ये समझ के बाहर की बात है कि कैसे कोई किसी को तीस चालीस साल पुराने दौर की फिल्म बनाने के लिये राजी कर लेता है। निर्देशक जैला खान उन्हीं धुरंदर निर्देशकों में से एक हैं जिन्होंने एक फिल्म पुराने निर्माता हरि मल्होत्रा को ‘विराम’ जैसी अधकचरी फिल्म बनाने के लिये पटा लिया।
क्या है फिल्म की कहानी ?
नरेन्द्र झा देहरादून के एक अमीर विदुर हैं जो उर्मिला महान्ता को एक मजबूर और गरीब लड़की समझते हुये अपने घर ले आते हैं और उसे घर के काम काज में लगा देते हैं। उर्मिला पहले तो वहां काम करने वाले सारे नौकर चाकरों का दिल जीत लेती हैं उसके बाद वो एक दिन नरेन्द्र को भी इस कदर अपने रूपजाल में फंसा लेती है कि वो उसके साथ शादी करने के लिये तैयार हो जाते हैं लेकिन जब उन्हें उसकी असलीयत पता चलती है तो सदमें से उनकी मौत हो जाती है।
मरने से पहले नरेन्द्र लगभग सारी जायदाद उर्मिला के नाम कर जाते हैं। यहां उर्मिला पश्चाताप स्वरूप पहले तो नरेन्द्र की बीवी की याद में बनाये जाने वाले अस्पताल को कपंलीट करती है, उसके बाद सारी जायदाद नरेन्द्र की बहन के नाम कर कहीं चली जाती है।
इस तरह की फिल्में कभी तीस चालीस साल पहले बना करती होगीं और पता नही कि उस वक्त भी वो पंसद की जाती होगी या नहीं। इतना बड़ा बिजनेसमैन जो अपनी मरहूम बीवी को इतना प्यार करता है कि उसके कमरे में किसी को जाने की इजाजत तक नहीं देता लेकिन एक मामूली सी लड़की उसे अपने प्यार के जाल में फंसा लेती है, उसी के मैनेजर के कहने पर, और जब वो कामयाब हो जाती है तो अचानक उसके साथी का मन बदल जाता है और पश्चाताप स्वरूप वो शहर ही छोड़ देता है।
इसी तरह उर्मिला जैसी छोटी मोटी ठगी करने वाली आवारा लड़की भी नरेन्द्र का सपना पूरा कर जायदाद का मौह छोड़ अंर्तध्यान हो जाती है। इस तरह की कहानी सोचने और उस पर फिल्म बनाने पर निर्देशक की बुद्धि पर तरस आता है और अफसोस होता है जब ऐसी फिल्म में नरेन्द्र झा जैसा उच्च श्रेणी का ऐक्टर काम करता है। क्या ढेर सारी फीस के लालच में ?