साठ
के
दशक
के
अंत
और
सत्तर
के
दशक
की
शुरुआत
में
,
युवा
‘
एलियंस
’
यानी
अपरिचितों
का
एक
दल
बॉम्बे
की
फिल्म
इंडस्ट्री
में
उतरा
था
(
इसे
अभी
तक
मुंबई
के
रूप
में
जाना
नहीं
गया
था
)!
ये
इंडस्ट्री
अपनी
उपलब्धियों
और
प्रयोगों
,
अपने
चॉकलेट
नायकों
और
सुंदर
नायिकाओं
,
फिल्मी
बादशाहों
और
अपने
पुराने
तकनीशियनों
तथा
संगीतकारों
के
साथ
खुश
थी
ये
एलियन्स
पूना
(
अब
पुणे
)
नामक
एक
ग्रह
से
उतरे
थे
,
जहां
भारत
सरकार
द्वारा
स्थापित
पहला
फिल्म
निर्माण
संस्थान
था
!
उन्हें
बेहद
कठिन
संघर्ष
और
स्टूडियोज
तथा
प्रसिद्ध
निर्देशकों
के
कार्यालयों
के
चक्कर
लगाने
वाले
दिनों
का
सामना
करना
पड़ा
,
साथ
ही
उनकी
अस्वीकृति
और
अपमान
भी
झेलना
पड़ा
था
!
उनमें
ज्यादतरों
के
लिए
इन
स्टूडियोज
के
फाटकों
में
प्रवेश
करना
भी
मुश्किल
था।
ये
मेहनती
छात्र
थे
,
जो
सिनेमा
के
विभिन्न
क्षेत्रों
में
उत्कृष्टता
के
लिए
स्वर्ण
पदक
,
प्रमाणपत्र
और
डिप्लोमा
के
साथ
एफटीआईआई
से
पास
हुए
थे।
इन
ष्एलियंसष्
में
रोहतक
के
एक
युवा
और
सुदर्शन
व्यक्ति
भी
थे
,
जिन्हें
सुभाष
घई
कहा
जाता
था
,
जिन्हें
भविष्य
के
एक
उज्ज्वल
चिंगारी
के
रूप
में
देखा
जाता
था
,
लेकिन
अपने
अधिकांश
सहयोगियों
की
तरह
,
उन्हें
खाली
और
खोखले
वादों
पर
रहना
पड़ा।
ये
‘
एलियन
’
जो
ज्यादातर
देश
के
विभिन्न
हिस्सों
से
थे
,
उन्हें
बतौर
पेइंग
गेस्ट
आवास
मिला
और
कुछ
भाग्यशाली
थे
जिनके
पास
सपनों
के
शहर
में
रिश्तेदार
थे
जहां
उनके
पास
आश्रय
खोजने
और
अपने
बुलंद
सपने
देखने
के
लिए
जगह
थी।
लेकिन
ज्यादातर
के
लिए
कुछ
स्थानीय
अड्डे
और
‘
आंटी
के
बार
’
थे
जहाँ
बहुत
सस्ती
कीमत
पर
देशी
शराब
नारंगी
परोसी
जाती
थी
,
महज
पचास
पैसे
में
नारंगी
का
एक
पेग
!
ये
लोग
यहां
बैठकर
गोडार्ड
,
फेलिनी
,
कुरोसावा
और
माइकल
एंजेलो
एंटोनियोनी
द्वारा
बनाई
गई
फिल्मों
पर
बातें
करतें
,
जो
उन्होंने
एफटीआईआई
में
सीखे
थे
,
उसपर
गर्मा
-
गर्म
बहस
भी
करते
!
जैसे
-
जैसे
नारंगी
का
नशा
चढ़ता
जाता
वैसे
-
वैसे
वे
अपनी
तकदीर
और
जीवन
की
दार्शनिकता
पर
बहसबाजी
से
लेकर
इस
इंडस्ट्री
में
जगह
पाने
को
तरसते
लोगों
के
जीवन
और
संघर्ष
की
बातें
करते
!
वे
नशे
में
इतने
धुत्त
हो
जाते
कि
भूल
जाते
कि
पिछली
रात
को
बहस
का
मुद्दा
क्या
था
,
और
अगली
रात
को
फिर
से
उसी
विषय
पर
बहस
शुरू
कर
देते
थे
!
सुभाष
घई
जो
कि
बॉम्बे
के
एक
दूर
-
दराज
इलाके
चेंबूर
में
अपनी
पैतृक
रिश्ते
की
चाची
के
साथ
रहते
थे
,
वे
पीते
नहीं
थे
!
लेकिन
फिर
भी
वे
इन
नशों
के
अड्डों
पर
सिर्फ
माहौल
और
अपने
साथियों
के
मूड
को
भांपने
के
लिए
आते
थे
!
वह
जावेद
अख्तर
नामक
एक
संघर्षशील
कवि
से
प्रभावित
थे
,
जो
किसी
भी
विषय
पर
तर्क
कर
सकते
थे
चाहे
वह
खुद
उस
पर
विश्वास
करता
हो
या
नहीं
और
उसके
पास
ऐसा
हुनर
था
जिससे
वो
सभी
लोगों
का
ध्यान
आकर्षित
कर
पाता
था।
उस
कवि
के
पास
मिनटों
में
चालीस
नए
पैसे
को
सत्तर
पैसे
में
बदलने
का
हुनर
भी
था
क्योंकि
वे
बहुत
अच्छे
जुआरी
थे।
सुभाष
एक
बहुत
ही
शांत
व्यक्ति
थे
,
उनके
बारे
में
उनके
दोस्तों
का
कहना
था
कि
वह
एक
अभिनेता
के
रूप
में
कभी
नहीं
आगे
बढ़
सकता।
वह
तब
तक
इंडस्ट्री
में
मिसफिट
माना
जाता
रहा
जब
तक
कि
वह
शराब
पीने
के
सत्र
में
शामिल
नहीं
हुआ
और
कुछ
ने
तो
उससे
परहेज
भी
किया
क्योंकि
उन्हें
लगा
कि
वह
उनके
सभी
शराबी
बकवास
को
सुनेंगे
और
अगले
दिन
या
भविष्य
में
कभी
भी
उनके
बारे
में
सबको
बता
देंगे।
उन
पर
इस
इंडस्ट्री
के
लिए
बहुत
ही
सरल
होने
का
आरोप
भी
था
!
एक
शाम
उन्होंने
उनसे
जुड़ी
सादगी
के
टैग
से
छुटकारा
पाने
का
फैसला
कर
किया।
उन्हें
एफटीआईआई
के
उनके
दोस्तों
में
से
एक
,
मोंटो
ने
सचमुच
एक
पार्टी
में
घसीट
लिया।
यही
वह
पार्टी
थी
जहां
उसने
पहली
बार
शराब
को
गले
से
नीचे
उतारा
था।
उसे
याद
करते
हुए
उन्होंने
कहा
था
, ‘
मुझे
ऐसा
लगा
जैसे
मेरी
छाती
में
एक
खंजर
भोंक
दिया
गया
हो।
उबले
हुए
अंडों
ने
चुभने
वाली
भावना
को
थोड़ा
काट
दिया
और
फिर
गाते
और
नाचते
हुए
हमारा
नारंगी
का
नशा
तब
तक
बढ़ता
गया
जब
तक
कि
बेहोश
ना
हो
गए
!
अगली
सुबह
उसे
होश
आया
और
उसने
खुद
को
अड्डे
में
अकेला
पाया
!
उसके
बिल
का
भुगतान
एक
दोस्त
ने
कर
दिया
था
और
उसे
घर
जाने
दिया
गया।
अब
अड्डे
से
बाहर
निकलकर
वो
बांद्रा
की
सड़कों
पर
भटकने
लगा।
उस
वक्त
उसे
अपनी
आंखों
के
आगे
पूरी
मुंबई
घूमती
भी
नजर
आई
!
कुछ
भी
उसे
सही
तरह
से
नहीं
दिखाई
दे
रहा
था।
लेकिन
वह
किसी
तरह
अपनी
चाची
के
घर
पहुंचा
लेकिन
घर
के
अंदर
घुसने
से
पहले
वह
दूर
बरामदे
में
बैठकर
बिना
किसी
कारण
के
जोर
जोर
से
रोने
लगा
!
आखिर
पिछली
रात
को
उसने
अपना
जो
मजाक
बनवाया
था
उसपर
शर्मिंदगी
महसूस
करते
हुए
,
चाची
के
घर
में
लौट
आया।
चाची
जो
उन्हें
बहुत
प्यार
करती
थी
,
और
हमेशा
एनकरेज
करती
रहती
थी
ने
उसे
शांत
सहज
किया
और
उस
कमरे
में
ले
जाकर
छोड़ा
जहां
वो
रहता
था
और
फिर
अगले
छः
दिनों
तक
वह
उस
कमरे
से
बाहर
नहीं
निकला
!
यही
वह
चाची
थी
,
जिन्होंने
सुभाष
भाई
को
हमेशा
बढ़ावा
दिया
और
जब
जब
सुभाष
ने
उनसे
खुद
को
अभिनेता
ना
बन
पाने
की
बात
की
तो
इसी
चाची
ने
उन्हें
हिम्मत
ना
हारने
का
साहस
दिया।
इन्ही
दिनों
उन्होंने
डेल
कार्नेगी
की
पुस्तक
‘
हाउ
टू
विन
फ्रेंड्स
एंड
इन्फ्लुएंस
पीपल
’
को
पढ़ा
,
जो
उन्होंने
अपने
चचेरे
भाई
की
शेल्फ
में
पाया
था।
ये
छह
दिन
ऐसे
समय
भी
थे
जब
वह
गहरी
आत्मनिरीक्षण
और
अतीत
में
झाँक
आए
थे।
एफटीआईआई
दिवस
वह
रोहतक
में
रहने
के
दौरान
थिएटर
के
बहुत
अच्छे
छात्र
थे
,
और
उन्होंने
कई
नाटकों
का
लेखन
,
अभिनय
और
निर्देशन
किया
था
जिसने
उन्हें
हिंदी
थिएटर
सर्कल
में
एक
लोकप्रिय
नाम
बना
दिया
और
कईयों
ने
उन्हें
थ्ज्प्प्
में
शामिल
होने
के
लिए
प्रोत्साहित
किया
था।
दो
बार
शादी
करने
वाले
उनके
पिता
की
हिंदी
फिल्मों
में
एक
खास
तरह
की
अरुचि
थी
,
लेकिन
फिर
भी
जब
सुभाष
ने
एफटीआईआई
में
शामिल
होने
की
अनुमति
मांगी
,
तो
उन्होंने
उन्हें
कभी
नहीं
रोका।
जब
से
सुभाष
एफटीआईआई
में
शामिल
हुए
,
उनका
सबसे
महत्वाकांक्षी
और
भावनात्मक
सपना
उनके
पिता
को
साबित
करना
था
कि
उन्होंने
अपना
समय
बर्बाद
नहीं
किया
है
और
उन्हें
(
उनके
पिता
को
)
उन
पर
गर्व
करने
के
लिए
पर्याप्त
कारण
दिए
और
वह
समय
भी
आ
गया
,
हालांकि
इसके
लिए
उन्हें
थोड़ा
वक्त
लगा।
सुभाष
को
अपने
बैच
के
छात्रों
से
कड़ी
प्रतिस्पर्धा
का
सामना
करना
पड़ा
,
जो
ज्यादातर
अंग्रेजी
विचारधारा
के
थे
,
और
गोडार्ड
,
फेलिनी
,
कुरोसावा
के
सिनेमा
से
प्रभावित
थे
!
जबकि
सुभाष
,
बिमल
रॉय
,
महबूब
खान
और
राज
कपूर
के
भारतीय
सिनेमा
से
चमत्कृत
थे
,
वह
एक
मेहनती
और
समर्पित
छात्र
थे
और
जल्द
ही
उसे
अभिनय
के
अग्रणी
छात्रों
में
से
एक
माना
जाने
लगा
जिसके
पास
फिल्म
निर्माण
के
विभिन्न
शिल्पों
की
समझ
भी
थी।
वे
एक
बेहद
उत्साही
दिलीप
कुमार
फैन
भी
थे
और
उन्होंने
बिमल
रॉय
के
‘
देवदास
’
में
उनके
अभिनय
के
बारे
में
थीसिस
के
प्रदर्शन
पर
खुद
नब्बे
पेज
भी
लिखी
थी
!
वह
सिनेमा
के
सच्चे
भक्त
थे
,
उन्होंने
इसे
एक
से
अधिक
तरीकों
से
साबित
किया
था।
वे
भारत
के
सर्वप्रथम
अभिनय
शिक्षक
प्रोफेसर
रोशन
तनेजा
का
उन
पर
पड़ने
वाले
असर
को
कभी
नहीं
भूल
पाए।
उन्हें
थोड़ी
सी
असुरक्षा
तब
महसूस
हुई
जब
उन्होंने
गोवर्धन
असरानी
और
कंवर
पेंटल
जैसे
अभिनेताओं
के
शानदार
काम
को
देखा
,
जो
बाद
में
एफटीआर
में
शिक्षक
भी
बन
गए
और
फिल्म
इंडस्ट्री
में
शामिल
होकर
लीडिंग
कॉमेडियंस
के
रूप
में
भी
बेहद
लोकप्रिय
हुए
जो
वे
आज
50
साल
के
बाद
भी
उतने
ही
लोकप्रिय
हैं।
उनका
असल
संघर्ष
के
दिन
महत्वाकांक्षा
और
सपनों
से
भरा
हुआ
ये
युवक
मुंबई
में
उतरा
और
अपने
नए
संघर्ष
की
शुरुआत
करने
के
लिए
आया
!
उसे
भी
बाकी
सभी
संघर्षकर्ताओं
की
तरह
पसीना
बहाना
पड़ा
,
लेकिन
वो
दो
शब्द
जो
उन्होंने
अक्सर
सुने
थे
!
नियति
या
तकदीर
वो
उनसे
कोसों
दूर
थे
!
1965
में
प्रसिद्ध
फिल्म
निर्माताओं
द्वारा
यूनाइटेड
प्रोड्यूसर्स
कंबाइंड
एंड
फिल्मफेयर
पत्रिका
के
माध्यम
से
एक
प्रतिभा
हंट
का
आयोजन
किया
गया
था
,
जिसमें
बी
आर
चोपड़ा
,
बिमल
रॉय
,
जी
.
पी
.
सिप्पी
,
एच
एस
रवैल
,
नासिर
हुसैन
,
जे
.
ओम
प्रकाश
,
मोहन
सहगल
,
शक्ति
सामंत
,
हेमंत
कुमार
और
सुबोध
मुखर्जी
जैसे
दिग्गज
,
निर्णायक
,
मंडल
गठन
में
शामिल
थे
!
जिन्हें
दस
हजार
आवेदकों
में
से
विजेताओं
के
चयन
का
कठिन
चयन
करना
था
,
ऐसे
में
अंतिम
विजेता
धर्मेंद्र
थे
!
एफटीआईआई
के
अधिकांश
छात्रों
ने
आवेदन
किया
था
और
सुभाष
भी
चुनाव
में
शामिल
हुए
थे।
प्रतियोगिता
को
शॉर्टलिस्ट
किया
गया
और
दो
सौ
आवेदकों
को
अंतिम
ऑडिशन
के
लिए
चुना
गया
!
सूची
तब
छोटी
और
दिलचस्प
बनती
गई
जब
कुछ
ही
आवेदक
अंतिम
ऑडिशन
के
लिए
चुने
गए।
अंत
में
सुभाष
घई
की
बारी
थी
,
और
उनके
पास
यह
विकल्प
था
,
कि
या
तो
ज्यूरी
द्वारा
उन्हें
दिया
गया
एक
दृश्य
एक्ट
करे
या
वह
दृश्य
जो
उन्होंने
खुद
लिखे
और
खुद
के
लिए
तैयार
किए
थे।
उन्होंने
अपनी
पसंद
का
विकल्प
चुना
जिसमें
उन्होंने
दोषी
के
साथ
-
साथ
जज
की
भूमिका
निभाई।
दोषी
के
रूप
में
उनका
प्रदर्शन
इतना
शक्तिशाली
था
कि
पूरा
ज्यूरी
उनके
लिए
एकमत
होकर
ताली
बजाती
रही।
सुभाष
ने
महसूस
किया
कि
उनके
अच्छे
दिन
आने
ही
वाले
है
और
सभी
निराशावादी
भावनाओं
से
वो
दूर
हो
गए।
उस
वर्ष
प्रतियोगिता
में
पांच
विजेता
थे
,
जतिन
खन्ना
जिन्होंने
बॉम्बे
में
थिएटर
किया
था
,
धीरज
कुमार
जो
तब
भी
थ्ज्प्प्
में
एक
छात्र
थे
,
फरीदा
जलाल
जो
थ्ज्प्प्
से
नहीं
थी
और
बेबी
सारिका
,
जो
एक
लोकप्रिय
बाल
कलाकार
और
आगे
चलकर
फिल्म
‘
गीत
गाता
चल
’
से
एक
पॉपुलर
नायिका
बन
गई
और
सुभाष
घई।
सुभाष
के
जीवन
और
करियर
में
फिर
से
अपनी
भूमिका
निभाने
के
लिए
भाग्य
आजमाने
का
समय
आया।
उसने
दो
अच्छे
अवसर
खो
दिए
थे
,
जो
कि
खराब
समय
और
दुर्भाग्य
से
भरा
था।
उन्होंने
जी
.
पी
सिप्पी
के
‘
राज
’
को
जतिन
खन्ना
से
खो
दिया
जो
बाद
में
राजेश
खन्ना
के
रूप
में
उभरे
और
एक
बार
फिर
से
जतिन
से
हार
गए
जब
नासिर
हुसैन
ने
भी
जतिन
को
चुना।
यह
सुभाष
के
लिए
निराशा
का
कारण
था
,
लेकिन
सबसे
कठिन
परिस्थितियों
का
सामना
करने
की
कला
में
उन्हें
अब
महारत
हासिल
हो
गई
थी।
उन्होंने
यूनाइटेड
प्रोड्यूसर्स
टैलेंट
कॉन्टेस्ट
के
निर्णायक
मंडल
के
सभी
निर्माताओं
से
उम्मीद
की
थी
कि
उन्हें
एक
ब्रेक
देंगे
,
जो
उस
कांटेस्ट
में
वादा
किया
गया
था
लेकिन
उनमें
से
अधिकांश
ने
सुभाष
को
सिर्फ
एक
कप
चाय
पिलाई
और
उन्हें
अच्छा
एक्टर
बताते
हुए
बेस्ट
ऑफ
लक
की
शुभकामनाएं
देने
के
साथ
‘
मिलते
रहो
’
के
जुमले
के
अलावा
कुछ
और
नहीं
दिया।
लेकिन
सुभाष
ने
कभी
हार
नहीं
मानी
और
भाग्य
ने
भी
उनका
साथ
नहीं
दिया।
उन्हें
स्वर्गीय
गुरुदत्त
के
छोटे
भाई
आत्माराम
की
फिल्म
‘
उमंग
’
में
एक
नायक
के
रूप
में
पहला
बड़ा
ब्रेक
मिला
,
वो
एक
ऐसा
प्रयोग
था
जो
वे
एफटीआईआई
के
छात्रों
को
शामिल
करने
वाले
सभी
कलाकारों
के
साथ
बनाने
की
हिम्मत
कर
रहे
थे।
सुभाष
जो
नायक
के
रूप
में
कास्ट
किए
गए
थे
,
उन्हें
छह
सौ
पचास
रुपये
मासिक
वेतन
की
पेशकश
की
गई
थी
,
और
अंधेरी
से
चर्चगेट
के
बीच
प्रथम
श्रेणी
रेलवे
पास
दिए
जाने
के
साथ
-
साथ
रहने
के
लिए
आत्माराम
के
बंगले
में
एक
छोटा
कमरा
दिया
गया
था
!
उन
दिनों
नटराज
स्टूडियो
(
जहां
आत्माराम
का
ऑफिस
था
)
के
बाहर
जनता
डेयरी
दुग्धालय
में
फिल्म
की
पूरी
कास्ट
को
देखना
काफी
अच्छा
दृश्य
लगता
था
,
जहां
उन्होंने
‘
उमंग
’
की
अधिकांश
शूटिंग
की।
जनता
डेयरी
दुग्धालय
सबका
पसंदीदा
दुकान
थी
,
क्योंकि
वहां
की
लस्सी
,
दूध
और
पकोड़े
बहुत
अच्छे
और
सस्ते
भी
थे
और
दुकान
के
मालिक
पंडितजी
के
दिल
में
उन
संघर्षरत
अभिनेताओं
के
लिए
नरम
कोना
भी
था
जिसके
चलते
वे
उन
संघर्षरत
कलाकारों
को
उधार
में
खिलाया
करते
थे।
आत्मा
राम
और
उनकी
टीम
ने
एक
अच्छी
फिल्म
बनाने
के
लिए
तमाम
प्रयास
किए
जो
बॉक्स
-
ऑफिस
पर
भी
अच्छी
कमाई
कर
सकती
थी
लेकिन
उनका
सपना
चकनाचूर
हो
गया
क्योंकि
जो
उस
जमाने
के
दर्शक
थे
वे
केवल
बड़े
सितारों
को
देखने
के
आदि
थे
,
उन्होंने
पुणे
से
आये
इन
अजनबियों
को
देखने
से
इंकार
कर
दिया
जो
अपनी
प्रतिभा
से
सिनेमा
जगत
का
चेहरा
बदलना
चाहते
थे।
संघर्ष
जारी
रहाः
यह
बतौर
एक्टर
सुभाष
घई
के
लिए
अंत
नहीं
था।
उनके
पास
भूमिकाएँ
लगातार
आती
रहीं
,
लेकिन
वे
भूमिकाएँ
बेकार
थी
या
कहिए
तो
वो
बी
ग्रेड
फिल्में
कहलाती
थी।
अधिकांश
फिल्में
कभी
पूरी
नहीं
हुईं
और
जो
हुए
उन्हें
कोई
वितरक
नहीं
मिला
क्योंकि
नायक
बिक्री
योग्य
नहीं
था।
सिर्फ
एक
बार
जब
उन्होंने
शक्ति
सामन्त
कृत
फिल्म
‘
आराधना
’
में
छोटे
राजेश
खन्ना
के
दोस्त
की
भूमिका
निभाई
थी
तो
उन्हें
थोड़ी
पहचान
मिली
थी।
उस
फिल्म
ने
जहां
राजेश
खन्ना
को
रातों
रात
स्टारडम
दिलाया
था
,
वहीं
आश्चर्य
जनक
रूप
से
सुभाष
घई
जैसे
ट्रेंड
और
बेहतरीन
एक्टर
पर
कोई
खास
फर्क
नहीं
डाला
!
वो
अटका
पड़ा
था
,
उसे
समझ
में
नहीं
आ
रहा
था
कि
तकदीर
ने
उसके
लिए
क्या
लिख
रखा
था।
पर
उन्होंने
महसूस
किया
कि
वह
अच्छा
लिख
सकते
हैं
,
चाहे
वह
कहानियां
हो
,
पटकथा
हो
या
संवाद
हों।
वह
जानता
था
कि
वह
अकेले
कुछ
नहीं
कर
सकता
इसलिए
उसने
एक
अन्य
असफल
एक्टर
बी
.
बी
भल्ला
के
साथ
एक
टीम
बनाई।
दोनों
ने
एक
साथ
कई
फिल्में
लिखीं
,
जिनमें
‘
आखरी
डाकू
’
उनका
सर्वश्रेष्ठ
फिल्म
थी
,
हालांकि
जल्द
ही
ये
टीम
टूटकर
अलग
हो
गई
और
सुभाष
घई
,
लेखक
के
रूप
में
अकेले
ही
अपनी
स्क्रिप्ट
के
साथ
फिल्म
निर्माताओं
के
दफ्तरों
के
चक्कर
लगाने
लगे
!
उसके
बाद
,
अनुभवी
फिल्म
निर्माता
,
एन
.
एन
.
सिप्पी
के
साथ
उनकी
एक
मुलाकात
ने
उनकी
तकदीर
बदल
दी
!
उन्होंने
सिप्पी
को
अपनी
एक
पटकथा
का
विवरण
दिया
,
जिसके
लिए
उन्होंने
‘
कालीचरण
’
(
तत्कालीन
लोकप्रिय
वेस्टइंडीज
क्रिकेटर
,
ऑल्विन
कालीचरण
का
नाम
)
शीर्षक
भी
चुन
लिया
था।
सिप्पी
ने
वो
स्क्रिप्ट
सुनने
के
लिए
सुभाष
को
पूरा
वक्त
दिया
और
दोबारा
उसे
सुनने
का
एक
और
दिन
भी
तय
किया
,
फिर
जैसे
ही
सुभाष
उठकर
चलने
लगा
,
अनुभवी
निर्माता
सिप्पी
ने
सुभाष
को
वापस
बुलाया
और
उसे
खुद
ही
वो
फिल्म
निर्देशित
करने
के
लिए
भी
कहा।
सुभाष
ने
बताया
कि
उन्होंने
पहले
कभी
किसी
फिल्म
का
निर्देशन
नहीं
किया
था।
तब
सिप्पी
ने
उन्हें
आश्वस्त
किया
कि
जब
वो
इतनी
अच्छी
स्क्रिप्ट
लिख
सकता
है
तो
अच्छे
तकनीशियनों
के
साथ
मिलकर
उसे
अच्छा
डायरेक्ट
भी
कर
सकता
है।
सुभाष
आश्चर्य
में
पड़
गए
थे
कि
कैसे
इतने
संघर्षो
के
बाद
उसकी
किस्मत
उसपर
मेहरबान
हो
गई।
तब
उन्होंने
अपनी
पूरी
ऊर्जा
,
उत्साह
और
ज्ञान
के
साथ
काम
शुरू
किया।
उन्होंने
सबसे
पहले
अपने
दोस्त
शत्रुघ्न
सिन्हा
के
साथ
बात
करके
उन्हें
शीर्षक
भूमिका
निभाने
के
लिए
कहा
और
शत्रुघ्न
ने
सुप्रसिध्द
हिरोइन
रीना
रॉय
को
नायिका
का
रोल
करने
की
पेशकश
की
और
वो
तुरन्त
मान
गई
!
उन
दिनों
शत्रुघ्न
का
रीना
रॉय
के
साथ
दिल
का
रिश्ता
था।
सुभाष
अब
एक
पूरी
टीम
को
एक
साथ
लाने
में
कामयाब
रहे
और
सिप्पी
को
भरोसा
दिलाया
कि
वह
अपनी
इस
चुनौती
को
उठाने
के
लिए
तैयार
हैं।
इस
सबका
परिणाम
‘
कालीचरण
’
निकला
,
ये
सुभाष
घई
की
पहली
फिल्म
एक
निर्देशक
के
रूप
में
थी
जो
सुपर
हिट
साबित
हुई।
उसके
बाद
सुभाष
ने
अगली
फिल्म
‘
विश्वनाथ
’
(
इस
बार
जाने
-
माने
भारतीय
बल्लेबाज
,
गुंडप्पा
विश्वनाथ
के
नाम
)
को
लगभग
उसी
पुरानी
टीम
के
साथ
बनाया
लेकिन
सिर्फ
इसमें
उन्होंने
प्रेमनाथ
को
नया
ऐड
किया।
इस
फिल्म
में
प्रेमनाथ
की
भूमिका
उनकी
हमेशा
की
विलेन
वाली
छवि
से
एकदम
अलग
थी
!
यह
फिल्म
भी
सुपर
हिट
रही
और
सुभाष
घई
निर्देशक
के
रूप
में
इस्टैबलिश्ड
हो
गए।
और
इस
तरह
सुभाष
घई
के
संघर्ष
के
दिन
खत्म
हुए
,
लेकिन
एक
और
संघर्ष
की
शुरुआत
हो
गई
,
अपनी
इस
सफलता
को
ऐसी
दुनिया
में
बनाए
रखने
का
संघर्ष
जहां
सफलता
बेहद
चंचल
,
मूडी
और
फिसलन
वाली
होती
है
,
जो
अब
है
और
अगले
पल
नहीं
!