डॉक्टर रामानंद सागर कृत 'Aankhen' आज भी अतुलनीय है 1968 में, एक नए जोनर की फ़िल्म रिलीज़ हुई थी. नाम था 'आंखें'. उस समय के धुरंधर लेखक, निर्माता, निर्देशक डॉक्टर रामानंद सागर (जो उत्तरार्ध में मॉडर्न ज़माने... By Sulena Majumdar Arora 10 Jan 2025 in एंटरटेनमेंट New Update Listen to this article 0.75x 1x 1.5x 00:00 / 00:00 Follow Us शेयर 1968 में, एक नए जोनर की फ़िल्म रिलीज़ हुई थी. नाम था 'आंखें'. उस समय के धुरंधर लेखक, निर्माता, निर्देशक डॉक्टर रामानंद सागर (जो उत्तरार्ध में मॉडर्न ज़माने के तुलसीदास माने गए जिन्होंने विश्व प्रसिद्ध टीवी सीरीज़ 'रामायण' बनाकर इतिहास रच दिया था) द्वारा बनाई गई यह हिंदी फिल्म, स्क्रीन पर आई और भारतीय सिनेमा में एक अविस्मरणीय अध्याय बन गई. दिग्गज़ फ़िल्म मेकर रामानंद सागर द्वारा निर्देशित, लिखित और निर्मित, इस जासूसी थ्रिलर ने एक्शन, ड्रामा और दिल दहला देने वाली भावनाओं को एक अतुलनीय, अविश्वसनीय कहानी में पैक किया था. इस फिल्म ने एक सुपर हिट मनोरंजक कहानी पेश करने के लिए नवोदित धर्मेंद्र, माला सिन्हा, ललिता पवार, जीवन, मदन पूरी, कुमकुम, सुजीत कुमार, नज़ीर हुसैन, परदुमन, डेज़ी ईरानी, सज्जन, धूमल, ज़ेब रहमान मधुमती, मास्टर रतन, हीरालाल, एम बी शेट्टी और महमूद जैसे शानदार कलाकारों को एक साथ लाए थे , जिसने दर्शकों को अपनी सीटों से बांधे रखा. कहानी भारत में शुरू होती है, देश को आजादी मिलने के कुछ समय बाद की कहानी बताई गई, जब हमारा देश आशाओं और सपनों से भरा हुआ था लेकिन साथ ही कई नई आई चुनौतियों से भी निपट रहा था. कहानी में ऐसा ही एक खतरा असम में आतंकवादियों द्वारा पैदा किया हुआ दिखाया गया जिन्होंने निर्दोष लोगों पर हिंसा और आतंक मचा दिया लेकिन सरकार के कार्रवाई की प्रतीक्षा करने के बजाय, बहादुर नागरिकों के एक समूह ने खुद हथियार उठाकर उन आतंकियों से लड़ाई को अपने हाथों में लेने का फैसला किया. उनमें से एक बहादुर, सलीम (सलीम) भी शामिल था, जो पहले से ही बेरूत में आतंकवादियों को रोकने के लिए गुप्त रूप से काम कर रहा था, लेकिन उसका मिशन शुरू होने से पहले ही दुखद रूप से समाप्त हो गया जब उसका पर्दाफाश हो गया और वह मारा गया. तब सुनील मेहरा (धर्मेंद्र) यह कार्यभार संभालने के लिए कदम बढ़ाते हैं. सुनील खतरे का सामना करने के लिए तैयार होकर बेरूत की यात्रा करता है, लेकिन आगे जो होने वाला है वह उसकी कल्पना से कहीं अधिक जटिल था. बेरूत में, सुनील की मुलाकात मीनाक्षी मेहता (माला सिन्हा) से हो जाती है, जिससे वो बहुत पहले प्यार करता था. वहीं एक रहस्यमय लड़की , ज़ेनब से भी उसकी मुलाकात होती है जो कहती हैं वो उसकी फैन है. जैसे ही वह इन व्यक्तिगत बातों से निपटता है, बेरूत के खतरनाक बॉस सैयद (सज्जन) के नेतृत्व में आतंकवादी, अपनी अगली चाल की साजिश रच रहे होते हैं. सैयद की टीम में डॉक्टर एक्स (जीवन) और कैप्टन (मदन पूरी) जैसे कुछ बेहद खतरनाक व्यक्ति शामिल हैं, जो अपने भयावह लक्ष्यों को हासिल करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. भारत में, तब और भी ज्यादा खतरा बढ़ जाता है जब सैयद की सहयोगी मैडम (ललिता पवार) सुनील के परिवार में घुसपैठ करती है. एक रिश्तेदार होने का दिखावा करके, वह उनके घर में चालाकी से प्रवेश करती है और उन्हें अपने कंट्रोल में रखकर ब्लैकमेल करती है. वह सुनील के नन्हे भतीजे, बब्लू (मास्टर रतन) का अपहरण कर लेती है और परिवार को उसकी मांगें मानने के लिए मजबूर करती है. इस बीच, आतंकवादी, सुनील के परिवार के बारे में जानकारी इकट्ठा करते हैं, जिससे उनका मिशन और भी खतरनाक हो जाता है. स्थिति तब गंभीर हो जाती है जब सुनील खुद सैयद के आदमियों द्वारा पकड़ लिया जाता है. मामला तब बदतर होने लगता है जब सुनील के पिता मेजर मेहरा (नासिर हुसैन) को मीनाक्षी का फोन आता है, जो उन्हें बताती है कि सुनील की हत्या कर दी गई है. परिवार बिखर जाता है, और ऐसा लगता है जैसे सारी उम्मीदें खत्म हो गई हैं. लेकिन पूरी फ़िल्म देखकर दर्शक आश्चर्यचकित रह जाते है. क्या सुनील कोई रास्ता खोज पाएंगे? क्या परिवार बब्लू को बचा सकता है? क्या नागरिकों का देश की रक्षा का मिशन सफल होगा? अब आगे स्पॉएलर नहीं. खुद देख लीजिए. फिल्म सिर्फ अपने एक्शन से भरपूर कथानक पर निर्भर नहीं है, यह अपनी भावनात्मक गहराई और सशक्त प्रदर्शन के कारण भी अन्य फिल्मों से हटकर है. है. निडर और दृढ़ निश्चयी सुनील के रूप में धर्मेंद्र शानदार हैं, जबकि माला सिन्हा ने मीनाक्षी के रूप में दिल छू लेने वाला प्रदर्शन किया है. कुमकुम, ललिता पवार और मदन पुरी भी अपनी भूमिकाओं में अविस्मरणीय हैं. इस फ़िल्म के बाद धर्मेंद्र और माला सिन्हा ने और तीन फिल्मों में साथ काम किया था, नीला आकाश, अनपढ़, जब याद किसी की आती है, लेकिन आँखे फ़िल्म में ही उनकी जोड़ी जमी थी. फ़िल्म 'आंखें' की एक और असाधारण पहलू है इसका संगीत. साहिर लुधियानवी के गीतों के साथ रवि द्वारा रचित, गाने उस समय की सबसे हिट गीतों में से थी जो आज भी बेस्ट ओल्ड इज़ गोल्ड गानों में शुमार है. 'मिलती है जिंदगी में मोहब्बत कभी कभी', गैरों पर करम अपनो पे सितम',' दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रखे' और "उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता जिस मुल्क की सरहद की निगहबान हो आंखें" जैसे ट्रैक आज भी दिलों को छूते हैं. लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी और मन्ना डे जैसे दिग्गज गायकों की आवाजें इन गानों को सदाबहार हैं, जिससे ये हिन्दी सिनेमा संगीत जगत के इतिहास में अंकित हो जाते हैं. जब फिल्म 20 सितंबर, 1968 को रिलीज़ हुई, तो यह तुरंत हिट हो गई. दर्शकों को रोमांचकारी एक्शन, जबर्दस्त थ्रिल और देशभक्ति विषयों का मिश्रण पसंद आया. यह फिल्म साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली भारतीय फिल्म बन गई और इसने कई पुरस्कार जीते, जिसमें 16वें फिल्मफेयर पुरस्कारों में इसकी शानदार सिनेमैटोग्राफी और निर्देशन के लिए मान्यता भी शामिल है. आज भी रामानंद सागर कृत फ़िल्म 'आँखें' एक क्लासिक बनी हुई है. आँखें (1968) से गैरों पे करम अपनों पे सितम..अमिताभ भट्टाचार्य ने इस गीत के मुखड़े को "हानिकारक बापू" ("दंगल", 2016) गीत की शुरुआती पंक्तियों के लिए यूज़ किया. इस गीत के मुखड़े की पंक्तियाँ भट्टाचार्य के गीत में "औरों पे करम बच्चों पे सितम/रे बापू मेरे ये ज़ुल्म ना कर" बन गईं. फ़िल्म 'आँखे' 1968 की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म और सबसे बड़ी हिट थी. यह भारत की पहली हिंदी फिल्म थी जो बेरूत, इज़राइल में शूट की गई थी. यह फिल्म ब्लॉकबस्टर रही और 1969 में रामानंद सागर को इसके लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का एकमात्र फिल्मफेयर पुरस्कार मिला. इस फ़िल्म के साथ, पहली बार दिग्गज़ फिल्म निर्माता रामानंद सागर ने अपनी फिल्म की शूटिंग विदेश में की, उनकी दूसरी फिल्म जो विदेश में शूट की गई थी वो भीधर्मेंद्र के साथ फ़िल्म 'चरस' थी. बताया जाता है कि द ग्रेट रामानंद सागर ने नवोदित एक्टर धर्मेंद्र को सिर्फ इसलिए तुरंत साइन कर लिया गया क्योंकि धर्मेंद्र के हाथ उन्हे बहुत बड़े बड़े लगे, जो बंदूक पकड़ने के लिए एकदम सही थे. ऐसी अफवाह है कि यह फ़िल्म पहले एक्टर राजकुमार को ऑफर किया गया था लेकिन बताया जाता है कि अपने सनक के लिए कुख्यात राजकुमार ने स्क्रिप्ट सुनने के बाद राजकुमार ने अपने कुत्ते को बुलाया और पूछा कि क्या तुम यह फिल्म करोगे? कुत्ता जब चुप बैठा रहा तो राजकुमार ने रामानंद सागर से कहा कि मेरा कुत्ता भी आपकी फिल्म नहीं करना चाहता तो मैं कैसे करूंगा?" अगर यह सन्की जवाब सचमुच घटित हुआ था तो बाद में जब यह फ़िल्म उस दशक की सबसे हिट फ़िल्म साबित हुई तब राजकुमार के मुंह में ताला लग गया होगा और उन्होने माथा पीटा होगा कि हाय, क्यों उसने वो फ़िल्म मना कर दिया. इस घटना में द लास्ट लाफ़ रामानंद सागर की रही होगी. आँखे फ़िल्म का वो गाना, दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रखे' वास्तव में पूरे भारत में भारतीय भिखारियों द्वारा बोला जाता है. पोस्टर में प्रयुक्त' आँखे' का लोगो (लेखन शैली फ़ॉन्ट) डनहिल सिगरेट विज्ञापनों की लेखन फ़ॉन्ट शैली से प्रेरित बताई जाती है. दे दे बाबा के नाम... गाने पर महमूद, माला सिन्हा और असित सेन को बेरुत की सड़कों पर भारतीय शैली में भीख मांगते दिखाया गया था जो काफी मजेदार लगा लोगों को. बेरुत के जिस होटल में सारे कलाकार ठहरे हुए थे, उसमें महमूद के मन में शरारत करने का विचार आया, उसने एक फकीर का वेश धारण किया और होटल की लॉबी के बीच में बैठ गया. विदेशी लोग उसके पास आए और आश्चर्य करने लगे कि वह क्या कर रहा है और लोगों ने देखा कि एक फकीर 'सब जानता बाबा' के रूप में सबको भविष्य बता रहा है और सबकी मुश्किलों का समाधान बता रहा है. स्थानीय लोगों ने उनसे सलाह लेना शुरू किया और उसके लिए उन्होने महमूद को पैसे भी दी और देखते देखते महमूद ने अच्छी रकम अर्जित की जिसे उन्होंने बाद में फ़िल्म के क्रू के सदस्यों के बीच वितरित किया. मिलती है जिंदगी में मोहब्बत कभी कभी. इस गीत के मुखड़े के लिए साहिर लुधियानवी के बोल नज़ीर काज़मी द्वारा लिखे गए एक दोहे से प्रेरित थे- "ऐ दिल किसे नसीब ये तौफीक-ए-इज़तराब/मिलती है जिंदगी में ये राहत कभी कभी". 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