भारत में जबसे सिनेमा में है, तबसे उस सिनेमा की समीक्षा करने वाले क्रिटिक मौजूद हैं। क्रिटिक का अर्थ यूँ तो आलोचक होता है पर अमूमन, ख़ासकर आज के दौर में हमें क्रिटिक कम और प्रशंसक ज़्यादा मिलते हैं। या खरी हिन्दुस्तानी में लिखूं तो चापलूस ज़्यादा देखने को मिलते हैं जो फिल्म अच्छी लगे न लगे बस तारीफें करने में, अपने नंबर बढ़ाने में लगे रहते हैं। लेकिन, बीते करीब 50 वर्षों से फिल्मी लेखन में सक्रीय जनाब Ali Peter John इस ढर्रे से तब भी अलग थे और आज भी अलग हैं।
अव्वल तो बीते दौर का कोई भी ऐसा सुपरस्टार नहीं था जिनके साथ अली साहब का उठना बैठना नहीं होता था। दशक साठ और सत्तर के सुपरस्टार ही-मैन धर्मेन्द्र अली साहब के आने पर बेहद ख़ुश होकर मिलते थे और कहते थे कि “मेरा दारु भाई आ गया”, देवआनंद साहब अली जी के बिना किसी फेस्टिवल में जाना पसंद नहीं करते थे।
एक बार की बात है, गोवा फिल्म फेस्टिवल में देवसाहब ने अली जी से साथ चलने के लिए कहा पर अली साहब किसी कारणवश सेम फ्लाइट में न आकर, उसके बाद वाली फ्लाइट में आए, पर जब वो गोवा पहुँचे तो देखा न कोई उन्हें रिसीव करने के लिए मौजूद था और न ही उनके रहने-खाने का कोई इंतज़ाम हुआ था। अपने बेफ़िक्र अंदाज़ में अली साहब ने बिना किसी बात की परवाह करते हुए एक बाइक टेक्सी पर सवार होकर एक साधारण से होटल को अपना मुकाम बना लिया। देव साहब तब पब्लिक के बीच थे इसलिए फोन सुन न पाए। लेकिन जब उन्हें ख़बर मिली कि अली ऐसे किसी होटेल में है तो उन्होंने तुरंत अपने ड्राईवर को भेजा और अली साहब को ले आने के लिए कहा। जब अली साहब उनके फाइव स्टार होटेल में पहुँचे तो पता चला यहाँ तो कोई भी रूम खाली नहीं है।
अब करें तो क्या करें?
पर देव साहब तो देव साहब थे, अली जी के लिए उनका प्यार अलग ही पैमाने पर था। उन्होंने अपने बेटे सुनील से कहा कि वो उनके साथ ही उनके सुइट में शिफ्ट हो जाए और अपना कॉटेज अली साहब को दे दे।
ये दिल था देव साहब का अली जी के लिए। पर इतनी मुहब्बत इतने अपनेपन के बावजूद, अली साहब जब देवानंद की फिल्मों की समीक्षा करते थे या उनकी फिल्म के बारे में कोई लेख लिखते थे तो उसमें कोई मिलावट नहीं होती थी। कोई मिज़ाजपुर्सी नहीं चलती थी। वह सच लिखते थे। आज भी उनके लिखने का तरीका ऐसा ही है।
यही हाल शाहरुख खान का भी है, बीते साल अली साहब एक दुर्घटना की चपेट में आ गए थे, तब उनके पैर के ट्रीटमेंट का सारा इंतज़ाम शाहरुख खान ने किया था।
अली साहब ख्वाजा अहमद अब्बास को अपना गुरु मानते हैं। शायद उन्हीं की वजह से उनका झुकाव वामपंथ की तरफ ज़्यादा है मगर फिर भी, कभी उनसे विपरीत विचारधारा का एक्टर या फिल्ममेकर मिल जाए तो वह उसकी विचारधारा का भी सम्मान करते हैं और कोई कोई अच्छा काम हो तो उसके गुणगान भी करते हैं।
अली जी के लेख यूँ तो अंग्रेज़ी में ही होते हैं लेकिन कोई भी आम पढ़ा लिखा हिन्दुस्तानी इनके लेख बहुत आराम से, सरलता से पढ़ और समझ सकता है। इनकी भाषा शैली इतनी रोचक होती है कि एक बार पढ़ना शुरु करो तो सीधे खत्म करने के बाद ही स्क्रीन से निगाह हटती है। अली साहब की ये ख़ासियत कहें या उनका तजुर्बा, उनके लेख इस शैली में होते हैं कि कोई मज़ेदार सी कहानी लगते हैं।
मुझे याद है, जब मैं पहली बार मायापुरी मैगज़ीन में आया था तब पहला आर्टिकल अली जी का ही पढ़ने के लिए मिला था। आर्टिकल पढ़कर काफी देर तक मैं सोचता रहा था कि भला कोई इतना बेहतरीन कैसे लिख सकता है? हालाँकि उस दिन से पहले तक मैं अली जी के बारे में न के बराबर जानता था। कभी भूले भटके याद आता था कि मेर पिता स्क्रीन मैगज़ीन पढ़ते थे और उसमें अली जी के आर्टिकल्स का ख़ासा क्रेज़ हुआ करता था।
पर मेहरबानी मायापुरी के चीफ-एडिटर सर पीके बजाज साहब की जो उन्होंने न सिर्फ मुझे अली साहब के नये-बीते आर्टिकल ऑनलाइन पब्लिश करने का मौका दिया बल्कि अली साहब से मेरी बात भी कराई। पहली बात कोई दस मिनट के वक्फे में थी लेकिन उसमें भी मैं मान गया था कि उनके पास ज्ञान का भण्डार है। शायद ही फिल्म से जुड़ी कोई बात है जो उन्हें न पता हो, वर्ना वह सब जानते हैं और बीते 50 सालों में फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े हर शख्स को भी पहचानते हैं।
अली साहब की एक और ख़ासियत है, वह कलाकारों से हुई बातचीत या कोई इंटरव्यू कभी कहीं लिखते या रिकॉर्ड नहीं करते। वो बस सुन लेते हैं और उनकी मेमरी इतनी शार्प है कि जो भी बात हुई थी उसे वो अक्षरशः कागज़ पर उतार देते हैं। इनकी यादाश्त का इससे बेहतरीन नमूना और क्या होगा कि वह पहली बार किशोर कुमार से कैसे मिले थे और किशोर कुमार ने अपने शांति कुञ्ज में उन्हें किस तरह डराया था, उन्हें सब याद है।
ऐसी नायाब शक्सियत का आज जन्मदिन है और अपने जन्मदिन पर वह अपनी नई किताब ‘थैंक गॉड, यू कांट टेक अवे माय लव फॉर यू’ रिलीज़ कर चुके हैं।
मुझसे कोई पूछे तो मैं यही कहूँगा कि अली साहब द्वारा लिखी ‘witnessing wonders’ एक ऐसी किताब है जो पूरे बॉलीवुड इतिहास और बॉलीवुड के बड़े से बड़े दिग्गज के बारे में जानकारी बटोरने का एक बेहतरीन दस्तावेज है।
मेरी और समस्त मायापुरी मैगज़ीन में कार्यकृत मेरे साथियों की ओर से अली साहब उर्फ़ अली पीटर जॉन को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएं, आप यूँ हीं आगे दशकों तक लिखते रहें, आपकी कलम की कभी स्याही खत्म न हो
-सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’
(अली साहब के जन्मदिन पर मेरी तरफ से उनके लिए मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा यह गाना)
वो तो है अलबेला
हजारो में अकेला
सदा तुमने ऐब देखा
हुनर को ना देखा
फुरसत मिली ना तुम्हें
अपने जहाँ से
उसके भी दिल की कभी
समझते कहाँ से
जाना है जिसे पत्थर
हीरा है वो तो हीरा
सदा तुमने ऐब देखा
हुनर को ना देखा
वो तो है अलबेला
हजारो में अकेला
बंसी को लकड़ी सदा
समझा किये तुम
पर उसके नगमों की धुन
कहाँ सुन सके तुम
दीये की माटी देखी
देखी ना उसकी ज्योति
सदा तुमने ऐब देखा
हुनर को ना देखा
वो तो है अलबेला
हजारो में अकेला
वो तो है अलबेला
हजारो में अकेला
वो तो है अलबेला..
फिल्म – कभी हाँ कभी न
गीतकार – मजरूह सुल्तानपुरी
संगीतकार – जतिन ललित
गायक – कुमार सानू, देवकी पंडित