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AURON MEIN KAHAN DUM THA FILM REVIEW:पैसा और समय की बर्बादी

कुछ दिन पहले अजय देवगन की फिल्म "औरों में कहां दम था" का जिक्र करते हुए मुंबई के मराठा मंदिर और गेटी ग्लैक्सी सिनेमाघर के मालिक मनोज देसाई ने अजय देवगन को एक महत्वपूर्ण सलाह दी थी...

AURON MEIN KAHAN DUM THA FILM REVIEW Waste of money and time
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रेटिंगः एक स्टार
निर्माताः शीतल भाटिया, नरेंद्र हीरावत, संगीता अहीर और कुमार मंगत पाठक
लेखकः नीरज पांडे
निर्देशकः नीरज पांडे
कलाकारः अजय देवगन, तब्बू, शांतनु महेश्वरी, सई मांजरेकर, जिमी शेरगिल, हार्दिक सोनी और सयाजी शिंदे आदि
अवधिः दो घंटे 25 मिनट

कुछ दिन पहले अजय देवगन की फिल्म "औरों में कहां दम था" का जिक्र करते हुए मुंबई के मराठा मंदिर और गेटी ग्लैक्सी सिनेमाघर के मालिक मनोज देसाई ने अजय देवगन को एक महत्वपूर्ण सलाह दी थी. फिल्म "औरो में कहां दम था" देखने के बाद हमें लगता है कि अजय देवगन को अपनी मार्केटिंग टीम व पीआरटीम की सलाह को नजरंदाज कर मनोज देसाई की सलाह पर ही अमल करना चाहिए. दो अक्टूबर को सिनेमाघरों में पहुंची नीरज पांडे लिखित व निर्देशित फिल्म "औरों में कहां दम था" इतनी घटिया फिल्म हैं कि दर्शक अपनी गाढ़ी कमायी व समय इस फिल्म के लिए बरबाद करने से डूरी बनाकर रखना चाहता है. इस फिल्म को देखने के बाद यह अहसास होता हे कि फिल्म का नाम ही गलत है. इसका नाम "औरों में कहां दम था" की बजाय 'प्यार का मसीहा' या कुछ और होना चाहिए था.

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कहानीः

बिहार का एक लड़का कृष्णा (शांतनु महेश्वरी ) दिल्ली होते हुए मुंबई पहुंचता है. वह उच्च षिक्षित है. कंप्यूटर हार्डवेयर की जानकारी के जरिए वह जर्मनी जाने के ख्वाब न सिर्फ देखता है,बल्कि उस सपने को पूरा करने के करीब पहुंच जाता है. कृष्णा जिस चाल में रहता है,उसी चॉल में रहने वाली मराठी लड़की वसुधा (संई मांजरेकर )  से उसे प्यार होता है. जन्माष्टमी, दिवाली, होली उसके सब एक गाने में हो जाते है. मगर जर्मनी की यात्रा करने से पहले कृष्णा को एक ट्रेनिंग के लिए बेंगलुरु जाना है.वह बेंगलुरू जाने वाली रात वसुधा के साथ देर तक सम्रदु के किनारे समय बिताकर जब वापस आता है तो वसुधा कहती है कि कृष् णा उसे घर से कुछ दूर ही छोड़ दे और वह पांच मिनट बाद आए. कृष्णा मान जाता है. चार कदम के इस रास्ते में जो होता है, उससे दोनों की जिंदगी बदल जाती है. कृष्णा (शांतनु महेश्वरी) को दोहरी हत्या के जुर्म में 25 साल के  कारावास की सजा सुनाई जाती है. इस घटना के ग्यारह साल बाद कृष्णा के कसम देने के बाद दबाव में  वसुधा की अभिजीत (जिमी शेरगिल) से षादी कर लती है,पर सारा सच बताकर. अब अभिजीत,कृष्णा को जेल से बाहर निकालने के प्रयास शुरू कर देता है.  22 साल बाद कृष्णा (अजय देवगन) की जेल से रिहाई होती है. उसका दोस्त जिग्नेश उसे लेने जेल के बाहर आता है. कृष्णा नहीं चाहता कि वसुधा (तब्बू) उससे मिले. लेकिन वसुधा, कृष्णा से मिलती है और उसे अपने घर ले जाकर अपने पति अभिजीत से भी मिलवाती है. अभिजीत चालाकी से वसुधा को बाहर भेजकर कृष्णा की जुबानी उस रात की घटना का विवरण जानने का प्रयास करता है. फिर कहानी आगे बढ़ती है. पर कहीं कोई मोड़ नही आता. अब सवाल यही है कि उस रात क्या हुआ था? क्या वसुधा उस राज को अपने पेट में छिपाए रह सकेगी. इसके लिए फिल्म देखनी पड़ेगी.

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रिव्यूः

'ए वेडनसडे','स्पेशल 26' और 'बेबी' जैसी क्लासिक थ्रिलर फिल्मों के अलावा 'स्पेशल ओप्प्स' जैसी जासूसी वेब सीरीज के सर्जक इस बार अपना ट्रैक बदलते हए 2024 में साठ व सत्तर के दर्शक की प्रेम कहानी वाली फिल्म "औरों में कहां दम था" लेकर आए हैं,जो कि बेदम है. आखिर नीरज पांडे ने अपना ट्रैक बदलकर 'औरों में कहां था दम" बनाने की क्यो सोची? इसका जवाब शायद उनके पास हो? लेकिन इस फिल्म की कमजोर कहानी वपटकथा के साथ ही लेखक व निर्देशक नीरज पूरी तरह से भटके हुए नजर आते है. उन्हे यह भी नही पता कि हमारे देश में हर लड़की/महिला के पक्ष शुरू से ही आत्मरक्षा के नाम पर कितनी सुरक्षा/ कानून मौजूद रहे हैं. और आज भी है. इसके बावजूद अति कमजोर घटनाक्रम को आधार बनाकर 'प्रेम में बलिदान' की ऐसी कहानी दर्शकों को परोसी है,जो किसी कि गले नही उतरती.एक पारसी होटल मालिक को तीन गुंडों से बचाते समय कृष्णा दिखाता है कि उसके पास कितना तेज तर्रार दिमाग हैं,मगर रात में जो घटना घटती है, उस वक्त वसुधा को बचाने के लिए कृष्णा का यह तेज तर्रार दिमाग आत्मरक्षा में हुए अपराध की बाबत बने कानून का प्रयोग क्यों नहीं करती? इसका जवाबअ कौन देगा?, बेहतरीन कलाकारों को लेकर नीरज पांडे ने जो फिल्म बनायी है,उसे देखकर यही कहा जा सकता है 'हम तो डूबेंगें सनम तुम्हे भी ले डूबेंगे." इस फिल्म को देखते हुए दर्शक को हम दिल दे चुके सनम' व 'दिलजले' के अलावा दक्षिण की कई फ़िल्में याद आ जाती है. फिल्मकार को पता ही नही चला और कृष्णा द्वारा इलेक्टिक बोर्ड के अंदर डिब्बी में छिपाकर रखी गयी  प्लास्टिक की अंगूठी का रंग बदल गया. है न कमाल की बात. क्लायमेक्स के दृश्य की गलती बयां कर मैं लोगों के मुह का स्वाद ज्यादा नही बिगाड़ना चाहता. फिल्म को बेवजह लंबा खींचा गया है. इसे एडीटिंग टेबल पर कस कर कम से कम चालिस मिनट की अवधि कम करनी चाहिए थी. बेवजह फ्लैशबैक के द्रश्यों को कई बार दिखाया गया है. आर्थर रोड जेल के ड्रोन से लिए गए शॉट्स भी अच्छे नहीं हैं और हर बार वही एक ट्रेन इन शॉट्स में आती जाती दिखती रहती है. यह फिल्म समय, धन और प्रतिभा की पूरी बर्बादी है. फिल्म की कहानी 2001 से 2024 तक चलती है. जबकि 'प्रे में तयाग व बलिदान' की बातें पचास व साठ के दर्शक में हुआ करती थी.

परेशान कर देने वाले रोमांस का वर्णन करती है. 2000 तक 'काफी डे' संस्कृति आगाज ले चुकी थी. युवा पीढ़ी का प्यार 'काफी डे पर शुरू होकर काफी डे पर ही खत्म होने लगा था. इतना ही नही 'प्यार के लिए बलिदान' की बजाय युवा पीढ़ी की सोच यह हो गयी है कि 'तू नही तो और सही."अब टूटे दिल की बात ही नही रही. अब   सोशल मीडिया के युग में तो युवा पीढ़ी शादी से पहले 'वन-नाइट स्टैंड; के साथ ही कई बार यौन संबंध बनाने को गलत नही मानती. तो यह पीढ़ी 'औरों में कहां दम था' के षुद्ध प्यार की बात कैसे समझेगी,इसे नीरज पांडे समझा भी नही पाए. फिल्म का गीत संगीत काफी कमजोर है. इस बार संगीतकार एम एम किरवाणी मात खा गए.

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अभिनयः

फिल्म में अजय देवगन और तब्बू की जोड़ी बहुत स्वाभाविक लगती है,लोग इस जोड़ी को काफी समय से पसंद करते आए हैं,मगर निर्देशक यह भूल गए कि यह फिल्म 'विजयपथ' नही है. हताश प्रेमी या प्रेम में बलिदान करने वाले कृष्णा के किरदार में अजय देवगन ने उसी तरह से अभिनय किया है,जिस तरह से वह अतीत में  'दिल है बेताब', 'बेदर्दी' और 'दिलवाले' सहित कई फिल्मों में कर चुके हैं यानी कि उनके अभिनय मे दोहराव ही दोहराव है. तब्बू का अभिनय ठीक है,पर उनमें भी दोहराव है. शांतनु महेश्वरी को अभी और अधिक मेहनत करने की जरुरत है. संई मांजरेकर ने बेहतरीन काम किया है और वह इस ओर इषारा करती हैं कि उनके अंदर अभिनय क्षमता है,पर जरुरत है उसे बहर निकलवाने वाले अच्छे निर्देशक की. अभिजीत के छोटे किरदार में जिमी शेरगिल अपनी छाप छोड़ जाते है. सयाजी शिंदे, जय उपाध्याय, हार्दिक सोनी और बाकी सहायक कलाकारों का अभिनय ठीक ठाक है.

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