाग में आता है कि वह भी डीएसपी बनेगा. इसके लिए वह एमपीएससी की परीक्षा पास करेगा. दुश्यंत कहता है कि ऐसा करने के लिए उसे चीटिंग करनी छोड़नी होगी. यहीं से मनोज शर्मा ईमानदार बन जाता है.अपनी दादी व मां (गीता अग्रवाल शर्मा ) से इजाजत लेकर एमपीएस सी की परीक्षा की तैयारी करने के लिए वह ग्वालियर रवाना होता है. जाते समय उसकी दादी अपने पास छुपायी हुई सारी रकम देते हुए कहती है कि अब पुलिस की वर्दी में आना. रास्ते में मनोज का सारा सामान व पैसा चोरी हो जाता है.इतना ही नहीं वहां उसे पता चलता है कि सरकार के पास पैसे नहीं हैं और राज्य प्रशानिक सेवा की भर्तियां 3 साल के लिए रुक गई हैं..तो वहीं मनोज शर्मा भूख से तड़प रहा है. एक होटल मालिक उसे मुफ्त में विद्यार्थी होने के नाते खाना देता है,जहां उसकी मुलाकात नवल पांडे(अनंत विजय जोशी ) से होती है. नवल पांडे के पिता ठेकेदार हैं और वह दिल्ली आईपीएस बनने की तैयारी करने जा रहा है. नवल, मनोज की बातांे से प्रभावित होकर उसे भी अपने साथ दिल्ली ले जाता है.दिल्ली में मनोज व नवीन की मुलाकात तुतुल नाम का लड़के से होती है, जो उनका गौरी भैया (अंशुमान पुष्कर) से परिचय करवाता है. गौरी भईया ओबीसी से आते हैं, छह बार प्रयास करने के बावजूद वह 'संघ लोकसेवा आयोग' की परीक्षा पास नहीं कर पाए. पर वह मुखर्जी नगर में ंचाय की दुकान चलाते हुए दूसरे लड़को को मुफ्त में 'संघ लोक सेवा आयोग' की परीक्षा की तैयारी करवाने के साथ उनका हौसला बढ़ाते रहते हैं. गौरी भैया, मनोज की पैसे से भी मदद करते हैं. जैसे तैसे एक बार प्री निकल कर मेन्स में पहुंचता है, पर तभी मसूरी से आयी लड़की श्रद्धा जोशी (मेधा शंकर) से उन्हें इश्क हो जाता है. जिंदगी फिर बदल गई. रीस्टार्ट करने पर भी असफलता हाथ लगती हैं. एक बार फिर गौरी उसे नई सीख देता है. इसके बाद कहानी में कई उतार-चढ़ाव आते हैं.  

समीक्षा:

फिल्म की पटकथा में कसावट हैं. विधु विनोद चोपड़ा ने जसकुंवर कोहली, अनुराग पाठक व आयुष सक्सेना के साथ मिलकर बेहतरीन पटकथा लिखी है. विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म '12जी फेल' एक युवा व्यक्ति द्वारा अपनी गरीब पृष्ठभूमि से उबरने, अपने विरोधियों का सामना करने और अत्यधिक प्रतिस्पर्धी संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा देते समय अपने विवेक की आवाज सुनने के प्रयासों का एक यथार्थवादी चित्रण है. मनोज केवल एक पुलिस अधिकारी नहीं बनना चाहता,बल्कि वह एक ईमानदार व्यक्ति बनना चाहता है, इसे बिना किसी तरह की भाषण बाजी के प्रभावपूर्ण तरीके से विधु चोपड़ा ने पेश किया है.यही उनके निर्देशन की खूबी है.. मगर इस फिल्म में विक्रांत मैसी को भूरे रंग में रंगने की वजह समझ से परे है.शायद फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा की नजर में भूरे रंग की चमड़ी गरीबी का प्रतीक है. इसके अलावा एक ब्राम्हण परिवार के लड़के से पाखाना साफ करवाने के पीछे फिल्मकार की क्या सोच है, यह तो वही जाने...पर यह सब इस फिल्म की कमजोर कड़ियां हैं. वहीं विधु विनोद चोपड़ा इस बात के लिए बधाई के पात्र है कि उन्होंने क्लायमेक्स में इस बात को सही अंदाज मे उजागर किया है कि 'संघ लोकसेवा आयोग' के इंटरव्यू में किस तरह गरीब व हिंदी भाषी प्रतिभाशाली उम्मीदवार को हतोत्साहित किया जाता है. पर शिक्षा के बाजारीकरण पर यह फिल्म मौन रह जाती है. अपनी पिछली असफल फिल्म 'शिकारा' के बाद विधु विनोद चोपड़ा ने साबित कर दिया कि 71 साल की उम्र में अभी भी उनके अंदर बेहतरीन फिल्म बनाने की चिंगारी है. फिल्म को एडीटिंग टेबल पर कसे जाने की जरुरत हे.साउंड इंजीनियर ने ठीक से काम नहीं किया. फिल्म की मिक्सिंग भी गड़बड़ है. कई दृश्यों से पहले साउंड आ जाता है...

अभिनय:

गांव की पृष्ठभूमि से आए, एक डरे सहमे और अपने सपनों की तलाश करते मनोज शर्मा के किरदार में विक्रांत मैसी ने जान डाल दी है. विक्रांत मैसी ने अपने अभिनय के द्वारा किरदार में घुस जाने का पूरा प्रयास किया है. फिर चाहे वह पाखाना साफ करना हो या लाइब्रेरी की किताबों पर जमी धूल हटाना हो या आटा चक्की चलाकर वहीं अपनी धूनी जमाना और इंटरव्यू में फेल हो जाने की कीमत तक सच्चाई को पकड़े रहना हो.श्रद्धा जोशी के किरदार में मेधा शंकर ने पहली फिल्म होने के बावजूद साबित कर दिखाया कि उनके अंदर संुदरता के साथ ही अभिनय प्रतिभा की कोई कमी नहीं है. जब श्रद्धा जोशी अपने चरित्र पर लगे अति घिनौने व झूठे लांछन को लेकर अपने पिता से सीधी बात करती है,तब मेधा शंकर का अभिनय उन्हें उत्कृष्ट अदाकाराओं की श्रेणी मंे ले आता है. दुश्यंत के छोटे किरदार में प्रियांशु चटर्जी की प्रतिभा को जाया किया गया है. गौरी भईया के किरदार में अंशुमान पुष्कर अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते हैं. नवीन पांडे के किरदार में अनंत विजय जोशी का अभिनय भी शानदार है.

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