साहिर साहब, क्या आपने कभी कोरोना और ओमिक्राॅन जैसे इंसान के दुश्मन के नाम सुने थे?

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साहिर साहब, क्या आपने कभी कोरोना और ओमिक्राॅन जैसे इंसान के दुश्मन के नाम सुने थे?

- अली पीटर जॉन
आज कल ना जाने क्यों आप रोज याद आते हैं....
आज दिन में भी अँधेरा लगता है
आज भी इंसानों को कुचला और मसला जाता है
आज औरत को बाजारों में बेचा जाता है और उनके जिस्म का सौदा किया जाता है
आज बच्चे गली गली और हर नुक्कड़ पर भीख मांग रहे हैं
आज मजलूमों पर और मजदूरों पर अन्याय किया जाता है
आज भी नेता लोग भगवान बनकर राज करते हैं लोगों के दिलों दिमाग पर
आज भी इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं
आज भी इंसान को दो वक्त की रोटी के लिए हाथ फैलाना पड़ता है
आज भी कुत्ते बड़ी-बड़ी गाडियों में घुमते हंै और छोटे-छोटे बच्चे रुक कर उन कुत्तों को ताकते हैं और सोचते हैं, ‘‘काश हम कुत्तें ही पैदा होते‘‘ और गाड़ी में कुत्ता उनको देख कर मुस्कुराता है और गाड़ी में बैठकर आगे निकल जाता है अपने वफादार मालिक के साथ
आज भी किसान अपने हक के लिए लड़ता है, आंदोलन करता है और मरता भी है
और बाकी सारी तकलीफे और सामाजिक, राजनीतिक और शारिरिक बीमारियां वैसी ही है जैसे आपके जमाने में थी ....
और हम इन सारी तक्लीफों को झेलने में माहिर होते जा रहे थे कि....
दो बड़ी और अंजानी-सी और घातक बीमारियों ने हम पर वार किया है और उनके वार से हम सब धीरे- धीरे बर्बाद हो रहे हैं, दोनों बिमारियों के शानदार नाम है, एक कोरोना है और ओमिक्रोन है और दोनो ये सोच रहे हैं हरदम की हम इस घमंडी और पापी इंसानों का कैसे खात्मा करे
इन दो बीमारियों ने किसी को छोड़ा नहीं है, ये दो बीमारियां अमीर और गरीब, काले और गोरे, ब्राह्मण और शूद्र और धनवान और नेता और पूजारी में फर्क नहीं करता, ये सबको एक ही तरीके से मारते हैं....
और अब ये मेरे और तुम्हारे बॉलीवुड को भी अपने खूनी जाल में फंसा रहे हैं और जो बॉलीवुड ये सोचता था कि हम किसी से कम नहीं, वही बॉलीवुड आज रोता है, चिल्लाता है, गिड़गिड़ाता है और ऊपरवाले से भी बचाने की भीख मांगता है
अभी कोरोना और ओमिक्रॉन ने काफी बर्बादी का मेला लगा रखा है, आगे क्या होगा, ये शायद कोई खुदा या गाॅड या भगवान भी नहीं जानता, ये कोरोना और ओमिक्रॉन ने हम सबको घुटनों पर लाया है और अगर हमारी दुआएं नहीं सुनी गई, तो कल क्या होगा किस को पता

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लेकिन हम को अभी भी उम्मीद है जैसे आपको 70 साल पहले उम्मीद थी और हम भी वही कहते हैं, जो आपने कहा था, वो सुबह कभी तो आएगी.., वो सुबह कभी तो आयेगी, वो सुबह जरूर आयेगी, वो सुबह हमे ही को लानी होगी।
हम को याद है आपकी वो रचना जिसने अपने जमाने को और वक्त को आईना दिखाया था
आज जमाने को आईना दिखाने की सख्त जरूरत है, लेकिन आज साहिर लुधियानवी कहाँ है?
वो सुबह कभी तो आएगी
इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा
जब अंबर झूम के नाचेगा, जब धरती नग्में गायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी
जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से, हम सब मर-मर कर जीते हैं
जिस सुबह के अमृत्व की बूंद में, हम जहर के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर, एक दिन तो कर्म फरमायेंगी
वो सुबह कभी तो आएगी
माना की अभी तेरे मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर
इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं
इंसानों की इज्जत जब झूठे, सिक्कों में ना तोली जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
एक बार फिर ऊपर वाली पंक्तियों को वापिस पढ़िये, ध्यान से पढ़िये। आपको यकीन हो जाएगा कि जो कुछ साहिर ने 70 साल पहले कहा था, वो आज भी सच है।
है ना?

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