आज कुछ नहीं सूझ रहा। दिमाग में कुछ ख़याल नहीं आ रहा। पिछले कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है जैसे दिमाग में कुछ नहीं है। बिलकुल ख़ाली पड़ गया हो। कुछ विचार नहीं जैसे सोचने की शक्ति ख़तम हो गयी हो। ऐसा इसलिए नहीं की बहुत हो गया अब, यह एक ज़िन्दगी का वक़्त ही है जो बीच बीच में आता जाता रहता है। इस वक़्त में सबसे मुश्किल काम लगता है खुद को उठाना, खुद को रास्ता दिखाना। ऐसा लगता है खुद की खुद से ही जंग हो रही है। ऐसा लगता है खुद में ही दो इंसान हैं और आपस में लड़ रहे हैं। मैं शिकायत नहीं कर रही। बस आप सब से एक बात सांझा कर रही हूँ। आरती मिश्रा
क्यों होता है की कभी कभी सब ख़ाली लगने लगता है? सब कुछ अँधेरा अँधेरा सा लगने लगता है? कहां से रस्ते बंद होते दिखाई देने लगते हैं? क्या यह वही हम है जो किसी वक़्त में बहुत जोश में हुआ करते थे? कुछ नहीं बदला आज भी, सब पुराने जैसा ही चल रहा है फिर इन दिनों ही क्यों अजीब सी बेचैनी हो रही है? शायद पुराने जैसे ही चल रहा है इसलिए तो ऐसा हो रहा है। देखा खुद से बात करके कैसे सवालों के ज़वाब मिलते हैं। आज कल मैं भी खुद से ही बात कर रही हूँ। क्यूंकि किसी और से बात करने का मन नहीं और ना ही मकसद है। क्यों? पता नहीं। मालूम है की थोड़े समय तक की ही बात है मगर है।
अँधेरी गुफ़ा के एक कोने में बैठे हैं। मालूम है की रौशनी गुफ़ा के दूसरी ओर है मगर फिर भी वहीँ बैठे हैं। मालूम है की खुद को खुद ही उठाना पड़ेगा कोई ओर नहीं आएगा मगर फ़िर भी वहीँ बैठे हैं। यही तो है खुद की खुद से लड़ाई और क्या है। चलते चलते यूँ ही थकान हो जाती है रास्तों में। बस जैसे ही बैठे वैसे ही दिमाग ने कहां अब बस।
यह दिमाग बहुत खेलता है हमारे साथ। दरअसल सारा खेल ही इसका है। यह हमें खिलौने की तरह नचाता है और हम नाचते हैं, यह जानते हुए भी की हम इसे काबू में कर सकते है। तो बस करना क्या है, उठाना है और आगे बढ़ना है अब जैसे भी बढ़ो। यह सिर्फ दिमाग का एक खेल है जो हमें जीतना है। कुछ पल के लिए वो हावी है हम पर उस पर हावी होना है बस।