Advertisment

Birthday Special K. N. Singh: खलनायक भी नायक की एज-ग्रुप का होना चाहिए!

author-image
By Mayapuri Desk
New Update
Birthday Special K. N. Singh: खलनायक भी नायक की एज-ग्रुप का होना चाहिए!

खलनायक के रूप में के. एन. सिंह का किसी जमाने में डंका बजा करता था. इसलिए खलनायक विशेषांक के लिए जब फोन पर इन्टरव्यू की इच्छा व्यक्त की तो जवाब मिला-

‘इस इशू के लिए मेरा इन्टरव्यू करके क्या फायदा? मैं तो अब लगभग सन्यास ले चुका हूं. जो दो-एक फिल्में कर रहा हूं उनमें भी चरित्र भूमिकायें हैं.'

‘ऐसा आप समझते हैं किंतु हमारे विचार से आपके बिना खलनायक विशेषांक अधूरा ही रहेगा.'

‘ठीक है जैसी आपकी इच्छा. आप परसों साढ़े दस बजे घर आ जाइए.'

जब मैं के.एन.सिंह के घर पहुंचा तो पता चला कि साहब नाश्ता कर रहे हैं. थोड़ी देर बाद सिंह साहब आए तो कहने लगे-‘‘साॅरी! मैं आज कुछ देर से उठा था. आप परवेज ही है न!'

हम इन्टरव्यू का सिलसिला शुरू करें इससे पूर्व ही सिंह साहब शुरू हो गए और अतीत को खंगालने लगे. वह सारी बातें बड़ी दिलचस्प थीं किंतु हमारे विषय से मेल नहीं खाती थीं. वह भी शायद यह बात समझ गए और बोले-‘अच्छा आप पूछिए मैं चुप हो जाता हूं.'

‘आपने बतौर खलनायक अपना कैरियर कब शुरू किया था?'

सिंह साहब कुछ सोचते रहे फिर बोले-‘वैसे तो मैं पूर्णरूप से 1938 में ही खलनायक बन गया था. किंतु उससे भी पूर्व सर्वप्रथम विलैनिश रोल 1936 में कलकत्ता की एक फिल्म ‘अनाथाश्रम' में किया था. जिसमें एक बच्चे का अपहरण किया था. 1938 में जब बम्बई आया तो कारदार की फिल्म ‘बागबान' की. उस फिल्म का किस्सा बहुत दिलचस्प है. उस फिल्म का खलनायक एक स्वार्थी इन्सान था. जिसे दूसरों की मुसीबत का अहसास नहीं है. प्यार नाम की चीज से वह अनभिज्ञ है. दूसरों से सदा रूखेपन कि बात करता है. क्योंकि उसका विचार है कि यदि किसी से प्यार से बात करोगे तो सामने वाला जरूर कुछ मांग बैठेगा. फरियाद करेगा. उन दिनों खलनायक के तौर पर याकूब ईश्वर लाल आदि चल रहे थे. मैं उनकी काफी फिल्म देख चुका था. कारदार ने जब उस फिल्म की आफर की तो मैंने कहा कि मैं किसी की नकल नहीं करूंगा. क्योंकि नकल ज्याा दिन नहीं चल सकती. दूसरे अगर कव्वा मोर के पंख लगाकर चलेगा तो कोई पंख यहाँ गिरेगा कोई वहां गिरेगा. मैं आपको रिहर्सल करके दिखाता हूं. अगर आपको पसंद आए तो ठीक है वरना आप किसी और को ले लें. उन्होंने कहा ठीक है. रिहर्सल शुरू हुई. उस समय कारदार की पत्नी बहार अख्तर भी वहां मौजूद थीं. मैंने रिहर्सल करके दिखाई तो कारदार चुपचाप अपनी कुर्सी पर बैठे रहे. मैंने पूछा क्या ख्याल हे ? बोले हमारी समझ में कुछ नहीं आया. मैंने कहा-‘फिर आप किसी और को ले लीजिए.' इस पर बहार आपा कारदार से बोलीं-‘मियां जी आपका दिमाग खराब हो गया है. के. एन. सिंह की आंखें तो देखी ही नहीं, सिर्फ बदन देख रहे हो.' कारदार बोले-‘ठीक है लेना है तो ले लो लेकिन मैं सैट पर नहीं आऊंगा.' बहार आपा ने मुझे साइन कर लिया और कारदार ने जैसा कहा था वैसा ही किया. मैं जब सैट पर होता तो उधर का रूख नहीं करते थे. फिल्म पूरी हुई, रिलीज हुई, और हिट हो गई और ‘पुकार' के मुकाबले में खूब चली. और बस, इस तरह हम विलैन बन गए. उसके बाद एक दिन याकूब आए और बोले-किंग ! तुमने कमाल कर दिया.' मैंने कहा-‘मैं किंग नहीं सिंह हूं.' वह कहने लगे-‘किंग हम तो किंग ही बोलेगा. हम तुम्हारी पिक्चर देख कर आया. अच्छा भी लगा, बुरा भी लगा.' मैंने कहा-‘पहले यह बता दीजिए बुरा क्यों लगा?' बोले-‘हमने आज से विलैन का काम बंद कर दिया है. पता नहीं तू कैसे विलैन बना है ? न सिगरेट पीता है न आंखें दिखाता है. हम तेरी पिक्चर में काॅमेडी करेगा. उसके बाद हमने कई फिल्में साथ की जिसमें उन्होंने काॅमेडी की.'

‘अब तक खलनायक के तौर पर आपने कितनी फिल्में की हैं और उसके किस रूप को उभारा है?'

‘अब तक दो सौ फिल्में कर चुका हूं। जहां तक रूप की बात है। मैंने हर रूप को उभारा है। ऐसा भी विलेन बना हूं जो दुश्मन से हंस कर बात करता है। किंतु उसमें घृणा छुपी होती है। राजा-महाराजाओं के सेक्रेट्री के रोल भी किए हैं। थर्ड क्लास चोर, गांव का लफंगा भी बना हूं। और ऐसे भी रोल किए हैं जिनमें बोलने के अन्दाज और हाव-भाव से ही लगता है कि यह विलेन है। एक खास बात बताऊं कि अगर विलेन एक्टिंग और एक्शन में वाक्य का सहारा ले तो अदाकारी में हकीकत झलकने लगती है। किंतु मारने, चीखने और रेप करने से ही खलनायक जाहिर किया जाए तो वह बनावटी लगता है। यह बात मैंने हरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय और देवकी बाबू से सीखी है।'

‘किसी जमाने खलनायकी में आपका जवाब नहीं था। किंतु इधर कुछ अर्से से आप फिल्मों में कम नजर आते हैं इसका क्या कारण है ?'

‘इसका सबसे बड़ा कारण उम्र है। दरअसल खलनायक भी नायक की उम्र का होना चाहिए। अन्यथा रोल ऐसा होना चाहिए कि वह बूढ़ा हो। अब मैं आपको बताऊं कि रामानंद सागर कि फिल्म ‘हमराही' में मैंने रणधीर कपूर के साथ खलनायक की भूमिका अदा की थी। एक दिन मेरी बहन कृष्णा राजकपूर, रणधीर कपूर, रामानंद सागर और हमारी फेमिली के दूसरे मेम्बर पिक्चर हाल में फिल्म देखने गए। शायद उस दिन फिल्म का सिल्वर जुबली फंक्शन था। एक सीन में मैं जब डब्बू को मारता हूं तो पीछे से किसी दर्शक ने उठकर आवाज लगाई। ‘सिंह साहब या आपका पोता है, इसे क्यों मार रहे हो?'  मैंने रामानंद सागर से कहा- ‘सुन ले बेटा! अब तू ही समझ!' इससे अब आप भी समझ गए होंगे कि मैं क्यों फिल्मों में नजर नहीं आता। दूसरे आज कल हीरोइज्म ऐसा चल पड़ा हे कि बस, पूरी फिल्म में हीरो ही होना चाहिए। अगर किसी सीन में कोई आर्टिस्ट हीरो ही होना चाहिए। अगर किसी सीन में कोई आर्टिस्ट हीरो पर छा जाता है तो हीरो नाराज हो जाता है। और निर्देशक से कहता है-‘‘ऐसे माहौल में हमसे तो काम ही नहीं हो सकता. हमारे जमाने में सारे आर्टिस्ट बराबर होते थे. न कोई साहब होता था और न कोई नौकर मैं आपको एक और दिलचस्प किस्सा सुनता हूं। यह 1945 की बात है। यह फिल्म ‘लैला मजनूं' की शूटिंग का है। नजीर (स्व. के. आसिफ के मामू) स्वर्ण लता और कुछ जूनियर आर्टिस्ट बम्बई के मैसूर पैलेस में शूटिंग कर रहे थे. लंच टाइम में हमारे लिए खाना आ गया। प्रोडक्शन मैनेजर ने जूनियर आर्टिस्टों को पैसे देकर कहा कि तुम लोग जाकर खाना खाओ. एक जूनियर आर्टिस्ट ने कहा-हमें गाड़ी दे दो। क्योंकि उस समय उस इलाके में कोई होटल नहीं था. और खाने के लिए वहाँ से यानी नेपियनसी रोड़ से ग्रांट रोड जाना पड़ता था. इस पर प्रोडक्शन मैनेजर जूनियर आर्टिस्ट पर बिगड़ गया । नजीर ने जब यह बात सुनी तो प्रोडक्शन मैनेजर को बुलाया और उसे खूब डांट पिलाई और अपना और हमारा खाना उठाकर जूनियर आर्टिस्टों को दे दिया. जूनियर आर्टिस्ट घबरा गए उन्होंने खाने से मना किया तब नजीर ने कहा कि अगर तुम लोग ये खाना नहीं खाओगे तो मैं तुम लोगों से बात नहीं करूंगा। मजबूरन उन्हें खाना खाना पड़ा. फिर प्रोडक्शन मैनेजर स्वय हमलोगों के लिए खाना लाने गया. आज आप किसी हीरो से इसकी उम्मीद कर सकते हैं.

‘आपकी आनेवाली फिल्में कौन-सी हैं? और उनमें किस प्रकार के रोल हैं?'

‘जैसा कि मैंने कहा कि मैं लगभग सन्यास ले चुका हूं। फिर भी अगर कोई बुला लेता है तो चला जाता हूं। राज खोसला की फिल्म में जज का रोल कर रहा हूं। ‘तुम्हारे पहलू में' मैं विनोद मेहरा के पिता का रोल कर रहा हूं जो सख्त बीमार है। इसके अलावा शायद एक फिल्म और जिसका मुझे नाम याद नहीं आ रहा है.'

राजकपूर की फिल्म आवारा में में गुंडा बनता हूँ जिसमे जज पृथ्वीराज कपूर मुझे सजा देते है और मैं उनके बेटे राजकपूर को चोर बना देता हूं जिसका डायलॉग बहुत मशहूर हुआ था 

शरीफ का बेटा शरीफ और बदमाश का बेटा बदमाश नहीं होता, सिर्फ हालात ही उसे आवारा, चोर, बदमाश बना देते हैं

#k n singh birthday #k n singh film #k n singh story #indian actor k n singh #bollywood actor k n singh #k n singh hindi movies #k n singh biography
Advertisment
Latest Stories