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नुसरत साहब की कोई अनछुई धुन लगती है ‘छाप तिलक सब छीनी’

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By Siddharth Arora 'Sahar'
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नुसरत साहब की कोई अनछुई धुन लगती है ‘छाप तिलक सब छीनी’

छाप तिलक सब छीनी 16वीं शताब्दी के कवि अमीर ख़ुसरो की वो ग़ज़ल है जिसकी दीवानगी पाँच सौ सालों बाद भी वैसी ही है। सैकड़ों गायक इस ग़ज़ल को गा चुके हैं पर जो मज़ा उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान साहब की कम्पोज़ीशन में आता है, वो किसी में नहीं मिलता।

नुसरत साहब की कोई अनछुई धुन लगती है ‘छाप तिलक सब छीनी’

कुछ ऐसी ही कहानियाँ हैं सुनीता सिंह के कहानी संग्रह ‘छाप तिलक सब छीनी’ में। नुसरत साहब के गाये छाप तिलक सब छीनी के बाद कोई छाप तिलक रचना जमी है तो वो यही है। इस किताब की हर कहानी में आपको एक धुन, एक स्वर सुनाई देता है। कुछ कुछ यूँ भी लगता है कि ये कहीं हमारे साथ घटी घटना तो नहीं, वहीं दूसरी ओर ये कसक भी रहती है कि काश हम होते तो ऐसा नहीं वैसा कर देते।

इस छोटी सी किताब में 13 कहानियाँ हैं। इन 13 कहानियों में स्त्री मन से जुड़ी तमाम भावनाएं, शंकाएं, इच्छाएं और कुंठाएं समाई हुई हैं।

नुसरत साहब की कोई अनछुई धुन लगती है ‘छाप तिलक सब छीनी’

इस किताब की एक कहानी – विजया – पढ़कर तो हर स्त्री ये कह सकती है कि हाँ, कभी न कभी ये उसने भी महसूस किया ही है। वहीं इसकी एक और कहानी ‘बंधन तोड़ो न’ को पढ़कर लगता है कि भला कोई औरत ऐसी कैसे हो सकती है? किस तरह सबका ख़याल रखकर ख़ुद के सपनों को मुस्कुराते हुए कुर्बान कर सकती है। लेकिन फिर ये भी एहसास होने लगता है कि हाँ, औरत ऐसी ही तो होती है। यही तो स्त्रीत्व है। यही तो वो ताकत है जो आदमी चाहें कितने ही न्यूक्लियर बम बना ले या चाहें रॉकेट लेकर नैपच्यून तक पहुँच जाए, फिर भी हासिल नहीं कर सकता।

नुसरत साहब की कोई अनछुई धुन लगती है ‘छाप तिलक सब छीनी’

इस किताब की बस एक ख़ामी है, वो सिर्फ उनके लिए जिनकी हिन्दी बहुत अच्छी नहीं है और न ही वो चाहते हैं कि अच्छी हो, क्योंकि अगर आप सीखना चाहते हैं तो आपको ऐसे दर्जनों हिन्दी के शब्द और शब्दों के फूलों से रची मालाओं से वाक्य मिलेंगे जो आपने पहले कभी न पढ़े होंगे।

छाप तिलक सब छीनी एक ऐसी किताब है जिसे अगर आप इस रक्षाबंधन पर अपनी बहन को दें तो वो उसके लिए अबतक का सबसे अच्छा तोहफा साबित होगा।

बुक रेटिंग – 9/10*

पढ़ने की आदत फिर से जगाएं, मोबाइल से कुछ समय दूर रहकर थोड़ा समय किताबों के लिए भी निकालें

-सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’

नुसरत साहब की कोई अनछुई धुन लगती है ‘छाप तिलक सब छीनी’

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