"देशभक्ति अब धीरे धीरे आउट आफ फैशन होती जा रही है" -ललित पारिमू By Mayapuri Desk 14 Aug 2021 | एडिट 14 Aug 2021 22:00 IST in टेलीविज़न New Update पिछले 34 वर्षों से फिल्म व टीवी सीरियलों में अभिनय करते आ रहे अभिनेता ललित पारिमू किसी परिचय के मोहताज नही है।लोग उन्हे सीरियल‘‘षक्तिमान’’के डाक्टर जयकाल के रूप में पहचानते हैं। ललित पारिमू ‘कांचली’,‘हैदर’’, ‘एजेंट विनोद’,‘सीता’,‘कठोर’,‘हम तुम पर मरते हैं’,‘हजार चैरासी की माॅं’सहित कई फिल्मों और ‘‘विराट’,‘कोरा कागज’सहित दो दर्जन से अधिक टीवी सीरियलों में अभिनय कर चुके है। इतना ही नहीं ललित पारिमू ने ‘‘मैं मनुष्य हूं’’ नामक किताब भी लिखी है। शान्तिस्वरुप त्रिपाठी ललित पारिमू देष के स्वतंत्रता दिवस और देषभक्ति को लेकर एक अलग सोच रखते हैं। पेष है उनकी सोच व उनकी बातें उन्ही की जुबानी: हमें 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी से आजादी मिली थी,तभी से हमारा देष हर वर्ष 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस का जष्न मनाता आया है। इस बार हमारी स्वतंत्रता को 74 वर्ष पूरे हो जाएंगे और हम 75वें वर्ष में प्रवेष करेंगे।यह हम सभी के लिए गौरव का दिवस है।हम सभी के लिए यह एक त्योहार है।जिसे हम हर साल मनाते आए हैं।देष के प्रति अपनी मोहब्बत का जज्बा अभिव्यक्त करते हैं। अब इस पर नई दृष्टि डालना आवष्यक है।पहली बात तो यह समझना होगा कि हमारी यह जो आजादी है,वह ‘पोलीटिकल फ्रीडम’ कही जाएगी। हमने ब्रिटिष हुकूमत से इस आजादी को लिया है,मतलब यह हुआ कि 1947 से पहले तकरीबन दो सौ वर्ष तक हमारे देष व हमारे देषवासियों के संदर्भ में फैसले लेने वाले लोग हमारे अपने लोग नही थे।वह भारतीय नही थे। भारत के संदर्भ में सारे निर्णय ब्रिटेन मंे लिए जाते थे। एक तरह से वही षासक थे।15 अगस्त 1947 को आजादी के बाद हमारे देष में एक लोकतांत्रिक पद्धति लागू की गयी। जिसके चलते अब हम सभी नागरिक चुनाव के वक्त अपने वोट का प्रयोग कर यह तय करते हैं कि हम पर षासन कौन करेगा? किस तरह से हमारे देष में लोकतांत्रिक मूल्यों को चुनाव के माध्यम से स्थापित व मजबूत किया जाएगा। तो यह बड़ा बदलाव आया। मगर दूसरे क्षेत्रो में कोई बड़ा बदलाव नही आया। दूसरे क्षेत्र से हमारा मतलब आर्थिक आजादी से है। आर्थिक आजादी एक बहुत बड़ा विषय है। इस दृष्टि से जब हम देखते हैं,तो पाएंगे कि सिर्फ भारत ही नहीं कोई भी देष आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह से आजाद नही है।यदि हम इसे समझाने बैंठेंगंे,तो काफी पन्ने भर जाएंगे। संक्षेप में कहें तो आर्थिक जगत के हमारे सारे फैसले भारतीय हुक्मरान या भारत के षासक नहीं लेते हैं।यह निर्णय विष्व के अमीर लोग लेते हैं। यह वह अमीर हैं,जिन्हे 500 फारच्यून कहा जाता है। यह वह हैं जो बिलियन या त्रिबिलियन में व्यापार करते हैं। यह लोग सिर्फ भारत की ही आर्थिक व्यवस्था को नहीं बल्कि पूरे विष्व की आर्थिक व्यवस्था को कंट्ोल करते हैं। जब से ग्लोबलाइजेषन हुआ है,तब से कोई भी देष अछूता नही रह पाता है।यदि कुछ ब्राजील में हो रहा है,तो वही जर्मनी में हो रहा है।जो जर्मनी में हो रहा है,वह चीन और चीन में जो हो रहा है,वह भारत मंे हो रहा है। अब यह अच्छा है या बुरा,यह एक अलग मसला है। मगर यह एक सच्चाई है।और इस सच्चाई का फिलहाल कोई विकल्प नही है। हमारे पास पहले समाजवाद,साम्यवाद या गांधीवाद जैसे नाम से जानते थे,वह तो पूरी तरह से विफल हुए हैं। अभी सिर्फ पंूजीवादी ही है। और पंूजीवाद कल्चर, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और पंूजीवादी वैल्यू सिस्टम सभी देषो में परिस्थितियों के चलते फाॅलो होता आया है।यह वस्तुस्थिति है। मगर यदि हम इसकी तुलना इस बात से करें कि जब हम ब्रिटिषों के गुलाम थे,और आज जो स्थिति है तो हमें फख्र है कि हम आजाद हैं। पोलीटिकली हम अपने देष में फैसले ले सकते हैं। हालांकि दबाव तो बड़े लोगो का ही है,पर अंततः हमारे देष के नुमाइंदे ही फैसला लेते हैं।हम यह कह सकते हंै कि हमारे देष के नेता ही देष को चला रहे हैं।हमारे प्रधानमंत्री भारतीय हैं। इसका गर्व हमें होता है। और हमें गर्व होना भी चाहिए। जहां तक देषभक्ति की बात है,तो देषभक्ति अब धीरे धीरे आउट आफ फैषन होती जा रही है।देषभक्ति ऐसा जज्बा है,जो तब तक नहीं जगता,जब तक किसी दूसरे देष से तुलना न की जाए।भारतीयता या देष के प्रति जो डिवोषन है,या प्रेम है,वह अक्सर दूसरे देष की नफरत से ही जगता है। यह एक विचित्र सी बात है,मगर यह कटु सत्य है। जब तक आप दूसरे देष के साथ तुलना न करे,तब तक देषभक्ति का जज्बा नही जगता। युद्ध जैसी स्थिति या महामारी जैसी स्थिति पैदा होने पर भी देषभक्ति या देषप्रेम का जज्बा जगता है।या हम खेल में देखते हैं। खेल जीत या हार होने पर भी क्षणिक देषभक्ति ही जगती है। पूरे विष्व में जिस तरह से विचार के स्तर पर बदलाव आ रहा है,उसमें देषभक्ति भी एकदम संकीर्ण हो गयी है। यह मानसिकता का ही परिचायक है।क्योंकि यह धीरे धीरे विष्व एक ग्लोबल विष्व बन गया है और आने वाले समय यानीकि दस से पच्चीस वर्ष मंें कई सीमाए ं/दीवारें गिर जाएंगी।एक देष से दूसरे देष में आना जाना आसान हो जाएगा।यही समय की मांग है।यह वक्त का तकाजा है।यह आवष्यक है,अन्यथा मानवता जीवित नही रहेगी। एक देष से चिपके रहना भी कोई बहुत अच्छी बात नही है। जिन देषों में क्षेत्रफल काफी है,मगर आबादी कम हैं,उन देषों में लोगों को जाना चाहिए।इस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए कि लोग वहंा जाकर नौकरी कर सकें। अधिक आबादी वाले देष के लोगों को कम आबादी वाले देषों मंे जाना चाहिए।काम करने की व्यवस्था का सरलीकरण होना चाहिए। फिलहाल जो स्थिति है,उसमें कहा जाता है कि देषभक्ति तो है,पर आप अपनी देषभक्ति को कैसे साबित करोगे?क्या करोगे?और वैसे भी देष है क्या?देष हम सभी की एक समग्र पहचान है। हमसे ही समाज,राज्य और देष है। एक एक व्यक्ति जुड़ता है,तभी देष बनता है। देषभक्ति के लिए अपनी तरफ से हर इंसान जितना अच्छा काम कर सकता है,इंसान वही करे। वही उसकी देषभक्ति का परिचय होगा। हर कोई सीमा पर जाकर लड़ नही सकता। हर कोई खेल मंे पदक नही ला सकता। लेकिन हर कोई अपना काम इमानदारी से कर सकता है। यही उसकी देषभक्ति होगी। आप इस तरह के जीवन को अपनाएं,जिनमें नैतिक मूल्य ज्यादा हों। जो चीज आपकी नही है,उसको बर्बाद न करें। सरकारी संपत्ति का दुरूपयोग न करें,उसे नष्ट न करें। आप जिस क्षेत्र में भी हैं,उसमें अच्छे से अच्छा करने का प्रयास करंे। यही आपकी देषभक्ति का सबूत होगा। हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Latest Stories Read the Next Article