कहानी की शुरुआत में पश्चिमी पाकिस्तान के पूर्वी पाकिस्तान पर ज़ुल्म के रियल वीडियोज़ दिखाए जा रहे हैं और अजय देवगन का नेरेशन है। वहीं जनरल याहया खान पश्चिमी भारत, यानी गुजरात पर एयरस्ट्राइक करने के हुक्म दे रहा है ताकि भारतीय सेना एक्सचेंज में ईस्ट पाकिस्तान से हट जाए।
अब दूसरे ही पल भुज पर अटैक हो गया है जहाँ स्क्वाड्रन लीडर विजय कार्निक (अजय देवगन) जबतक मोर्चा संभालते हैं तबतक रनवे तबाह हो जाता है। तीसरी ओर जामनगर पर भी हमला हो गया है। यहाँ फ्लाइट लेउटनेन्ट विक्रम बज (एमी विर्क) मोर्चा संभाले पाकिस्तानी फाइटर प्लेनस् के दांत खट्टे कर रहा है।
चौथी ओर आर के नायर (शरद केलकर) विधापुर चौकी कच्छ में 120 जवानों और एक पगी (लोकल इनफॉर्मेर संजय दत्त) के साथ मोर्चा लेने को तैयार हैं।
इसी बीच नोरा फतेही जो पाकिस्तानी इंटेलिजेंस के चीफ के घर बीवी बनी (राज़ी एफ़ेक्ट देती हुई) हिंदुस्तान खबरें पहुँचा रही हैं।
पहला एक घंटा बम गिरते, फाइटर प्लेनस् की आपसी मुठभेड़ दिखाते और कन्फ्यूज करते बीता है। कब कहानी फ्लैशबैक में है और कब क्लिफहैंगर पर, क्लेयर नहीं होता है। फिल्म एक लंबा सा ट्रेलर लगती है।
एक घंटे बाद ही इन्टरवल होता है और यहाँ से कहानी उस मुद्दे पर लौटती है जिसको बेस बनाकर ये फिल्म बनी थी – गाँव की 300 औरतों द्वारा रातों रात टूटा हुआ रनवे बनाना। यहाँ सुन्दरबेन (सोनाक्षी) की सुपरड्रामाटिक एंट्री होती है और यहीं से लम्बे क्लाइमैक्स का बिगुल भी बज जाता है जहाँ एक तरफ आरके नायर 1800 पाकिस्तानी जवानों के संग 100 टैंक्स से 120 जनों के साथ जूझ रहे हैं (बॉर्डर इफेक्ट दे रहे हैं) तो दूसरी ओर स्क्वाड्रन लीडर विजय कार्निक एयरपोर्ट बना रहे हैं।
निर्देशन की बात करूँ तो अभिषेक दुल्हैया ने इससे पहले सिर्फ सीरियल्स बनाए हैं, एहसास, अग्निपथ, सिंदूर तेरे नाम का आदि, इस फिल्म को भी उन्होंने सीरीअल की तरह ही डायरेक्ट किया है लेकिन रिलीज़ फिल्म की तरह हुई है इसलिए कॉन्टिन्यूटी बिगड़ गई है।
जहाँ एक्शन डिरेक्शिन है वहाँ-वहाँ फिल्म से नज़र नहीं हटती है लेकिन जहाँ डाइलॉग डेलीवेरी है, वहाँ लगता है कि सीन सीक्वेंस से बाहर है।
डाइलॉग्स मनोज मुंतशिर ने अच्छे लिखे हैं, दिल से लिखे हैं पर उनकी टाइमिंग गड़बड़ है।
पर एक-दो डायलॉग बहुत दमदार है –
“1947 में पाकिस्तान अपनी जिद पर हमसे अलग हुआ, तो हमने भाई को खाली हाथ नहीं भेजा, अलविदा के आंसू और 75 करोड़ रूपये जाते जाते उनके हाथ पर रख दिए, उसी पैसे से उन्होंने लोहा और बारूद ख़रीदकर हमारे ही जवानों पर गिराना शुरू कर दिया. दुनिया के इतिहास में शराफत की इतनी बड़ी कीमत किसी देश ने नहीं चुकाई होगी”
“शर्ट के टूटे हुए बटन से लेकर टूटी हुई हिम्मत तक, औरत कुछ भी जोड़ सकती है”
ऐक्टिंग के मामले में शरद केलकर ने कमाल कर दिया है। उनकी डाइअलॉग डेलीवेरी, आवाज़ और खासकर ‘सरफरोशी की तमन्ना’ गाना, रोंगटे खड़े कर देता है। संजय दत्त एक्शनस् सीन्स में जमे हैं। एमी विर्क के इक्स्प्रेशन्स बहुत अच्छे हैं और अजय देवगन, अजय देवगन ने खुद को सबसे आखिर में रखा है। शायद उन्हीं के पास लिमिटेड स्क्रीन टाइम है। फिर भी जितना है अच्छा है।
सोनाक्षी सिन्हा ओवर न होने की भरसक कोशिश करती दिखी हैं और कुछ एक सीन में कामयाब भी हुई हैं। नोरा फतेही डांस से इतर भी कुछ कर रही हैं यही तारीफ के काबिल बात है। उन्होंने अच्छी कोशिश की है।
प्रनिथा सुभाष के पास एक भी डाइअलॉग नहीं है। फिल्म में उनका काम मुंडी हिलाने भर का है।
अमर मोहिले का बैकग्राउन्ड म्यूजिक अच्छा है। वॉर फिल्म पर जचता है।
सिनेमॅटाग्रफी बहुत अच्छी है। असीम बजाज ने एक से बढ़कर एक शॉट लिए हैं। टूटे हुए आइने के ज़रिए नोरा की फाइट दिखाना काबिल-ए-तारीफ है।
पूरी फिल्म के एक्शन सीन्स लाजवाब हैं।
फिर भी, अगर आप देख चुके हैं और आपको मज़ा नहीं आया है तो जानते हैं क्यों?
क्योंकि इस फिल्म की एडिटिंग बहुत झोलाछाप हुई है। धर्मेन्द्र शर्मा ने वॉर से फिल्म शुरु कर एक ऐसा गोलमाल फैला दिया है जो अंत तक उनसे ही नहीं संभलता। जब फिल्म मे वॉर चल रही होती है तब अचानक कैरिक्टर्स के इन्ट्रो आने लगते हैं। फिर जब लगता है सब इन्ट्रो हो गए, तो फिर कहानी सोनाक्षी के लिए थोड़ी सी फ्लैशबैक चल देती है। फिर अगले ही पल बम गिरने लगते हैं।
पसंद न आने की दूसरी वजह है छोटी स्क्रीन। मैंने सिनेमाहॉल में देखी, फिर आकर थोड़ी देर मोबाईल में भी चला ली। फ़र्क समझ आया कि क्यों सिनेमा हॉल की जगह ओटीटी नहीं ले सकता। साउन्ड, सीन्स, एक्शन सीक्वेंस और माहौल, ये सब सिनेमा हॉल में कुछ और सोचने का मौका नहीं दे रहा था लेकिन मोबाईल पर ध्यान ही नहीं बन रहा।
जेन्युइन खामियों में शुमार हैं ढेर फैक्चूअल एरर्स। मुलाहजा फरमाइए – (स्पॉइलर अलर्ट)
एक टॉप का रॉ एजेंट, एक ल्यूटनेन्ट कर्नल और एक स्क्वाड्रन लीडर मिलकर पाकिस्तानी जासूसों के अड्डे पर बिना बैकअप के क्यों छापा मारने जाते हैं?
क्या 1971 का मिग 21 360 डिग्री फ्लिप कर लेता था?
क्या रेगिस्तान में तेंदुआ टहलता मिलता है?
और आखिर में, क्या दस हज़ार किलो के ट्रक पर करीब 90 हज़ार किलो के कार्गो शिप का पहला पहिया रख लेना पॉसिबल है?
कुछ साल पहले, निसान कम्पनी ने एक टीवी कॉमर्शियल बनाया था जिसमें उनकी कार पर बोइंग 787 का अगला टायर लैंड हो जाता है। यहाँ से फिल्म का क्लाइमैक्स इन्सपाइर लगता है।
उसकी जाँच पर पता चला कि वो फेक है क्योंकि, बोइंग की स्पीड उतरते वक़्त भी 450 किलोमीटर के आसपास होती है। उसका वजन पौने दो लाख किलो से अधिक होता है जो किसी कारनुमा ट्रक पर टच होने भर से उसे जला के राख कर सकता है।
तो क्या भुज में दिखाया सीन निरी गप्प है?
थ्योरी के तौर पर नहीं, कार्गो प्लेन सुपर कान्स्टलैशन का वजन 54 हज़ार किलो तक होता है और आर्मी ट्रक दस हज़ार किलो का। ट्रक की मक्सीमम स्पीड 120 होती है जबकि लैन्डिंग के वक़्त सुपर की स्पीड 180 किलोमीटर तक होती है। इसके बाद यह तेज़ी से अपनी रफ्तार कम करता है वहीं आर्मी आम ट्रक से 3 गुना मजबूत मेटल से बने होते हैं इसलिए, ट्रक के परखच्चे उड़ सकते हैं पर ये पॉसिबल है कि ट्रक कार्गो प्लेन को लैंड करवा सकता है।
बाकी मैं फिर लिखूँगा कि लॉजिक पर बहस मुबाहसा करते हुए भी ऐसी फिल्में देखी जानी चाहिए। अगली पीढ़ी को भी दिखाई जानी चाहिए ताकि वो सवाल ही करें पर कम से कम ये तो जानें कि इस देश की लकीरों की हिफ़ाज़त कितना मुश्किल काम है जो सोशल मीडिया पर उँगलियाँ हिलाते वक़्त कतई आसान लगता है।
रेटिंग – 6/10*
सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’