Mehboob Khan की एतिहासिक ब्लॉक बस्टर फ़िल्म 'Mother India' पिछले दिनों, हमारे परिचित श्री लतिश तेवानी ने मुझे एक बहुत पुरानी, अद्भुत और दुर्लभ विडियो भेजा जो 1957 को मुंबई के लिबर्टी थियेटर में अयोजित, मेहबूब खान द्वारा निर्देशित 'मदर इंडिया' के आलीशान प्रीमियर की थी... By Sulena Majumdar Arora 15 Nov 2024 | एडिट 15 Nov 2024 15:32 IST in एंटरटेनमेंट New Update Listen to this article 0.75x 1x 1.5x 00:00 / 00:00 Follow Us शेयर पिछले दिनों, हमारे परिचित श्री लतिश तेवानी ने मुझे एक बहुत पुरानी, अद्भुत और दुर्लभ विडियो भेजा जो 1957 को मुंबई के लिबर्टी थियेटर में अयोजित, मेहबूब खान द्वारा निर्देशित 'मदर इंडिया' के आलीशान प्रीमियर की थी, जिसमें उस समय के बड़े से बड़े फिल्मी हस्तियों ने शिरकत की थी और अब यह कितनी अफसोस की बात है कि उनमें से एक भी हस्ती आज इस दुनियां में नहीं है. लेकिन वो फ़िल्म आज भी बॉलीवुड के इतिहास में एक चमकता ध्रुव सितारे की तरह शाश्वत और अटल है. आइए जानते हैं भारतीय सिनेमा की उस ऐतिहासिक, कल्ट फिल्म के बारे मे जो 1957 में रिलीज़ हुई थी और देखते ही देखते वो फ़िल्म अपने आप में एक इंस्टीट्यूट बन गई भारतीय सिनेमा के लिए. Mother India Premiere Mother India was planned release on 15 August 1957 in order to commemorate the tenth anniversary of India's independence, but the film was released over two months later. It premiered at the Liberty Cinema in Mumbai on 25 October 1957, during Diwali; it ran continuously at Liberty for over a year. It was released in Kolkata the same day and in Delhi a week later. The clip has been taken from the film Kala Bazar (1960) in which this premiere was shown. Video Courtesy- Voice from the past Posted by Bollywoodirect on Wednesday, June 27, 2018 महबूब खान द्वारा निर्मित फ़िल्म 'मदर इंडिया' एक गरीब, मेहनती परंतु संतुष्ट जीवन जी रही राधा की मार्मिक कहानी बताती है, जिसका किरदार नरगिस ने निभाया है. एक माँ जो सामाजिक चुनौतियों और समाज के भूखे भेड़ियों तथा तमाम संघर्षों से जूझते हुए अपने परिवार के सम्मान को बनाए रखने के लिए दुर्दिन के झंझावतों से लड़ जाती है. यह फिल्म महबूब खान के पहले वाली फ़िल्म, 'औरत' (1940) का लगभग रीमेक ही है. 1955 में इसे कलर में प्रस्तुत करने की उनकी महत्वाकांक्षी दृष्टि के साथ इस फ़िल्म का निर्माण और फिल्मांकन शुरू हुआ, जो उस समय के लिए, एक दुर्लभ बात थी.मदर इंडिया' की शुरुआत 1950 के दशक की शुरुआत में शुरू हुई जब निर्देशक मेहबूब खान ने एक ऐसी फिल्म बनाने का फैसला किया जो भारत की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करेगी. यह कोई सामान्य फ़िल्म नहीं थी.यह उनके अथक मेहनत और आकांक्षाओं का परिश्रम था जिसे विकसित होने में कई साल लग गए. खान ने इससे पहले 1940 में 'औरत' नामक फिल्म बनाई थी, जिसने उन्हें मातृत्व और बलिदान के विषय पर फिर से विचार करने के लिए प्रेरित किया था. महबूब खान ने 'मदर इंडिया' की कल्पना एक रंगीन फिल्म के रूप में की थी, जो उस समय के लिए काफी कॉस्टली थी. प्रॉडक्शन को फाइनेंशियल बाधाओं और साजो-सामान संबंधी मुद्दों सहित कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. बजट बहुत बढ़ गया क्योंकि खान ने हाई प्रॉडक्शन मूल्यों का लक्ष्य रखा था, जिससे बजट की कठिनाइयाँ पैदा हो गई, हालाँकि, उन्हें उनके इंडस्ट्री में उनके दोस्त फिल्म निर्माताओं से काफी सपोर्ट मिला जो उनकी दृष्टि में विश्वास करते थे. मदर इंडिया फ़िल्म का फिल्मांकन पूरे भारत में विभिन्न स्थानों पर हुआ, विशेषकर महाराष्ट्र और गुजरात के ग्रामीण परिदृश्य में. चिलचिलाती धूप में शूटिंग के दौरान क्रू को भारी कठिनयइयों और विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, लेकिन ना तो फ़िल्म मेकर महबूब खान का अपनी इस फ़िल्म के मेकिंग के प्रति समर्पण कभी कम हुआ और उनके किसी क्रू मेंबर का. फिल्म की सिनेमैटोग्राफी का उद्देश्य भारतीय ग्रामीण इलाकों की सुंदरता, विशाल खेतों, नदियों और किसानों के दैनिक जीवन को प्रदर्शित करना था. संघर्ष और बलिदान की इस कहानी 'मदर इंडिया' के केंद्र में प्रोटागोनिस्ट राधा हैं, जिसका किरदार प्रतिभाशाली नरगिस ने निभाया था. वह भारतीय नारी शक्ति और किसी भी परिस्थिति में ढल जाने वाली स्त्री तथा आदर्श मां का प्रतीक बनी जो परिस्थिति के चलते भारी चुनौतियों का सामना करती है क्योंकि वह खतरनाक परिस्थितियों में अपने परिवार की रक्षा करने और उनके सम्मान को बनाए रखने के प्रयास में जान की बाजी तक लगा देती है. कहानी राधा की शामू (राज कुमार द्वारा अभिनीत) से शादी से शुरू होती है, जिसे शुरू में एक मेहनती किसान के रूप में चित्रित किया गया है. हालाँकि, उनके जीवन में एक दुखद मोड़ आता है जब शामू एक क्रूर साहूकार सुखीलाला के कर्ज के कारण अपंग हो जाता है. जैसे ही राधा को अपनी इस नई वास्तविकता का पता चलता है, वह अपने परिवार के लिए एकमात्र कमाने वाली बन जाती है. वह अपने दो बेटों, रामू (राजेंद्र कुमार) और बिरजू (सुनील दत्त) का पालन-पोषण करते हुए खेतों में अथक परिश्रम करती है. राधा का चरित्र ग्रामीण भारत में अनगिनत महिलाओं द्वारा सामना किए गए संघर्षों का प्रतीक है, जो उनके खिलाफ खड़ी बाधाओं के बावजूद उनकी अटूट भावना को प्रदर्शित करता है. फिल्म में नाटकीय मोड़ तब आता है जब गर्म तेवर वाला बिरजू, बदमाश सुखीलाला (कन्हैयालाल) के साथ एक संघर्ष में उलझ जाता है. यह संघर्ष राधा के लिए दिल दहला देने वाले दिशा की ओर, पूरे परिवार समेत ले जाता है क्योंकि उसे अपने बेटे के लिए अपने प्यार और न्याय और नैतिकता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के बीच निर्णय लेना होता है. फिल्म की कहानी बेहद शक्तिशाली और नारी प्रधान है जो दर्शकों पर बलिदान और मातृ शक्ति की अमिट छाप छोड़ता है. मदर इंडिया की कास्ट इस फ़िल्म की सबसे बड़ी ताकतों में से एक है. नरगिस ने राधा के रूप में अपने करियर को परिभाषित करने वाला प्रदर्शन किया है, और सुनील दत्त ने अपने को. राजेंद्र कुमार ने नर्गिस के बेटे के रूप मे और राजकुमार ने मजबूर पति और पिता के रूप में अद्भुत काम किया. उस समय में यह फिल्म भावनात्मकलता और गहराई को दर्शाने वाला एकमात्र फ़िल्म माना जाता था. नरगिस द्वारा अपनी भूमिका का चरित्र चित्रण ने उन्हे बहुत आलोचनात्मक प्रशंसा दी और बॉलीवुड की लीडिंग अभिनेत्रियों में से एक के रूप में उनकी स्थिति को मजबूत किया. गुस्से वाले बिरजू के रूप में सुनील दत्त के प्रदर्शन ने उन्हे उनके जीवन का सबसे बढ़िया अचीवमेंट से नवाजा. दिलचस्प बात यह है कि इस फ़िल्म के फिल्मांकन के दौरान दत्त और नरगिस में प्यार हो गया, जो उनकी ऑन-स्क्रीन केमिस्ट्री में भी साफ साफ नज़र आई थी. फ़िल्म के डीप दृश्यों की पृष्ठभूमि के बीच नर्गिस और सुनील दत्त के बीच रोमांस खिलने लगा था, जिससे उनका प्रदर्शन और भी आकर्षक हो गया. फिल्म में रामू के रूप में राजेंद्र कुमार और शामू के रूप में राज कुमार का भी मजबूत किरदार था. कैमरे के पीछे के कलाकारों में संगीतकार नौशाद ने एक अविस्मरणीय संगीत तैयार किया जो फिल्म के भावनात्मक स्तर को आसमान की ऊंचाई तक पहुंचा दिया. इस फ़िल्म के सारे गीत :मतवाला जिया डोले पिया झूम, ओ मेरे लाल आजा, होली आई रे कन्हाई, ओ गाड़ी वाले गाड़ी, धीरे हांक रे, नाम मैं भगवान हूं, घूंघट नहीं खोलूंगी सैयां तेरे, दुख भरे दिन बीतो रे भैया, ओ जाने वाले जाओ ना, दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा, नगरी नगरी द्वारे द्वारे, चुनरीया कटती जाए, पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया' सुपर हिट थे और आज भी है. यह फ़िल्म 1957 की हाईएस्ट ग्रॉसिंग फिल्म थी जिसने 4.5 करोड़ का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन किया. इस लाइफ टाइम बिज़नेस को यदि इन्फ्लेशन के हिसाब से आज आंका गया तो यह 1700 से 2100 तक का कलेक्शन दिखाती है. 'मदर इंडिया' का निर्माण दिलचस्प किस्सों से भरा है जो इसमें शामिल सभी लोगों के समर्पण और जुनून को प्रकट करता है. एक उल्लेखनीय घटना में युवा साजिद खान शामिल हैं, जिन्होंने युवा बिरजू की भूमिका निभाई थी. वह एक गरीब स्लम एरिया में रहता था और बाल कलाकारों की खोज के बाद इस फ़िल्म की भूमिका के लिए चुना गया था. फिल्मांकन के दौरान बने घनिष्ठ संबंध के कारण महबूब खान ने बाद में उन्हें गोद ले लिया. एक और दिलचस्प बात थी नरगिस की औथेन्टिसिटी के प्रति प्रतिबद्धता को लेकर. राधा को यथार्थ रूप से अभिनीत करने की चाह में अपने समर्पण को प्रदर्शित करते हुए, नर्गिस ने कई जोखिम भरे दृश्यों के दौरान अपने कई स्टंट स्वयं करने पर जोर दिया. इस फ़िल्म का फिल्मांकन अक्सर कठिन होता था. चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में यह अभिनेता लंबे समय तक काम करते थे. ऐसे दिन भी आए जब तापमान बहुत बढ़ गया, लेकिन हर कोई महबूब खान द्वारा शूटिंग जारी रखने की प्रतिबद्धता का सम्मान करते थे. कलाकारों के बीच सौहार्द्र ने उन्हें इन कठिनाइयों को एक साथ सहन करने में मदद की. शुरुआत में हॉलीवुड स्टार साबू दस्तगीर की तलाश थी, लेकिन कई कारण से ऐसा नहीं हो पाया.. युवा बिरजू का किरदार निभाने के लिए गरीब पृष्ठभूमि से युवा साजिद खान को चुना गया था और बाद में खान ने उन्हें गोद ले लिया था. फिल्म के निर्माण में व्यापक तैयारी शामिल थी, जिसमें अभिनेताओं को खेती की तकनीकों का प्रशिक्षण भी शामिल था. नरगिस ने अपनी भूमिका के लिए कार्लोवी वेरी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीता. फिल्म को सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था. यानी ये प्रथम भारतीय फिल्म थी जिसे ऑस्कर के लिए नॉमिनेट किया गया. इसे कई बॉलीवुड फिल्मों को प्रभावित करने का श्रेय दिया जाता है, जिन्होंने भारतीय सिनेमा में एक सशक्त नारी, एक आदर्श मां को स्थापित किया. 'मदर इंडिया' स्वतंत्रता के बाद के भारत में राष्ट्रवाद और महिला सशक्तिकरण के व्यापक विषयों को दर्शाते हुए, भारतीय नारी की शक्ति और बलिदान की एक अद्भुत कथा बनी हुई है. इसकी विरासत सदियों तक फिल्म निर्माताओं और दर्शकों को समान रूप से प्रेरित करती रहती है. यह एक ऐसी फिल्म है जो ग्रामीण भारत के सार और उसके लोगों, विशेषकर महिलाओं द्वारा सामना किए जाने वाले संघर्षों को दर्शाती है. यह फिल्म विश्व के 1001 उन फिल्मों में शामिल हैं जिसे मरने से पहले जरूर देखने की सलाह दी गई है. फिल्म का वो गीत 'दुख भरे दिन बीतो रे' असल में आसाम के फोक सॉन्ग 'घन बोरोखुन पिसोल माटी' से लिया गया माना जाता है. सेंसरशिप चुनौतियाँ: गरीबी और शोषण जैसे सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने वाले अपने साहसिक विषयों के कारण फिल्म को सेंसर की जांच का सामना करना पड़ा. हालाँकि, आखिर जीत इस फिल्म की शक्तिशाली संदेश का ही हुआ. 25 अक्टूबर, 1957 को' मदर इंडिया' का प्रीमियर एक भव्य आयोजन था जिसने भारतीय सिनेमा में एक महत्वपूर्ण क्षण को चिह्नित किया. मेहबूब खान द्वारा निर्देशित इस फिल्म में न केवल एक ग्रामीण मां के संघर्षों को दिखाया गया है, बल्कि नए स्वतंत्र भारत की भावना का भी प्रतिनिधित्व किया गया है. भव्य प्रीमियर में गणमान्य व्यक्तियों, मशहूर हस्तियों और हजारों उत्साही प्रशंसकों ने भाग लिया, जिसने भारतीय इतिहास की सबसे प्रतिष्ठित फिल्मों में से एक बनने के लिए मंच तैयार किया. मदर इंडिया की प्रत्याशा अपार थी. फिल्म का निर्माण कई वर्षों से चल रहा था और इसने अपनी शक्तिशाली कहानी और प्रभावशाली कलाकारों के कारण महत्वपूर्ण ध्यान आकर्षित किया था. जैसे-जैसे रिलीज की तारीख नजदीक आती गई, जनता और फिल्म उद्योग में उत्साह बढ़ता गया. इस फिल्म के लिए मेहबूब खान का एक दृष्टिकोण था जो मनोरंजन से परे था. उनका उद्देश्य एक ऐसी कहानी तैयार करना था जो भारतीय महिलाओं के संघर्ष को प्रतिबिंबित करे, खासकर ग्रामीण परिवेश में. खान ने भारत की स्वतंत्रता की दसवीं वर्षगांठ के अवसर पर 15 अगस्त, 1957 को फिल्म रिलीज करने की योजना बनाई थी. हालाँकि, विभिन्न प्रोडक्टशन विलंबों के कारण, प्रीमियर को अक्टूबर के लिए पुनर्निर्धारित किया गया था. परदे के पीछे की कहानियाँ: 'मदर इंडिया' का निर्माण चुनौतियों से भरा था जिसने इसकी पौराणिक स्थिति को और बढ़ा दिया. मेहबूब खान को निर्माण के दौरान कई बाधाओं का सामना करना पड़ा लेकिन वह अपने दृष्टिकोण के प्रति प्रतिबद्ध रहे. एक उल्लेखनीय कहानी में नरगिस का समर्पण शामिल था; उन्होंने राधा के अपने चित्रण में प्रामाणिकता सुनिश्चित करने के लिए अपने कई स्टंट स्वयं करने पर जोर दिया. बिरजू की भूमिका निभाने वाले सुनील दत्त को इस फिल्म के शूटिंग के दौरान नरगिस के साथ प्यार हो गया था. दिलचस्प बात यह है कि उनकी ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री माँ बेटे की थी जबकि ऑफ स्क्रीन वे एक दूसरे को प्रेम करने लगे थे और यह ऑफ-स्क्रीन केमिस्ट्री स्क्रीन पर खूबसूरती से एक अलग रूप में सामने आई, जिससे उनके किरदारों के रिश्ते में गहराई दिखाई दी. दिलचस्प बात यह है कि इस दौरान उनका रोमांस परवान चढ़ा और आखिरकार फिल्म की रिलीज के बाद उनकी शादी हो गई. एक और दिलचस्प पहलू यह था कि आखिर खान ग्रामीण जीवन को प्रामाणिक रूप से कैसे प्रदर्शित करना चाहते थे. उन्होंने स्थानीय ग्रामीणों को अतिरिक्त कलाकारों के रूप में लिया और कई दृश्यों को स्टूडियो के बजाय वास्तविक गांवों में शूट किया. इस निर्णय ने इस फ़िल्म में यथार्थवाद का एक तत्व जोड़ा जो उन दर्शकों को पसंद आया जो फिल्म में दर्शाए गए संघर्षों से जुड़ सकते थे. मदर इंडिया का प्रीमियर न केवल एक फिल्म की लॉन्चिंग बल्कि भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक क्षण भी है. यह महिलाओं के सशक्तिकरण का प्रतीक बन गया और पूरे भारत में ग्रामीण समुदायों द्वारा सामना किए जाने वाले मुद्दों पर प्रकाश डाला गया. फिल्म की सफलता के कारण इसे सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया - यह ऐसी मान्यता प्राप्त करने वाली पहली भारतीय फिल्म थी. बाद के वर्षों में, 'मदर इंडिया' को भारत की महानतम फिल्मों में से एक के रूप में मनाया गया. इसका प्रभाव आज भी महसूस किया जा रहा है क्योंकि यह फिल्म निर्माताओं और दर्शकों को समान रूप से प्रेरित करता है. फिल्म में टटोले गए विषय आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं क्योंकि समकालीन समाज में महिलाओं के अधिकारों और सामाजिक न्याय पर चर्चा आज भी जारी है. इस फ़िल्म के भव्य प्रीमियर ने 'मदर इंडिया' को एक क्लासिक फिल्म बनाने के लिए मंच तैयार किया - एक ऐसी फिल्म जिसने न केवल मनोरंजन किया बल्कि भारत में स्त्री के बलिदान और मातृत्व के बारे में पीढ़ियों को शिक्षित और प्रेरित भी किया. जब दर्शक उस रात थिएटर से बाहर निकले, तो वे न केवल एक मार्मिक कहानी की यादें, बल्कि अपनी संस्कृति और विरासत पर गर्व की भावना भी ले गए. आलोचकों ने इसकी कहानी और प्रदर्शन के लिए 'मदर इंडिया' की प्रशंसा की. इसे एक अभूतपूर्व फिल्म के रूप में सराहा गया, जिसमें लैंगिक असमानता और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों को संबोधित किया गया था - जो कि स्वतंत्रता के बाद के भारत में विशेष रूप से प्रासंगिक थे. बॉक्स ऑफिस पर फिल्म की सफलता ने क्लासिक के रूप में इसकी स्थिति को और मजबूत कर दिया. 25 अक्टूबर, दिवाली के दिन 1957 को 'मदर इंडिया' का प्रीमियर, मुंबई के भव्य थिएटर लिबर्टी सिनेमा हॉल में आयोजित किया गया था. यह एक विशाल समारोह था, जिसमें उस शाम को बॉलीवुड ग्लैमर का सार और फिल्म का सांस्कृतिक महत्व दर्शाया गया था. मेहबूब खान द्वारा निर्देशित, 'मदर इंडिया' न केवल एक सिनेमाई उत्कृष्ट कृति थी, बल्कि ग्रामीण भारत में महिलाओं द्वारा सामना किए गए संघर्षों का प्रतिबिंब भी थी. स्थापत्य सुंदरता और ऐतिहासिक महत्व के लिए जाना जाता है, इस महत्वपूर्ण अवसर के लिए एकदम उपयुक्त स्थान था. थिएटर को रंगबीरंगी फूलों और रोशनी से सजाया गया था, और रेड कार्पेट बिछाया गया और जैसे ही सितारे पहुंचे, सड़क पर इकट्ठे उत्साही प्रशंसकों और मीडिया कर्मियों ने उनका स्वागत किया, जो अपने पसंदीदा अभिनेताओं की एक झलक पाने के लिए उत्सुक थे. यह परिदृश्य आज भी नहीं बदला. आज भी बिल्कुल वही होता है जो 1957 में होता था. प्रीमियर ने कई मशहूर हस्तियों, राजनेताओं और फिल्म उद्योग की प्रमुख हस्तियों को आकर्षित किया. उल्लेखनीय उपस्थित लोगों में ये थे खुद महबूब खान, नरगिस, राजेंद्र कुमार, राज कुमार, किशोर कुमार, उनकी पत्नी रुमा गूहोठाकुरता, कुमकुम, मुकरी, सुनील दत्त, मोहम्मद रफी उपस्थित हुए. प्रीमियर में भारत सरकार के सदस्यों सहित कई प्रभावशाली राजनीतिक हस्तियों की भी उपस्थिति देखी गई. उनकी उपस्थिति ने सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने और भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधित्व में फिल्म के विशेष महत्व पर भी प्रकाश डाला. उस दौर के चश्मदीद गवाहों के अनुसार प्रीमियर अद्भुत था. माहौल में उत्साह भर गया. मीडिया कवरेज व्यापक था, संवाददाता उपस्थित लोगों के साक्षात्कार और प्रतिक्रियाएँ लेने के लिए उत्सुक थे. माहौल प्रत्याशा से भरा हुआ था क्योंकि हर कोई एक ऐसी फिल्म की स्क्रीनिंग का इंतजार कर रहे थे था जो मनोरंजक और विचारोत्तेजक दोनों होने का वादा करती थी. फ़िल्म के सशक्त विषय दर्शकों को गहराई से पसंद आये. जब उन्होंने राधा को गरीबी और सामाजिक दबावों के खिलाफ संघर्ष करते हुए देखा, तो थिएटर में बैठे दर्शक अपने आंसू नहीं रोक पाए. मदर इंडिया का चरमोत्कर्ष, जहां राधा अपने बच्चों के लिए अकल्पनीय फैसला सुनाती है, ने दर्शकों पर एक अमिट छाप छोड़ी. क्रेडिट आते ही तालियाँ बजने लगीं, जिससे न केवल फिल्म की सराहना हुई बल्कि इसके सांस्कृतिक महत्व की पहचान भी हुई. आलोचकों ने इसकी कहानी और प्रदर्शन के लिए 'मदर इंडिया' की प्रशंसा की. इसे एक अभूतपूर्व फिल्म के रूप में सराहा गया, जिसमें लैंगिक असमानता और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों को संबोधित किया गया था - जो कि स्वतंत्रता के बाद के भारत में विशेष रूप से प्रासंगिक थे. बॉक्स ऑफिस पर फिल्म की सफलता ने क्लासिक के रूप में इसकी स्थिति को और मजबूत कर दिया. 'मदर इंडिया' का प्रीमियर न केवल एक फिल्म की लॉन्चिंग बल्कि भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक क्षण भी था. यह महिलाओं के सशक्तिकरण का प्रतीक बन गया और पूरे भारत में ग्रामीण समुदायों द्वारा सामना किए जाने वाले मुद्दों पर प्रकाश डाला गया. अपनी रिलीज़ के बाद, *मदर इंडिया* ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा हासिल की और यहां तक कि सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए अकादमी पुरस्कार नामांकन भी प्राप्त किया - यह सम्मान हासिल करने वाली पहली भारतीय फिल्म.मदर इंडिया का भव्य प्रीमियर सिर्फ एक कार्यक्रम ही नहीं था बल्कि यह कहानी कहने का उत्सव था जिसने दिलों को छू लिया और जिंदगियां बदल दीं. अपनी स्टार-स्टडेड उपस्थिति और शक्तिशाली विषयों के साथ, इसने 'मदर इंडिया'को भारतीय सिनेमा में एक कालातीत क्लासिक बनने के लिए मंच तैयार किया - एक ऐसी फिल्म जो आज भी दुनिया भर के दर्शकों को प्रेरित कर रही है. 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