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डॉक्टर कुमार गणेश
बीकानेर निवासी रंगकर्मी, फिल्म गीतकार, मशहूर अंक ज्योतिषी और अंग ज्योतिषी डॉक्टर कुमार गणेश किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। पूरा देश उनसे परिचित है। (Bikaner Ganga Theatre) फिल्मी हस्तियों और फिल्मों पर की गई उनकी भविष्यवाणियां काफी चर्चित रही हैं। बीकानेर में सिनेमा की जो स्थिति है, उस पर वह पैनी नजर रखते हैं। पेश है ‘मैं, मेरा शहर और सिनेमा’ स्तंभ के लिए बीकानेर शहर और सिनेमा को लेकर डॉक्टर कुमार गणेश से दिलचस्प बातचीत…(Prithviraj Kapoor theatre shows)
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आप प्रोफेसर और रंगकर्मी रहे हैं। आप अंक ज्योतिषी और अंग ज्योतिषी के रूप में कार्यरत हैं। पर आपको सिनेमा का शौक कब पैदा हुआ?
सच तो यह है कि मुझे सिनेमा का शौक नहीं, बल्कि सिनेमा का जुनून है। यह जुनून आज का नहीं बल्कि बचपन से ही है। मतलब अबोध उम्र का जुनून है। जब सिनेमा की समझ नहीं होती। जब मैं अबोध था, तब का और आज का मेरे पैतृक शहर बीकानेर की सिनेमाई तस्वीर में जबरदस्त अंतर है। (Hindi cinema history Bikaner) पिछले चार-पांच वर्षों के अंतराल में मेरा बीकानेर शहर वहीं पहुंच चुका है, जब मैं महज चार-पांच वर्ष का था। बीकानेर में उस वक्त सबसे पुराना थिएटर ‘गंगा थिएटर’ था, जिसका निर्माण राजवाड़ों ने किया था। इस थिएटर का निर्माण उस वक्त के नामचीन सम्राट और शासक गंगा सिंह के नाम पर करवाया गया था। गंगा सिंह ने लंदन के एक मशहूर पार्क की थीम पर बीकानेर शहर में एक पार्क बनवाया था, (Ganga Theatre Bikaner heritage) जिसका नाम रखा था-पब्लिक पार्क और वहीं पर ‘गंगा थिएटर’ बना था। गंगा थिएटर अपने आप में एक विरासत समेटे हुए है। पृथ्वीराज कपूर ने गंगा थिएटर में अपने नाटक के शो किए हैं, जिन नाटकों में पृथ्वीराज कपूर ने स्वयं अभिनय किया था। सच तो यही है कि गंगा थिएटर का सेटअप पहले रंगमंच के लिए ही था, जिसे बाद में सिनेमाघर का रूप दिया गया। इसके अलावा मेरे घर से मेरे परिवार की पुष्टैनी दुकान के डेढ़ किलोमीटर के क्षेत्र में सभी थिएटर आ जाते थे। सबसे पहले प्रकाश चित्र आता था। पर अफसोस की बात यह है कि मैं इस थिएटर में एक भी फिल्म नहीं देख पाया। प्रकाश चित्र से तीन सौ मीटर की दूरी पर बीकानेर शहर का हृदय स्थल कहलाने वाला ‘कोट गेट’ आता है। लेकिन प्रकाश चित्र से सौ-डेढ़ सौ कदम की दूरी पर ‘विश्वज्योति’ थिएटर हुआ करता था। अब इसका ढांचा नहीं बचा। दो दशक पहले इसे ढहा दिया गया था। और अब तो यहां पर शॉपिंग मॉल है। (Bikaner cinema culture) विश्वज्योति से आगे बढ़ने पर मिनर्वा थिएटर। अफसोस मैं प्रकाश चित्र की ही तरह मिनर्वा थिएटर में भी फिल्म नहीं देख पाया। उसके बाद गंगा थिएटर आता था। इस तरह एक ही सड़क पर डेढ़ किलोमीटर के अंदर कुल चार सिनेमाघर हुआ करते थे। इन सभी थिएटर में रिलीज होने वाली फिल्मों के पोस्टर इनके आसपास की चाय की गुमटी या दुकान पर फिल्म के पोस्टर प्रचार के मकसद से ही लगते थे।
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पर आपके अंदर सिनेमा का जुनून कहां से पैदा हुआ? क्योंकि आपकी परवरिश तो रूढ़िवादी परिवार में हुई?
जी हां! हमारे घर में सिनेमा देखना दंडनीय अपराध हुआ करता था। दूसरी बात बीकानेर शहर में चुनिंदा लोगों के घर में टीवी सेट 1984 के सियोल ओलंपिक के वक्त आया था। हमारा घर कच्ची मिट्टी का बना हुआ था। कच्ची मिट्टी के घरों में टीवी सेट तो लग्जरी आइटम था। लेकिन उन दिनों तांगों में फिल्म का प्रचार हुआ करता था… मैं बात कर रहा हूं 1975 के आसपास की। तब तांगे की पिछली सीट पर एक इंसान माइक लेकर बैठा रहता था और आगे व पीछे दोनों तरफ लाउडस्पीकर लगे रहते थे। तांगे पर फिल्म के गाने बजते थे। हम तांगे पर पोस्टर देखते, तांगे पर जो गाने बजते, वह सुनते थे और उसकी बातें भी सुनते थे। (Theatre and cinema in Rajasthan) इसने मेरे अंदर सिनेमा के प्रति जुनून पैदा किया। घर से स्कूल आते-जाते रास्ते में पड़ने वाले थिएटर में लगे फिल्म पोस्टर देखता था। मैं अपने पड़ोसियों और दोस्तों के घर पर जाकर टीवी पर फिल्म देखता था और फिल्म देखते समय निर्माता, निर्देशक और कलाकारों के नाम अपनी कॉपी में नोट करता रहता था। इसके अलावा उन दिनों फिल्म डिवीजन की गाड़ियां मोहल्लों में जाकर कुछ खास तरह की फिल्में दिखाया करती थीं। तब परदे की बजाय सफेद रंग में रंगे दीवारों का सहारा लिया जाता था। मैं जब फिल्म देखता तो फिल्मों को समझने की कोशिश करता था। 1994 में मैं एक कोचिंग क्लास में पढ़ाने लगा था। 23 वर्ष की उम्र में पहुंच चुका था। मैंने अपने सहशिक्षक के साथ 24 जुलाई 1994 में पहली बार फिल्म सिनेमाघर में जाकर देखी थी। उन दिनों में बीएड की पढ़ाई भी कर रहा था। फिर दोस्तों के कहने पर प्रकाश चित्र में ‘बैंडिट क्वीन’ देखने पहुंचा, तो पता चला कि फिल्म शुरू हो चुकी है। तो हम वहां से निकलकर गंगा थिएटर गए, जहां पर फिल्म ‘बॉम्बे’ देखी। फिर हमारे बीकानेर शहर में आलीशान थिएटर ‘सूरज टॉकीज’ बना। बड़ा प्यारा सिनेमाघर था। अब तो यह भी टूट गया है। इस टॉकीज में मैंने ‘हम आपके हैं कौन’ देखी थी। मैं फिल्म देखते हुए सूरज टॉकीज की वजह से मंत्रमुग्ध था। उसके बाद सूरज टॉकीज में मैंने सुनील दर्शन की फिल्म ‘ए रिश्ता द लव ऑफ बांड’ देखी। बॉक्स में बैठकर इस फिल्म को देखने का मेरा अनुभव अद्भुत था। अफसोस कि अब मैं पुनः सूरज टॉकीज में फिल्म नहीं देख पाऊंगा। क्योंकि अब इसे तोड़कर शायद मल्टीप्लेक्स बनाया जा रहा है। गंगा थिएटर में एक बार जादूगर ओ पी शर्मा आए थे, तो उनका शो देखने ‘गंगा थिएटर’ गया था।(Prithviraj Kapoor plays in Bikaner) मुझे गंगा थिएटर का आनंद लेने जाना अच्छा लगता था। सिंगल थिएटर में फिल्म देखने का मजा ही अलग होता है। मल्टीप्लेक्स में तो ऐसा लगता है, जैसे हम शॉपिंग मॉल में आए हैं। मल्टीप्लेक्स में पॉपकॉर्न संस्कृति में ऐसा लगता है कि हम दुकान में आ गए हैं, खा-पी रहे हैं और फिल्म तो ऐसे ही देखने को मिल गई। मतलब हम खा-पी रहे हैं और आंखों के सामने से फिल्म जा रही है। मल्टीप्लेक्स में थिएटर वाला मजा नहीं आता। अफसोस की बात है कि हमारे बीकानेर में भी दो मल्टीप्लेक्स बन गए हैं। कुछ बनने वाले हैं। पर चारों सिंगल थिएटर ध्वस्त किए जा चुके हैं। एक तरह से बीकानेर में सिनेमा संस्कृति मर गई। मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने जाने से दिल पैर पीछे खींच लेता है। मैं पूरी जिम्मेदारी से कह रहा हूं कि सिनेमाघरों के हिसाब से बीकानेर शहर वीरान हो चुका है। अफसोस की बात यह है कि सिर्फ बीकानेर शहर ही नहीं बल्कि पूरे बीकानेर संभाग में यह चारों थिएटर अपना मुकाम रखते थे। मानगढ़, गंगानगर, चुरू में भी इन थिएटर की तूती बोलती थी। मेरा मानना है कि हर शहर में कम से कम एक सिंगल थिएटर होना चाहिए, जहां आठ सौ से हजार दर्शक एक साथ बैठकर फिल्म का आनंद ले सकें। मुझे सिरहाने पर रेडियो या टेप रिकॉर्डर रखकर गाने सुनने की आदत तब से रही है, जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था। मेरे बीकानेर शहर के ही गीतकार पंडित भरत व्यास थे। उनका फिल्म ‘रानी रूपमती’ में गाना था- ‘लौट के आ जा मेरे मीट, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं…’ उसकी तर्ज पर मैंने तीसरी कक्षा में गाना सुनाया था- ‘आ लौट के आजा मेरे राम, तुझे भाई भरत बुलाते हैं…’ मुझे आज भी याद है कि कई वर्षों तक मेरे साथ पढ़ने वाले बच्चे मुझे चिढ़ाते थे। (Evolution of Hindi cinema)
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बीकानेर शहर ने तो बॉलीवुड को गीतकार, अभिनेता और संगीतकार भी दिए हैं?
आपने एकदम सही कहा। पर मेरी निजी स्तर पर मुलाकात कम लोगों से ही हुई है। बीकानेर शहर का सबसे बड़ा नाम गीतकार पंडित भरत व्यास था, जिन्हें खोजकर वी शांताराम अपने साथ ले गए थे। पंडित भरत व्यास के योगदान से सभी परिचित हैं। ‘मालिक तेरे बंदे…’ गीत उन्होंने ही लिखा था। भरत व्यास जी ने बॉलीवुड में सैकड़ों गीत लिखे, राजस्थानी में भी गीत लिखे, फिल्म भी बनाई। (Indian theatre history) उनके छोटे भाई बी एम व्यास ने ‘दो आंखें बारह हाथ’ सहित कई फिल्मों में अभिनय किया। वह अक्सर खलनायक की भूमिकाएं किया करते थे। वह ऐतिहासिक फिल्मों में जोधपुर वाले अभिनेता महिपाल भड़ारी और अनीता गुहा के साथ खलनायक के किरदार में बी एम व्यास ही होते थे। दिलीप कुमार की भाभी और नासिर खान की पत्नी बेगम पारा का संबंध बीकानेर से था। बीकानेर तो बेगम पारा का पीहर/मायका था। उनके पिता बीकानेर की अदालत में जज थे। पाकिस्तान की मशहूर गायिका रेशमा का पैदाइश का ताल्लुक बीकानेर से है। ‘मिर्जा गालिब’ और ‘पाकीजा’ जैसी फिल्मों के संगीतकार गुलाम मोहम्मद भी बीकानेर से ही थे। राज कपूर की फिल्म ‘बरसात’ के शीर्ष गीत ‘बरसात में मिले हम सजन, हमसे मिले…’ इस गाने में ताक धिनाधिन भी है। यह गाना रात में रिकॉर्ड हो रहा था। (Bikaner old theatres) संगीतकार शंकर जयकिशन थे। पर ताक धिनाधिन में ताल ठीक से नहीं बैठ रही थी। तो रिकॉर्डिंग रुक गई। तब किसी ने कहा कि ढोलक और तबला वादक गुलाम मोहम्मद को बुलाओ। रात में ही लोगों को गुलाम मोहम्मद के घर भेजा गया। उन दिनों मोबाइल फोन तो थे नहीं। लैंडलाइन फोन भी सभी के घर पर नहीं थे। हम याद दिला दें कि गुलाम मोहम्मद और रामलाल, संगीतकार शंकर जयकिशन से सीनियर थे। आधी रात को गुलाम मोहम्मद को स्टूडियो आए और गाना रिकॉर्ड हो गया। चंद परदेसी का भी संबंध बीकानेर से ही है। चंद परदेसी ने परदेसी नाम से फिल्म ‘बंजारन’ में संगीत दिया था। इस फिल्म का लोकप्रिय गाना है- ‘चंदा रे मेरी पतियां ले जा, संजना को पहुंचाना है…’ यह राजस्थानी लोक गीत पर ही आधारित था। इसके गीतकार पंडित मधुर थे। इस गाने की रिकॉर्डिंग के वक्त लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, परदेसी के सहायक थे। फिल्म ‘एक बार चले आओ’ का संगीत दिया था, गीतकार समीर थे। कमल राजस्थानी भी बीकानेर से थे, जिन्होंने सबसे पहले अनवर को गाने का अवसर दिया था। अनवर, अरशद वारसी के सौतेले बड़े भाई थे। मैंने पंडित रामकृष्ण महेंद्र से तीन साल तक 1992 में शास्त्रीय संगीत सीखा था। कमल राजsthानी ने जीतेंद्र और ऋषि कपूर की फिल्म ‘गैरतमंद’ में संगीत दिया था और इसके एक गीत ‘मेरे महबूब ढूंढा तुझे गली-गली…डगर-डगर तेरे बिना उदास…’ को पंडित रामकृष्ण महेंद्र ने अपनी आवाज में रिकॉर्ड किया था। (Bollywood history in Bikaner) पंडित रामकृष्ण महेंद्र ने ही मुझे इस गीत की रिकॉर्डिंग के वक्त कमल राजस्थानी से मिलवाया था। इकबाल के लिए मैंने एक फिल्म की पटकथा और गीत लिखे थे। पर यह फिल्म रिलीज नहीं हुई थी। मैंने राजस्थानी फिल्म के लिए भी गीत लिखे हैं। नीरज राजपुरोहित भी बॉलीवुड में अच्छा काम कर रहे हैं। नवल व्यास ने अमिताभ बच्चन के साथ कुछ एड फिल्में भी की हैं। राजा हसन का संबंध भी बीकानेर से ही है। (Ganga Theatre Prithviraj Kapoor) राजा हसन के पिता रफीक सागर ने फिल्म ‘क्षत्रिय’ का गीत ‘सपने में सखी…मेरे नंद गोपाल…’ को संगीत दिया था। इसे कविता कृष्णमूर्ति ने गाया था। मैंने अपने संचालन में मंच पर रफीक सागर से गवाया था। मैंने संदीप आचार्य से भी गवाया था, पर अब वह बेचारा इस दुनिया में नहीं है।
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बीकानेर में रंगमंच की क्या स्थिति रही है?
मेरा सौभाग्य है कि मैंने खुद कई नाटक लिखे। कई नाटकों का निर्देशन किया और अभिनय भी किया। हिंदी में सबसे अधिक एक पात्रीय नाटक मेरे हैं। राजस्थानी भाषा में पहला एक पात्रीय नाटक मैंने 1997 में लिखा। हिंदी और राजस्थानी भाषा में राजनीतिक नाटकों की शुरुआत मैंने की। बीकानेर का रंगमंच काफी समृद्ध रहा है। पृथ्वीराज कपूर तो अपनी नाटक कंपनी ‘पृथ्वी थिएटर’ को लेकर पूरे देश में भ्रमण किया करते थे। बीकानेर में रंगमंच की जड़ें मोहन सिंह मधुप से पहले की मानता हूं। यह सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज में आर्टिस्ट थे। अर्जुन हिंगोरानी की फिल्म ‘दिल भी तेरा हम भी तेरे’ में धर्मेंद्र को अभिनय करने का अवसर मिला था, उस वक्त मोहन सिंह, धर्मेंद्र के संघर्ष के दिनों के साथी थे। उन्होंने रंगमंच पर काफी काम किया। लक्ष्मी नारायण माथुर बहुत बड़े रंगकर्मी थे। लेखन परंपरा में निर्माही व्यास बहुत बड़ा नाम हुआ करता था। निर्देशक के तौर पर एस डी चौहान, जगदीश सिंह चौहान, प्रदीप भटनागर, इकबाल बड़ा नाम है। उसके बाद मेरा नाम आता है। आजादी से पहले भी बीकानेर का रंगमंच समृद्ध था। अशोक जोशी, रमेश शर्मा, राम सहाय हर्ष, सुदेश व्यास, हरीश पी शर्मा भी रंगमंच पर बेहतरीन काम करते आए हैं। मनोरंजक नाटक जगत में सुरज सिंह पंवार बहुत बड़ा नाम है। (Cinema and culture in Bikaner)
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आपने 1994 में पहली बार सिनेमाघर में फिल्म देखी थी। तब से अब तक 31 वर्ष हो गए। इस कालखंड में आपने सिनेमा को किस तरह से देखा?
1994 यानी 1991 से 1999 के बीच का वक्त है। उस वक्त हिंदी सिनेमा संगीत पर ही टिका हुआ था। मैं जिम्मेदारी से कहूंगा कि इस काल का हिंदी सिनेमा का संगीत व्यर्थ गया। पचास से सत्तर का तो स्वर्णिम काल था। सत्तर से अस्सी ठीक-ठाक रहा। मगर अस्सी से 90 का दौर तो मारधाड़ और हिंसा वाली फिल्मों का ही दौर रहा। 1991 से 1999 के दौर में गाने बहुत मीठे बने। लेकिन जिन कलाकारों पर फिल्माए गए, और जिस तरह की यह फिल्में थीं, लगता था कि इन फिल्मों के निर्देशकों को संगीत की समझ ही नहीं है। वह तो कहो कि संगीत ऐसा था, जो सैलाब की तरह आया और फिल्मों को ले गया। तथा फिल्में सुपरहिट हो गईं। वास्तव में 87 से 89 आते-आते हिंदी सिनेमा के निर्देशक फिल्में बनाना भूल गए थे। एक्शन पर उनका ध्यान होता था। उसके बाद फिल्म में चार-पांच गाने होते थे। कहने का अर्थ यह कि अच्छी फिल्में तो तब भी नहीं बनती थीं। (Rajasthan theatre and cinema history) तकनीक रूप से उस दौर की फिल्में समृद्ध होना शुरू हुई थीं। 2000 से फिल्म की तकनीक समृद्ध हुई, पर फिल्म मेकिंग मर गई। पिछले 25 वर्ष में हमारी फिल्में रोबोटिक हो गई हैं। ऐसा लगता है कि यह फिल्में असेंबल की जा रही हैं। नब्बे के दशक में ‘अपहरण’ और ‘राजनीति’ वाले प्रकाश झा की जगह ‘दिल क्या करे’ वाले प्रकाश झा ही नजर आते हैं। आप उन पर या सुभाष घई या अशोक ठाकुरिया पर दांव खेल सकते थे। उन दिनों ‘यशराज फिल्म्स’ और धर्मा प्रोडक्शन भी अच्छा काम कर रहा था। अब तो फिल्म का संगीत मरता जा रहा है। केवल तकनीक ही फिल्मों में नजर आती है। स्टोरी टेलिंग खत्म हो गई है। फिल्म बोलती नहीं, संगीत सुनाती नहीं। अब हालात यह हो गए हैं कि पूरी की पूरी फिल्म ही एआई से बनाकर डाल दी गई है। तो हम मशीनीकरण की तरफ बढ़ रहे हैं। पिछले 25 वर्षों से सिनेमा में मरणासन्न स्थिति है।
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ऐसी स्थिति में सिनेमा पुनः पल्लवित कैसे हो सकता है?
पहली बात तो हिंदी सिनेमा के संगीत पक्ष को मजबूत किया जाए। इसकी मधुरता वापस लाई जाए। हिंदी संगीत का प्रतिनिधि संगीत तो लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत है। हिंदी सिनेमा के संगीत का चेहरा लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत और उनका भारी-भरकम रिदम सेक्शन है। फिर उनकी धुनें हैं। फिर वह लोग सिनेमा बनाएं जिन्हें स्टोरी टेलिंग की समझ हो। इतना होगा तो हिंदी सिनेमा एक बार फिर से उठ खड़ा होगा।(Hindi cinema golden era)
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बीकानेर शहर से धर्मेंद्र का संबंध रहा? फिल्मों की शूटिंग भी बहुत हुई?
पहली बात तो धर्मेंद्र का परिवार हमेशा बीकानेर का कर्जदार रहेगा। धर्मेंद्र सामान्य वर्ग के अंतिम विजेता थे और उन्हें बीकानेर शहर ने बहुत प्यार दिया और जिताया। बीकानेर को हजार हवेलियों का शहर कहा जाता है। लोकेशन के हिसाब से काफी बेहतरीन। बीकानेर में बेशुमार रेत के टीले हुआ करते थे। लैला मजनूं, रजिया सुल्तान, अलीबाबा चालीस चोर, मुगल-ए-आजम को यहीं पर फिल्माया गया। फिल्म ‘क्षत्रिय’ को बीकानेर के किलो में फिल्माया गया। गर्मी में जब लू चलती थी तो हर दूसरे दिन टीले की जगह बदल जाती थी। (Prithviraj Kapoor in Bikaner) बीकानेर का हृदयस्थली है- दम्माणी चौक… यहां पर दम्माणी पाटा है। चौक के बीचोबीच लंबे-लंबे लकड़ी के पाटे बने हुए हैं। गर्मी में लोग यहां पर सोते भी हैं। यह एकमात्र पाटा है, जिसकी छतरी है। उस वक्त के राजवाड़े के अनुसार, राजा की तरफ से पाटे पर छतरी लगाने की अनुमति नहीं थी। पर दम्माणी चौक को यह विशेष छूट दी गई थी। इंदीवर साहब ने एक गीत- ‘एक तारा बोले…’ देश के हालात पर कटाक्ष था। पांच या छह अंतरों वाला यह गाना है। इस गाने के आखिरी बंद को इसी पाटे वाली छतरी पर फिल्माया गया। (Bollywood heritage in Bikaner)
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FAQ
Q1. बीकानेर का गंगा थिएटर किसके लिए प्रसिद्ध है?
Ans. बीकानेर का गंगा थिएटर अपने महत्वपूर्ण नाटकों के प्रदर्शन के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें पृथ्वीराज कपूर के शो भी शामिल हैं, जिन्होंने क्षेत्र की सिनेमा और सांस्कृतिक इतिहास में योगदान दिया।
Q2. पृथ्वीराज कपूर कौन थे?
Ans. पृथ्वीराज कपूर एक महान भारतीय अभिनेता और रंगकर्मी थे, जिन्हें हिंदी सिनेमा और रंगमंच में उनके अग्रणी कार्य के लिए जाना जाता है।
Q3. पृथ्वीराज कपूर ने गंगा थिएटर में कब प्रदर्शन किया था?
Ans. उन्होंने अपने करियर के शुरुआती वर्षों में गंगा थिएटर में नाटकों का प्रदर्शन किया, जिससे बीकानेर में रंगमंच की लोकप्रियता बढ़ी।
Q4. गंगा थिएटर हिंदी सिनेमा के इतिहास में क्यों महत्वपूर्ण है?
Ans. गंगा थिएटर ने सांस्कृतिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि यहाँ नाटकीय प्रस्तुतियों के माध्यम से प्रतिभाओं का पोषण हुआ और स्थानीय सिनेमा को नई दिशा मिली।
Q5. बीकानेर में रंगमंच ने सिनेमा को कैसे प्रभावित किया?
Ans. बीकानेर का रंगमंच, विशेषकर गंगा थिएटर जैसे स्थल, कहानी कहने की तकनीक, अभिनय कौशल और दर्शकों की समझ को प्रभावित कर सिनेमा के विकास में योगदान दिया।
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