फिल्म- गेम चेंजर रेटिंगः डेढ़ स्टार निर्माताः दिल राजू और षिरीषलेखकः कार्तिक सुब्बाराज , विवेक वेलमुरुगन , साई माधव बुर्रा और शंकरनिर्देशकः एस. शंकरकलाकारः राम चरण , कियारा आडवाणी , एस जे सूर्या , अंजलि , श्रीकांत , सुनील और ब्रह्मानंदन आदिअवधि: दो घंटे 44 मिनट तेलुगु फिल्मों के मशहूर फिल्मकार एस शंकर लंबे समय से एक ही ढर्रे खासकर सियासी और सरकारी भ्रष्टाचार के ही इर्द गिर्द फिल्में बनाते आ रहे हैं. तो वहीं उनकी फिल्म का नायक कभी भी किसी राॅबिनहुड से कमतर नही रहा. अब वह राम चरण अभिनीत फिल्म "गेम चेंजर" में भी राजनीतिक भ्रष्टाचार और मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर हो रही खींचतान के साथ नायक को राॅबिनहुड की तरह पेश करने में पीछे नही रहे. मगर "गेम चेंजर" उनकी अब तक की अति कमजोर फिल्म कही जा सकती है.इस फिल्म में अविष्वसनीय घटनाक्रमां की भरमार है,तो वहीं फिल्म देखते समय दर्शकाें को अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ा गया आंदोलन से लेकर अरविंद केजरीवाल के दिल्ली के मुख्यमत्री बनने तक की सारी कहानी भी याद आ जाए,तो कुछ भी आश्चर्य की बात नही होगी. स्टोरी यह कहानी आंध्रा प्रदेश के एक आईएएस अधिकारी राम नंदन और भ्रष्ट राजनीतिक वर्ग मोपीदेवी ( एसजे सूर्या) और माणिक्यम (जयराम) से टकराव की है.मगर कहानी उत्तर प्रदेश के गुटखा माफिया को तबाह करने वाले आईपीएस राम के आईएएस बनकर नई पोस्टिंग पर जाने की यात्रा से शुरू होती है. मोपीदेवी ने अस्पताल में अपने पिता को मारकर मुख्यमंत्री पद हथियाया है. इंटरवल के बाद जब कहानी में फ्लैशबेक आता है तब राम नंदन के पिता अपर्णा,जो किे हकलाते हैं,खदान मालिकों के खिलाफ आंदोलन करते हैं. नेतागिरी चमक जाती है तो "अभूद पार्टी बनाते है. फिर अपने हकलाने की वजह से सार्वजनिक मंच पर पार्टी के एक आम कार्यकर्ता को भाषण देने के लिए आगे बढ़ाता है. उद्योगपतियों के चंदा न लेने की कसम खाता है. पार्टी के पोस्टर, बैनर और कटआउट के खिलाफ नजर आता है. लेकिन, पार्टी के सत्ता तक पहुंचने के रास्ते में पार्टी कार्यकर्ता यानी कि मोपादेवी के पिता द्वारा उद्योगपतियों के हाथों बिककर उस पार्र्टी को हथियाने व अपर्णा की हत्या करने तक की कहानी सामने आती है. फिर राम नंदन और मोपा देवी द्वारा एक दूसरे को मात देने का खेल षुरू होता है. फिल्म का अंत राम नंदन के मुख्यमंत्री बनने और लोकलुभावन भाषण के साथ होता है. रिव्यू शंकर निर्देशित फिल्म "गेम चेंजर" की षुरूआत बहुत ही ज्यादा कन्फ्यूजन पैदा करती है,लगभग दस मिनट बाद कहानी पटरी पर आती है.फिल्म की कहानी का केंद्र आंध्र प्रदेश ही है. मगर हिंदी वर्जन में शुरूआत में ट्रेन को रोककर जब आईएएस रामनंदन को घेरा जाता है,तो वहां परदे पर उत्तर प्रदेश लिखा आता है ..इतनी बड़ी गलती..सिनेमा के नाम पर कुछ भी परोसते रहिए.अपनी जेंबे भरते रहिए...क्या फर्क पड़ता है..इस फिल्म की अच्छी बात यही हे कि फिल्म मतदान को अनिवार्य किए जाने की बात करते हुए मतदान करने के महत्व पर भी रोशनी डालती है. हर फिल्म की तरह इस फिल्म में भी फिल्मकार ने अपने नायक को राॅबिन हुड बनाकर पेश करने की आदत के चलते नायक यानी कि अभिनेता रामचरण को दोहरी भूमिका में पेश करने के साथ ही उन्हें युवा प्रेमी,जो अपने प्यार को जीतने के लिए अपने मूल व्यवहार को बदलता है,वह एक छोटे समय के सुधारक और क्रांतिकारी हैं जो व्यवस्था की ताकत के खिलाफ जाते हैं और भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहते हैं. वह एक आईपीएस अधिकारी के रूप में कई की दुकाने बंद करा चुके हैं. वह एक आईएएस अधिकारी हैं. मुख्यमंत्री से पंगा लेते है. सार्वजनिक मंच पर मंत्री को थप्पड़ मार देते है. चुनावी राजनीति में शामिल हो जाते हैं. मतलब सिनेमा के नाम पर इतने अविष्वसनीय घटनाक्रम ...कमाल है.. फिल्म की गति धीमी है और इंटरवल से पहले तो दर्शक सोचने लगता है कि वह कहां फंस गया.बहुत ही ज्यादा बोर करने वाली फिल्म है. . इंटरवल के बाद घटनाक्रम तेजी से बदलने शुरू होते हैं. पर ज्यादा तर दृष्य कपोल कल्पित ही हैं,जिनका वास्तविकता या लाॅजिक से कोई लेना देना नही. कई बार ऐसा लगता है कि निर्देषक ने कुछ मुद्दों पर कुछ दृश्य फिल्म लिए, फिर उन्हें एडीटिंग टेबल पर जुड़वा कर एक फिल्म की शक्ल दे डाला. .बीच बीच में आवश्यक है या नही,यह सोचे बिना गाने ठूस दिए. जब कहानी व दृष्यों को लेकर निर्देषक व लेखक का फोकस सही न हो तो वह दृश्यअसंगत हो जाते हैं. और फिल्म का सत्यानाश हो जाता है. यही गेम चेंजर में हुआ है. मसलन राम नंदन और दीपिका के बीच का पूरा रिश्ता काफी प्रभावशाली है. लेकिन जिस तरह से इसे कहानी के अंदर बुना गया है,वह महत्वहीन हो गया है. फिल्मकार ने दिखाया है कि राम नंदन को गुस्सा बहुत आता है. इसलिए दीपिका के कहने पर वह आई पीएस के बाद आई ए एस बन जाता है और एक ही दिन में भ्रष्ट अधिकारी को उसके पद से हटा निे से लेकर पूरे मॉल को जमींदोसत करने से लेकर राशन की दुकानों के आसपास के भ्रष्टाचार को खत्म कर देते है.चुनाव से पहले पैसे के लिए वोट न देने के लिए पूरे गांव का मन बदल देता है. यह सारे दृश्य अलग अलग टुकड़ों में बेहतरीन बने हैं,मगर एक साथ कहानी में यह उचित नही लगते. विडंबना यही है कि निर्देषक शंकर स्वप्नलोक के नाम पर सब कुछ दिखा या यूं कहें कि कपोल कल्पित ही परोसा है. कुछ एक्शन सीन दमदार है. पर इसमें काॅमेडी वही पुराने अंदाज वाली. फिल्म का क्लाइमेक्स तो बहुत घटिया है. वास्तव में फिल्म के अंतिम एक घंटे में लेखक व निर्देशक का अपनी फिल्म पर से पकड़ खत्म हो जाती है. एक्टिंग राम चरण रिष्ते में तो "पुष्पा 2 द रूल" के कलाकार अल्लू अर्जुन के कजिन है,मगर राम चरण में अभिनय को लेकर सीमित प्रतिभा है. उनके भाव अधिकतर दृश्यों में एक जैसे रहते हैं. जहां ज्यादा भाव दिखाने की जरूरत होती है, वहां वह चश्मा पहनकर भाव खाने लगते हैं. राम चरण में अल्लु अर्जुन जैसा एक्टिंग टैलेंट नही है. डाक्टर दीपिका के किरदार में किआरा अडवाणी सिर्फ सुंदर नजर आयी है. उनके हिस्से करने को कुछ आया ही नही. निर्देश्क शंकर का सारा फेकस तो राम चरण पर ही रहा. मोपा देवी के किरदार मे अभिनेता एस जे सूर्या तारीफ बटोर ले जाते हैं. 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