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अपनी अपकमिंग फिल्म ‘सितारे ज़मीन पर (Sitaare Zameen Par)’ को लेकर चर्चा में बने एक्टर आमिर खान (Aamir Khan) ने 60 साल की उम्र में भी जिंदगी को नए नजरिए से जीने की मिसाल पेश की है. हाल ही के एक इंटरव्यू में उन्होंने फिल्म ‘सितारे ज़मीन पर’ की कास्ट के साथ काम करने के अनुभव, गौरी स्प्रैट के साथ अपने रिश्ते, परिवार और अन्य कई मुद्दों पर बात की. क्या कुछ कहा उन्होंने आइये जानते हैं.
अपने 60वें जन्मदिन पर जब आप तीसरी बार गौरी स्प्रैट (Gauri Spratt) के प्रति अपने प्रेम को सार्वजनिक रूप से स्वीकारते हुए सामने आए, आपने इसे छुपाने के बजाय खुलेआम स्वीकार करने का हौसला किया, जबकि अक्सर ऐसे हालात में लोग संकोच करते हैं या रिश्ते को निजी रखकर चलते हैं — आपके लिए यह फैसला इतना साफ और खुला क्यों था?
मुझे प्यार को छुपाना अच्छा नहीं लगता. अगर मैं किसी का हाथ थामकर आगे बढ़ रहा हूँ और लोगों को ये बात नहीं बता रहा हूँ, तो फिर इसका मतलब ये है कि मैं उन्हें पब्लिकली इज्जत नहीं दे रहा हूँ. मेरे हिसाब से यह सही नहीं है. मेरा मानना है कि मेरी इज्जत और उसकी इज्जत में कोई फर्क नहीं है. अगर मैं ऐसा कोई कदम उठाऊं, जिसमें अपने पार्टनर के बारे में न बोलूं, तो जाहिर है कि उसका दिल दुखेगा. तो मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं ऐसा कोई काम न करूं. मेरी अम्मी ने सिखाया है कि किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिए.
साठ साल की उम्र में प्यार कर आपने उस सोच को भी चुनौती दी, जो मानती है कि मोहब्बत सिर्फ एक खास उम्र तक ही मुमकिन है. ऐसे में आपकी पार्टनर गौरी स्प्रैट आपके जीवन में कैसी जगह भरती हैं? वह आपको किन मायनों में संपूर्ण महसूस कराती हैं?
दिल तो बच्चा है जी, (मुस्कुराते हैं) गौरी जो है, वह स्वभाव की बहुत ही शांत और बेहद अच्छे व्यवहार की हैं. . वे हर चीज़ को संतुलित तरीके से करती हैं, जबकि मैं उनके एकदम विपरीत हूँ – कभी 36 घंटे लगातार काम करता हूँ, तो कभी उतने ही घंटे सोता हूँ. मेरी जिंदगी भी ऐसी है कि मैं अपने ख्यालों में खोया रहता हूँ, तो मैं और गौरी एक-दूसरे के बिल्कुल अलग हैं. मगर इसी को कहा जाता है अपोजिट अट्रैक्ट्स. वे मेरी जिंदगी में ठहराव लाती है. मुझे संतुलित करती हैं. वह मेरी जिंदगी में सुकून और शांति लाती है और मैं ऐसा मानता हूँ कि मैं उनकी जिंदगी में एक्साइटमेंट लाता हूँ.
इन दिनों इंडस्ट्री में 8 घंटे की शिफ्ट को लेकर बहस चल पड़ी है. कुछ लोग इसे सही मानते हैं. लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म मेकिंग जैसे क्रिएटिव फील्ड में ये संभव नहीं है. इस बारे में आप क्या सोचते हैं?
देखिए 8 घंटे तो हर इंसान को काम करना चाहिए. चाहे आप न्यूरो डायवर्जेंट (ऐसा दिमाग जो अलग तरह से काम करता हो) हों या न हों. मैं एक आदर्श स्थिति की बात कर रहा हूँ. लेकिन ज़िन्दगी में बैलेंस बहुत जरूरी है. आप 8 घंटे सोते हैं, 8 घंटे काम करते हैं और फिर 8 घंटे बाकी के काम करने के लिए होते हैं, तो आइडली दिन के 24 घंटों को 3 भागों में बाँटा जाना चाहिए. लेकिन आज समाज इतना तेज चलता है कि हम लोग अपनी जिंदगी में हर चीज तेज चाहते हैं. इस चक्कर में 8 घंटे 10 से 12 हो जाते हैं. एक समय ऐसा भी था जब मैं 16-16 घंटे काम किया करता था. लेकिन अब पिछले 3-4 सालों में मैंने खुद को बदलने की कोशिश की है. मैं कोशिश करता हूँ कि मैं 8 घंटे काम करूं, 8 घंटे सोऊं और 8 घंटे अपने परिवार के साथ बिताऊं, तो बीते कुछ समय से मुझमें काफी बड़ा बदलाव आया है.
आपकी अपकमिंग फिल्म ‘सितारे ज़मीन पर’ डाउन सिंड्रोम से जूझ रहे चार असली लोगों की कहानी पर आधारित है, और आपने इन्हीं वास्तविक व्यक्तियों को पर्दे पर उतारा भी. ऐसे में पेशेवर कलाकारों की जगह रियल लाइफ हीरोज़ के साथ काम करना कितना चुनौतीपूर्ण रहा?
मुझे इंडस्ट्री में 30-35 साल हो गए हैं और मैं तकरीबन 45 फिल्मों में काम कर चुका हूँ. मैंने अपने करियर में देखा है कि अक्सर सेट पर आपके झगड़े या क्रिएटिव मतभेद जरूर होते हैं. कई बार ईगो प्रॉब्लम भी सामने आती है. लेकिन इस फिल्म के दौरान ऐसा एक बार भी नहीं हुआ क्योंकि जब ये दस न्यूरो डायवर्जेंट लोग सेट पर आते तो इतना सारा प्यार बांटते और काम को लेकर इतने एक्साइटेड होते कि सभी कुछ सहज और सरल हो जाता था. ये सभी लोग दूसरे आर्टिस्ट की तरह अपनी लाइंस भी याद करके आते थे.
आपके जीवन और करियर के सफर में आपका परिवार किस तरह से आपके लिए संबल और प्रेरणा का स्रोत रहा है? क्या कोई ऐसा खास पल है जब उनके सहयोग ने आपको संभालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो?
मेरा परिवार मेरे लिए हमेशा बहुत ज्यादा सपोर्टिव रहा है. जब ‘लाल सिंह चड्ढा’ (Laal Singh Chaddha) आई और 75 प्रतिशत लोगों ने उसे नकार दिया, तो एक तरह से वह रिजेक्शन मेरे लिए बहुत बड़ा सदमा साबित हुआ. आपने अगर सुपरमैन देखी होगी, तो उसके क्लाइमैक्स में जब अपने प्यार को पाने के लिए वह अपनी सारी शक्तियां गंवा देता है और उसे अपनी गर्लफ्रेंड के सामने एक आम गुंडे से मार खानी पड़ती है. उसे पहली बार दर्द महसूस होता है क्योंकि सुपरमैन होने के नाते उसने दर्द कभी महसूस ही नहीं किया था. तो ‘लाल सिंह चड्ढा’ के फ्लॉप होने पर मेरे साथ सुपरमैन वाली ही फीलिंग थी. 18 साल बाद मैं फ्लॉप को झेल रहा था और मैं उसे सह नहीं पाया और गहरे डिप्रेशन में चला गया. उस दौरान मैंने नोटिस किया कि कभी किरण और आजाद मेरे पास आकर बैठ रहे हैं, तो कभी आयरा और पोपाय (उनका दामाद नुपूर शिखरे) आते, कभी मेरी अम्मी और निकहत (उनकी बहन) आकर बैठ जाती थी, तो मेरे फ्लॉप के उस दौर में मुझे फैमिली से जो प्यार मिला, वैसा कभी नहीं मिला था. उस वक्त मुझे लगा कि अगर पता होता कि परिवारवालों का इतना प्यार मिलेगा, तो मैं फ्लॉप फ़िल्में बनाता जाता. (हंसते हैं) यह परिवार का ही साथ था कि 2-4 हफ़्तों में मैं दोबारा उठा खड़ा हुआ और अपनी गलतियों पर विचार करने लगा.
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