15 जून 2001, बॉलीवुड की दो सबसे बड़ी इतिहासिक फिल्मों की रिलीज का दिन। पहली, गदर, जिसमें सनी देओल और अनिल शर्मा भारत पाकिस्तान बटवारे को पृष्ठभूमि बनाकर एक प्रेम कहानी दिखा रहे थे वहीं दूसरी ओर लगान, जहां आमिर खान और आशुतोष गोवारिकर अंग्रेज़ी हुकूमत के ज़ुल्म-ओ-सितम को सहते एक गाँव चम्पानेर के चंद नौसिखियों द्वारा क्रिकेट मैच खिलवाने की कोशिश कर रहे थे।
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'>सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर
दोनों फिल्में एक साथ आना ज़ाहिर तौर पर आमिर और सनी देओल के बीच कंपटीशन बनाने जैसा था और बिना किसी शक-ओ-शुबह के जब शुक्रवार को दोनों फिल्मों का पहला शो खत्म हुआ तो सनी देओल आगे निकलते नज़र आए। आम जनता को जो भी मसाला चाहिए था, वो गदर में मौजूद था। अच्छे गाने थे, बढ़िया एक्शन सीन्स थे। लव स्टोरी भी थी और फिल्म 3 घंटे में खत्म हो जाती थी। कुलमिलाकर गदर एक कम्प्लीट पैकेज थी।
पौने चार घंटे की लगान वो फिल्म थी एक सेकंड भी पलकें झपकाने के लिए नहीं मिल सका
वहीं लगान में सबसे बड़ी दिक्कत थी इसकी लेंथ, पौने चार घंटे की फिल्म, जिसमें करीब डेढ़ घंटे का तो क्रिकेट मैच था। तो एक तरफ लोगों को गदर बहुत पसंद आई वहीं अगले दिन जीतने भी मुख्य अखबार थे उनमें समीक्षकों ने लगान को विजयी बनाया था। मुझे आज भी वो दिन अच्छे से याद है। पापा लगान के टिकटेस लिए ऑफिस से जल्दी आ गए थे। वो शायद मेरी ज़िंदगी की दूसरी या तीसरी फिल्म थी और मैं इतना यकीन से कह सकता हूँ कि पौने चार घंटे की उस फिल्म में मुझे एक सीन भी ऐसा नहीं मिला था जिसमें मैं पलकें झपका सकूँ।
जब ‘बादलों’ से ज़मीन घिरी और ‘घनन-घनन घिर-घिर आई बदरा’ बजा तो उन गाँव वालों की तरह ही मेरा भी मन खुश हो गया लेकिन फिर बादलों के लौटते ही जैसे यशोदा माँ (फिल्म में भुवन की माँ – सुहासनी मुले) का चेहरा उतरा, वैसे ही हम भी उदास हो गए थे। हम लोग जिस हॉल में फिल्म देखने गए थे, उसमें एक भी सीट खाली नहीं थी।
फिल्म का अंतिम सीन, जब मैच जीतने के बाद भुवन (आमिर) और गौरी (ग्रेसी सिंह) गले मिलते हैं और बारिश होती है; तब दर्शकों की आँखों से भी खुशी की बारिश होने लगी थी। फिल्म खत्म होने ही तकरीबन सबके मुंह से एक ही बात निकली थी “व्हाट अ फिल्म, व्हाट अ फिल्म”
अगर आशुतोष मुझसे कुछ मांगे तो मैं पूछने में समय नष्ट नहीं करता कि क्यों चाहिए - आमिर
लगान को बनाने में भी आमिर और आशुतोष को बहुत पापड़ बेलेने पड़े थे। पहले तो इस थीम पर कोई प्रोड्यूसर मिल के राज़ी न हुआ, आशुतोष जिसके भी पास जाते वो 20 करोड़ पार होता बजट कम करने को कहता। आमिर स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म का कान्सेप्ट सुन इसके पक्ष में नहीं थे, लेकिन जब आशुतोष के साथ उन्होंने पूरी स्क्रिप्ट पढ़ी और अंत पढ़कर उनकी आँखें भीग गईं। आमिर न सिर्फ प्रोटैगनिस्ट रोल के लिए रेडी हुए बल्कि फिल्म को प्रोड्यूस करने का जिम्मा भी उन्होंने ही ले लिया। आमिर ने तब कहा था “अगर कोई डायरेक्टर बोले कि मुझे 50 ऊंट चाहिए तो पहले पूछा जाता था कि क्यों? 25 में काम क्यों नहीं चला सकते? 30 क्यों नहीं ले सकते? लेकिन यही बात अगर आशुतोष मुझसे कहें तो मैं टोकने पूछने में टाइम ही वेस्ट नहीं करूंगा क्योंकि मैं खुद क्रिएटिव आदमी हूँ, मुझे पता है जिस चीज़ की ज़रूरत होती है उसमें कोई कमी पेशी नहीं चलती।”
फिल्म में उत्तर पूर्वी भारत का काल्पनिक गाँव चम्पानेर दिखाया था लेकिन असल में शूटिंग भुज (गुजरात) के पास के एक गाँव में हुई थी। आशुतोष को एक ऐसा गाँव चाहिए था जो 1890 का भारत दिखा सके। तब ज़ाहिर है कि बिजली नहीं थी। साथ-साथ गाँव ऐसा भी होना चाहिए था जो सूखा दिखे। इस क्राइटेरिया को पूरा कर रहा था गाँव कुनरिया, जहां उस वक़्त 1998 में वाकई लाइट नहीं थी, पानी की दिक्कत थी।
यहाँ बताने लायक एक मज़ेदार बात है, उस गाँव क्या पूरे कच्छ में पिछले साल से ही न के बराबर बारिश हुई थी। यूं भी अमूमन बारिश होती ही नहीं थी लेकिन लगान की शूटिंग खत्म होने के ठीक एक हफ्ते बाद बेतहाशा बारिश हुई, इतनी बारिश हुई की पूरा कच्छ जिला तर हो गया था।
आशुतोष ने उसके बाद स्वदेस और जोधा अकबर भी बहुत जानदार फिल्में बनाईं
कुछ ऐसा ही हाल फिल्म देखने के बाद दर्शकों का भी हुआ था। और रही बात बॉक्सऑफिस की, तो आमिर-आशुतोष से बहुतों से कहा था कि फिल्म थोड़ी एडिट करने दोबारा रिलीज कर दो, फिल्म क्रिकेट मैच कम कर दो, ये कर दो वो कर दो पर उन्होंने किसी की नहीं मानी। नतीजतन, फिल्म ने इतिहास बना दिया। फिल्म अच्छी कलेक्शन भी कर सकी और सबसे बड़ी बात, फिल्म ने ऑस्कर की फ़ॉरेन फिल्म कैटेगारी में टॉप फाइव में जगह भी बनाई।
आशुतोष ने उसके बाद स्वदेस और जोधा अकबर भी बहुत जानदार फिल्में बनाईं, फिर व्हाट्स योर राशि, खेलें हम जी जान से सरीखी फिल्में ठीक-ठाक रहीं लेकिन बॉक्स ऑफिस पर पैसा न बटोर सकीं।
लेकिन उनकी आखिरी दो फिल्में, मोहनजो-दारो और पानीपत बॉक्स ऑफिस के साथ-साथ दर्शकों की नज़रों से भी औंधेमुंह गिरीं। पानीपत का भी मैंने लगान की ही तरह पहले दिन का पहला शो देखा था। तब अंत देखकर खुशी के आँसू निकले थे, इस बार परेशानी से फ्रेसट्रेशन निकली कि क्यों? क्यों आशुतोष गोवारिकर जैसा उम्दा फिल्मकार, अपने बैनर में बनी फिल्म, इतिहास की इतनी गंभीर लड़ाई पर बनी फिल्म का ऐसा बुरा हाल कर रहा है।
कहाँ लगान के नेरेशन में अमिताभ बच्चन की दमदार आवाज़ में था, वहीं पानीपत में कृति सेनन कहानी बयां कर रही थी।
जिसने पहली फिल्म से आशुतोष को देखा है वो यकीनन पानीपत देखने के बाद डिसपोइन्ट हुआ होगा, लेकिन मैं फिर भी कहता हूँ कि आशुतोष की मेहनत का, उनके जज़्बे का अभी भी कोई जवाब नहीं है। लगान जैसी दूसरी फिल्म बनाना तो किसी के बस की बात नहीं है, खुद आशुतोष भी नहीं बना सकते लेकिन मुझे भरोसा है कि वो फिर किसी इतिहास के पन्ने को नए रंग में रंग के, फिर बीते दौर की खुशबू के साथ बड़े परदे पर जीवित कर सबको दंग कर देंगे। मुझे भरोसा कि आशुतोष में फिर एक बार रोंगटे खड़े करने का माद्दा है।
मायापुरी ग्रुप की तरफ से आशुतोष गोवारिकर को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएं।