उस रोज़ मैं अपने चंद दोस्तों – जो बिजनेस पार्टनर बनने वाले थे – के साथ लक्ष्मी नगर (पूर्वी दिल्ली) के एक मॉल में बैठ कॉफी पी रहा था कि मेरे भाई का फोन आया, “जहां भी है जल्दी निकल और घर आ जा, माहौल ठीक नहीं है”
वो 22 फरवरी का दिन था, दोपहर के 2 बजे थे शायद, मेरा घर उस एरिया से बस 700 मीटर की दूरी पर था जहां सबसे पहले पथराव हुआ था। जहां से आग भड़की थी। उसी रोज़ जब मैं घर पहुँचा हूँ तो माँ ने बताया कि वो सीलमपुर से कुछ सामान ले रही थीं कि ठेले वाले ने कहा “मोहतरमा आप निकल जाओ घर, यहाँ बवाल होने वाला है”
उसी दौर के ज़ख्मों को फिर याद कराती फिल्म दिल्ली रायट्स: अ टेल ऑफ बर्न एण्ड ब्लेम सारांश प्रोडक्शन से बनी है। इसके प्रोड्यूसर नवीन बंसल हैं और निर्देशन राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता 'कमलेश के मिश्रा' के हाथ में है।
क्या कहती है फिल्म की कहानी
कहानी पिछली फरवरी की 22 और 26 तारीख तक के बीच की बयां हुई है। बयां करने वाला कोई नेरेटर नहीं बल्कि वो लोग हैं जो दिल्ली दंगों के दौरान पीड़ित हुए थे। डायरेक्टर कमलेश के मिश्रा ने दिल्ली दंगों के दो महीने बाद ही फिल्म निर्माण की तैयारी शुरु कर दी थी इसलिए जिन लोगों के इंटरव्यू लिए गए हैं, उनके जख्म भी साफ दिख रहे हैं।
22, 23, 24 और पच्चीस को, जैसे कपिल मिश्रा (बीजेपी नेता) के एक बयान को आधार बनाकर जाफराबाद के टेंट्स से, घरों से पत्थर, बोतल बम, तेज़ाब आदि निकाला गया; इसका पूरा ब्योरा देखने को मिलता है।
बहुत सी घटनाएं आप न्यूज़ के माध्यम से देख चुके होंगे पर बहुत सी नई बातें भी पता चलती हैं। मसलन, कर्दमपूरी में राजधानी स्कूल किसी फ़ैज़ नामक शख्स का है, जो आम-आदमी-पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन का रिश्तेदार है। इसने अपने स्कूल के सिर्फ मुस्लिम बच्चों को घर भेजने की तैयारी कर ली थी, इस स्कूल की छत पर और स्टोर में भी बहुत सारे पत्थर और बाकी हथियार छुपाए गए थे। इसी तरह, दंगाइयों ने इस स्कूल को छोड़, इसके कॉमपीटीशन वाले स्कूल के एक-एक कमरे में आग लगाई थी, तोड़-फोड़ की थी और सबसे गौर-तलब, लाइब्रेरी और रेकॉर्ड्स जला दिए थे।
दिल्ली दंगों का हादसा इतिहास याद दिला गया
लाइब्रेरी, कुछ याद आया? लाइब्रेरी की आग तीन दिन बाद बुझी थी। ये घटना मुझे इतिहास की उस निर्मम घटना से जोड़ने पर मजबूर करती है जहां बख्तियार खिलजी ने नालंदा में आग लगाई थी और हज़ारों साधुओं को जिंदा जलने दिया था। उस लाइब्रेरी की आग 3 महीने में जाकर बुझी थी। वो 1193 की बात थी, ये फिल्म 2020 के दंगों पर आधारित है। 827 सालों में क्या बदला है?
खैर, फिल्म ऐसे बहुत से फैक्ट्स सामने लाती है। पीड़ितों के इन्टरव्यू और खासकर दंगे में मारे गए शख्स के इन्टरव्यू आत्मा हिला देते हैं।
दिलबर नेगी, जिसके हाथ पैर काटकर उसे जला दिया गया था – की माँ के रोने की आवाज़ अब तक मेरे कानों में गूंज रही है।
फिल्म में दर्द भी है और दुआ भी
डायरेक्शन और स्क्रीनप्ले कमलेश के मिश्रा ने किया है। अमूमन डॉक्यूमेंटरी बोर और सुस्त होती हैं पर इस दस्तावेज में कमलेश मिश्रा ने जान डाल दी है। एडिटिंग भी उन्हीं की है और इतनी बेहतरीन है कि 80 मिनट की इस फिल्म से निगाह नहीं हटती।
सिनिमटाग्रफी में ज़्यादातर शॉट्स ऑरिजिनल घटना के वक़्त बनी वीडियोज़ से ही लिए हैं। देव अगरवाल ने हर बारीकी का ध्यान रखा है, माल ये है कि जो विचलित करने वाले सीन्स हैं, उदाहरण कोई जली हुई लाश है या नाले में से निकलता हाथ, तो उसे पूरी स्क्रीन पर न दिखाकर फिल्म के अंदर मोबाईल स्क्रीन में दिखाया गया है।
बापी भट्टाचार्य का बैकग्राउन्ड म्यूजिक भी त्रासदी वाले सीन्स में भावुक पहलुओं को और प्रबल करने का काम करता है।
कुलमिलाकर ये एक ऐसी डॉक्यूमेंट्री है जो सबको देखनी चाहिए। दिल्ली में रहने वाले हर शख्स को तो हर हाल में देखनी चाहिए और हादसों से सबक लेना चाहिए। बस फिल्म के एंड में उम्मीद थी कि जो मुस्लिम दुकाने जलाई गई हैं, उनके घरों में जो हंगामा हुआ है वो भी तफ़सील से दिखाया जायेगा लेकिन उसका ज़िक्र भर है। एंड नोट ये मिलता है कि ‘आग दोनों तरफ से लगाई गई, घर दोनों तरफ के जले हैं बस मीडिया सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम विक्टिम ही दिखा रहा है, सरकार से कॉमपनसेशन भी उन्हें जल्दी मिल रहा है जबकि हिन्दू पीड़ित गोली लगी होने के बावजूद, घंटों बेंच पर बिठाए जा रहे हैं।