Advertisment

टीवी पर अब कोई भी इंसान नया प्रयोग नहीं करना चाहता: सौरभ तिवारी

New Update

- शान्तिस्वरुप त्रिपाठी

यथार्थवादी कहानियां परोसने के लिए जाने जाने वाले सौरभ तिवारीलेखक,निर्माता व निर्देशक हैं.सौरभ तिवारी ने अपने करियर में काफी पापड़ बेले हैं.वह जीटीवी व कलर्स चैनल पर नौकरी करने के अलावा पिछले आठ नौ वर्षों से  अब हर चैनल के सीरियलों का निर्माण कर रहे हैं.कुछ सीरियलों का लेखन व निर्देशन भी किया. वह विभिन्न चैनलों के लिए अब तक ‘मधुबाला’, ‘रंग रसिया’,‘पिंजरा’, ‘जिंदगी की महक’, ‘गुलाम’,‘बदतमीज दिल’, ‘‘कृष्णा चली लंदन’’ बना चुके हैं. इन दिनांे जीटीवी पर उनका सीरियल ‘‘इस मोड़ से जाते हैं’’ प्रसारित हो रहा है।

publive-image

प्रस्तुत है सौरभ तिवारी से एक्सक्लूसिव बातचीत के अंश...

अब तक अपनी यात्रा को आप किस तरह से देखते हैं?
- टीवी इंडस्ट्री में कार्य करते हुए बीस वर्ष हो गए. इस बीच काफी उतार-चढ़ाव देखे. 1999 में प्रोडक्शन सहायक के रूप मे करियर की शुरूआत की थी. फिर मैं सहायक निर्देशक बना.उसके बाद जीटीवी के लिए पहला सीरियल ‘सरकार’ लिखा. इसमें रोनित राय, रोहित राय,दिव्या सेठ जैसे कलाकार थे. फिर जीटीवी में नौकरी की. उसके बाद ‘कलर्स’ टीवी का प्रोग्रामिंग हेड बन गया. टीवी चैनलों में सात आठ वर्ष तक काम किया. उसके बाद बतौर निर्माता अपने सीरियल बनाने शुरू किए. आठ वर्ष से निर्माता के तौर पर कार्य कर रहा हूं. तो उतार-चढ़ाव के कई पड़ाव रहे हैं. कई बार दर्शकों को हमारी कहानियंा पसंद आयीं. कई बार नही आयीं. धीरे-धीरे हर दिन कुछ न कुछ नया सीखते हुए गाड़ी आगे बढ़ती जा रही है. लगातार कोशिश है उस कहानी को बनाने का जिसकी आज भी तलाश है. एक ऐसी कहानी जिसे सुनाकर अहसास हो कि वास्तव में हम तो यही कहानी सुनाने आए थे. मुझे लगता है कि अभी तक मुझे ऐसी कहानी मिली नहीं है. कहानी नहीं मिली, इसलिए अब तक सुना नहीं पाए.वैसे तो मैंने कई अच्छी कहानियां सुनाई हंै, पर जो मेरी सोच के अनुसार सर्वश्रेष्ठ हो, उसकी तलाश अभी है. मसलन, आशुतोष गोवारिकर की जिंदगी में ‘लगान’ होगी. हर फिल्मकार व कहानीकार के जीवन में ऐसी एक कहानी होती है. जब उसे अहसास हो जाता है कि अब हम जो भी सुनाएंगे, वह इसके आस पास या इससे कम ही होगी. तो मुझे ऐसी ही कहानी की तलाश है।

publive-image

किसी टीवी चैनल के लिए प्रोग्रामिंग हेड के रूप मंे काम करना और खुद कहानी लिखना व उस पर सीरियल का निर्माण करने में से कहां आसानी और संतुष्टि है?

सर, दोनांे काम का अपना सटिस्फैक्शन है. दोनों तरह के काम में मिलने वाली संतुष्टि का अंतर तभी समझ में आएगा, जब आप यह दोनों काम कर लेेते हैं. जब मैं सिर्फ लेखक था, उन दिनों दो तरह के निर्माता हुआ करते थे.एक वह जो सिर्फ निर्माता थे यानी कि जो केवल पैसा लगाते थे. दूसरे वह जो कहानी वाले थे. यानी कि उन्हें कहानी सुनानी भी आती थी. अब तो कहानी वाले निर्माता ज्यादा हो गए हैं. पर पहले कम थे. नब्बे के दशक या यॅूं कहें कि 2000 तक सिर्फ पैसा लगाने वाले निर्माता ही ज्यादा थे. और लेखक सिर्फ लेखक हुआ करता था. तो उन दिनों हम हर माह लगातार लिखते थे, हर माह एपीसोड जाते थे और माह के अंत में जब हम चेक मांगने के लिए एकाउंट विभाग में फोन करता था, तो एकाउंटेंट एक ही सवाल पूछता था कि आप कौन-सा सीरियल लिख रहे हैं. मुझे हर माह जवाब देना पड़ता था और हर माह ऐसा लगता था कि हम इंटरव्यू दे रहे हैं. इसीलिए 2006 में मैंने ‘जीटीवी’ की नौकरी की थी कि यदि मैं टिक गया तो दो वर्ष मंे टीवी के सभी निर्माता मुझे पहचानने लगेंगें. उसके बाद चैनल की नौकरी छोड़कर सिर्फ लिखॅूंगा, तो चेक मांगते समय कोई यह नहीं पूछेगा कि आप कौन हो?

publive-image

जब मैंने जीटीवी में नौकरी शुरू की, तब मेरी समझ में आया कि यह कितनी बड़ी जिम्मेदारी का काम है. ‘जीटीवी’ में दो वर्ष काम करने के बाद जब मुझे ‘वायकाॅम 18’ ने ‘कलर्स’ टीवी के लिए बुलाया और मैं उसका प्रोग्रामिंग हेड बना, तो समझ में आया कि अब आप वह कहानियंा कह सकते हैं, जो कहना चाहते हैं. क्योंकि अब आपसे कोई पूछने वाला नही है. अब आपके पास एक अधिकार आ गया है. एक ताकत आ गयी है कि दुनिया चाहे जो कहे, मगर यह वह कहानियां हैं, जो मैं कहना चाहता हॅूं. ऊपर वाले का करम कह लो या समय अच्छा था, ऐसा कह लो, पर उस वक्त हमने जिन कहानियों को चुना व कहा, उन्हें लोगो ने पंसद किया. फिर चाहे वह ‘बालिका वधू’ हो या ‘उतरन’ हो या ‘लाडो’ हो.‘कलर्स’ टीवी के माध्यम से टीवी का एक रिवोल्यूशन हो गया. उस दौर में काम करने का अपना एक अलग मजा था.लेकिन एक मुकाम पर मेरी समझ में आने लगा कि प्रोाग्रामिंग हेड के रूप में जब आप किसी चैनल में काम करते हैं, तब आप विषय का चयन करने के साथ ही पूरा निर्देश दे रहे होते हैं. आप तय करते हंै कि क्या प्रसारित होगा.लेकिन उसके बावजूद शूटिंग का जो मजा होता है,वह नही मिलता. मैंने 2006 में चैनल से जुड़ा और 2012 आते आते समझ में आ गया कि मैंने यह सब कर लिया. अब मुझे एक्शन का हिस्सा पुनः बनना है. क्योंकि मैं आया, तो वहीं से था. मुझे इन कहानियों को कहते हुए ख्ुाद उसका हिस्सा बनना है. मुझे ख्ुाद वह कहानियां बनानी हंै.

publive-image

इसीलिए चैनल की नौकरी को अलविदा कह कर मैने खुद ही ‘मधुबाला’ व दूसरे सीरियलों का निर्माण किया.वैसे बतौर निर्माता काम करते हुए अब मेरे जेहन में यह सवाल बार बार आता है कि क्या चैनल में रहकर काम करना ज्यादा आसान होता? तो मेरी समझ में आता है कि हम चैनल में रहकर टीवी इंडस्ट्री के लिए तमाम सकारात्मक बदलाव कर सकते हैं.  पर निर्माता की हैसियत से संभव नहीं है. एक निर्माता की हैसियत से आपने चैनल में अपनी कहानी ‘पिच’ की, पर कई चैनल को आपकी कहानी समझ में नहीं आती. जबकि आपको लगता है कि यह कहानी कही जानी चाहिए. यह कहानी बदलाव ला सकती है.पर सामने चैनल में बैठे इंसान की समझ मंे यह बात नहीं आती. ऐसे मैं आपकी कई कहानियंा अनकही रह जाती हैं. आज जब में पलट कर देखता हॅंू तो मुझे लगता है कि दोनों जगह सटिस्फैशन था. मैं उस वक्त ‘बालिका वधू’ की कहानी कहना चाह रहा था, यह वह दौर था, जब ‘स्टार प्लस’ पर ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ जैसे सीरियल सफल थे. उस दौर में गांव व गांव की पंचायत आदि की कहानी पेश करना सबसे बड़ा रिस्क था, तो यदि मैं ‘कलर्स’ का प्रोग्रामिंग हेड न होता, तो ‘बालिका वधू’ न कह पाता.पर चैनल नया था, तो हमारे पास खोने को कुछ नहीं था, पर ताकत हमारे पास थी. आज मेरे पास कई ऐसी कहानियंा हैं, जिन्हें मैं कहना चाहता हूं. अगर मैं किसी चैनल का प्रोग्रामिंग हेड होता, तो बड़ी आसानी से कह सकता था. तो दोनोे के अपने प्लस या माइनस प्वाइंट हैं।

publive-image

आपने कहा कि आप एक कहानी कहना चाहते हंै, जिसकी आपको तलाश है. सवाल है कि जब आप ‘जीटीवी’ या ‘कलर्स’ चैनल में थे, तब आप ऐसी कहानी क्यों नहीं कह पाए? उस वक्त आपके पास ताकत थी?

मुझे लगता है कि ऐसी कहानी मेरे जेहन में नहीं आयी. जबकि उस वक्त हमारे पास पूर्णेंदु शेखर जैसे लेखक थे, जिन्हांेेने ‘बालिका वधू’ लिखा था. कमल पांडे जैसे लेखक थे, जिन्होंने ‘लाडो’ लिखा. सच कहॅंू तो वह छटपटाहट मेरे अंदर है और मैं वह कहानी अभी भी ढूढ़ रहा हॅूं. शायद जब वह कहानी मिल जाएगी, तो उसे लिखने के लिए कई लेखकों को जोड़ा जाएगा और उसे विकसित किया जाएगा. पर पहले ‘वन लाइन’ तो मिले यानी कि कहानी का बीज तो मिले. अब तक कई कहानियों को बनाते हुए संतुष्टि मिली है, पर ऐसी कहानी नहीं मिली, जिसे कहने के बाद हमारी आत्मा पूरी तरह से तृप्त हो जाए।

publive-image

जीटीवी पर प्रसारित हो रहे आपके नए सीरियल ‘‘इस मोड़ से जाते हैं’’ का बीज कहंा से मिला?

जीटीवी संग मेरा नाता बहुत निजी स्तर पर रहा है.यह एकमात्र ऐसा चैनल है,जिसके लिए मैंने कहानियां लिखी और चैनल में नौकरी भी की तथा उसी के लिए बतौर निर्माता सीरियल भी बना रहा हॅंू. जीटीवी के साथ मैंने तीन रूपांे में काम किया है. इसलिए जब जीटीवी के लिए कहानी सोचता हॅंू,तो दिमाग मंे रहता है कि यहां चलाना जरुरी है, इसलिए कुछ अच्छा सोचना होगा. मेरे पिता जी एक अवकाश प्राप्त आइएएस अफसर हैं, तो मैंने आईएएस के परिवेश व परिवार में मंैने जिंदगी जी है. जब तक मैं उस परिवेश व उस घर मंे रह रहा था, तब तक उसका महत्व मेरी समझ से परे था, मगर जब मैं लखनउ से बाहर निकला, तो समझ में आया. मैं तो सारा माहौल बचपन से देखता आ रहा था, इसलिए मेरे लिए नीली बत्ती की गाड़ी वगैरह का कोई महत्व नहीं था. इसलिए मैं इस पृष्ठभूमि पर लंबे समय से सीरियल बनाना चाह रहा था.पर कहानी नहीं मिल रही थी. फिर एक दिन इसकी लेखक भावना व्यास से बात हुई. फिर दिमाग मंे आया कि मान लो लड़का व लड़की दोनों आईएएस की तैयारी कर रहे हों और दोनों की शादी भी हो जाए. पर इन दोनों मंे से आईएएस में लड़के का चयन न हो और लड़की का चयन हो जाए, तब क्या होगा? तो हमने इस मुद्दे पर काम करना शुरू किया. कहानी ने एक रूप लिया, जिसे हमने जीटीवी को सुनाया और अब उसे दर्शक इंज्वाॅय कर रहे हैं।

publive-image

इन दिनों जब हर स्तर पर ‘‘ओमन इम्पावरमंेट’’ की बात की जा रही है, ऐसे वक्त में आपका यह सीरियल क्या कहता है

देखिए, मैं जो बात पहले भी कहने की कोशिश कर रहा था कि हमारा समाज पुरूष प्रधान समाज रहा है. हम इससे इंकार नहीं कर सकते. पर अब आप छोटे शहरों में लड़कियों ने भी सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं.बचपन में मैने अपने घर मे ही देखा हुआ है कि यदि मिठाई का एक टुकड़ा है और उसे खाने वाले दो बच्चे हैं, तो मां कह देती थी कि भाई खा लेगा. इसे हम आम बात मानते थे. हमें इसमें जेंडर बाॅयस वाली बात नहीं समझ में आती थी.लेकिन अब  पिछले कुछ वर्षों से लड़कियांे ने सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं. हम जिस ओमन इम्पावरमेंट की बातें कर रहे हैं, उसे लेकर समाज में एक बदलाव शुरू हो चुका है. अब हर आदमी को स्वेच्छा से इसका हिस्सा बनना चाहिए कि मुख्य धारा में औरतों को लाना चाहिए. अगर आप नही लाएंगे तो वह दिशा अपने आप बन जाएगी. फिर आप दौड़ में पीछे छूट जाएंगे. मगर यदि आप बराबरी में साथ में ंबैठाएंगे, तो अच्छा ही होगा. पर साथ में बैठाते वक्त आपके माइंड सेट में यह बात नहीं होनी चाहिए कि आप ऐसा करके किसी पर अहसान कर रहे हैं.

publive-image

क्यांेकि यदि आप ऐसा नहीं करेंगे, तो यह अपने आप होगा? ‘बालिका वधु’ के वक्त टीवी की जो स्थिति थी, उसे देखते हुए अब टीवी में कितनी गिरावट आयी है?

सर, मैं यह नहीं कहॅूंगा कि गिरावट आयी है. मुझे लग रहा है कि अब टीवी में बदलाव होना बंद हो गया है. मेरी निजी राय में ‘गिरावट’ निगेटिव शब्द है. क्योंकि हम कौन हैं, जो किसी अन्य के क्रिएटिव काम पर कटाक्ष करें कि जो हम कर रहे हैं, वह सही है, बाकी खराब कर रहे हैं.यह गलत हो जाएगा. मेरा कहना है कि टीवी के अंदर जो लेखक, कहानीकार व चैनल में बैठे सभी लोग बहुत डर कर कहानी पर काम कर रहे हैं. कम्पटीशन का दबाव इतना अधिक हो गया है कि सभी लोग डरने लगे हैं. जब आप डर कर अपनी कहानी सुनाएंगे, तो आप डर का अपनी कहानी नहीं सुना पाएंगे. ऐसे मे आप क्या करंेगे कि फलां ने यह किया है, चलो अब मैं भी यही कर लेता हॅूं.क्योकि मैं सुरक्षित जोन में रहूंूगा. ऐसे मंे यदि मेरा सीरियल नहीं चला, तो मैं कह सकूंगा कि उसका चल गया था, मेरा नहीं चला है, तो इसमें मेरी गलती नहीं है.मैने तो सुरक्षित कदम उठाया था. अगर चल गया,तब तो मुझसे कोई सवाल पूछेगा ही नहीं. ऐसे मंे लोग कहेंगे कि तुमने हवा का रूख समझ लिया है .समस्या यह है कि अब कोई अपनी हवा नहीं बनाना चाहता.अब कोई भी इंसान नया प्रयोग नही करना चाहता. कोई रिस्क नहीं लेना चाहता.इसकी मूल वजह यह है कि आज की तारीख में कारपोरेट सेक्टर में एमबीए और मार्केटिंग के लोग हावी हो चुके हैं. आप हाॅलीवुड में देख लीजिए. स्टूडियो का सिस्टम क्या है?स्टूडियो कभी भी आपको नया ब्रांड बनाने को नहीं कहेगा.स्टूडियो सदैव आपसे सिक्वअल बनाने को कहेगा.‘स्पाइडरमैन’ एक बन गयी, पर स्टूडियो ‘स्पाइडरमैन’ कभी नहीं बनाएगा. स्टूडियो तो ‘‘स्पाइडरमैन 2’’ और ‘‘स्पाइडरमैन 3’’ बनाएगा.स्टूडियो एक फार्मेट पर काम करता है कि यह फार्मेट है, इसी पर चलो।

publive-image

अब जब ओटीटी प्लेटफार्म आ गए हैं.वेब सीरीज काफी पसंद की जा रही हैं. ऐसे में टीवी में किस तरह के बदलाव की जरुरत है?

सर, टीवी को नई कहानी, नए परिवेश ढूढ़ने पड़ेंगे.टीवी को स्वीकार करना पड़ेगा कि यह वही देश है, जहां पर अब मनोरंजन लोगों की मुट्ठी में आ गया है. पिछले दो वर्ष के अंदर हिंदी भाषी दर्शक भी तेलगू व मलयालम सिनेमा से परिचित हो चुका है. मैंने कुछ दिन पहले लखनऊ में अपने घर के ड्रायवर को अमेजाॅन प्राइम पर ‘जय भीम’ देखते हुए देखा. ‘जय भीम’ तो तमिल फिल्म है. लेकिन उसने इस फिल्म को हिंदी में डब वर्जन देखा. क्योंकि इसका आॅप्शन मौजूद है. अगर टीवी अपने आप मंे बदलाव नहीं करेगा, तो इसके लिए सर्वाइव करने का संकट पैदा हो जाएगा. टीवी का एक बहुत बड़ा दर्शक वर्ग अब ओटीटी की तरफ मुड़ चुका है. फिल्मों में एक बहुत बड़ा वर्ग है, जो बदलाव नहीं कर रहा है. तो वह लुप्त हो जाएगा. यही कारण है कि आज की तारीख में आयुष्मान खुराना की फिल्म उतना ही व्यापार कर रही है, जितना किसी बड़े सुपरस्टार की फिल्म करेगी. फिल्मों में एक वर्ग ने बदलाव करना शुरू कर दिया है. मेरी राय में ओटीटी एक जगह पिछड़ रहा है, वह यह है कि ओटीटी को लगने लगा है कि कंटेंट मंे जब तक गालियंा नहीं होगी, बेहूदगी नहीं होगी, तब तक वह सफल नहीं होगा. पर ओटीटी भूल जाता है कि कंटेंट को कहने के दस दूसरे तरीके हो सकते हैं. पर ओटीटी के चलते अब टीवी को अपने आपको एक नए चश्मे से देखने की जरुरत है. यही समय की मांग है।

publive-image

इसके अलावा नई योजनाएं?

सब टीवी के लिए एक सीरियल पर काम कर रहा हँू. दो वेब सीरीज पर काम चल रहा है।

publive-image

Advertisment
Latest Stories