Birthday Special Sushma Seth: मुझे एक नया तर्जुबा करने का अवसर मिला है!

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By Mayapuri Desk
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Birthday Special Sushma Seth: मुझे एक नया तर्जुबा करने का अवसर मिला है!

यह जानीमानी धारणा हो चली है कि नवोदित टी. वी. स्टार्स की जिन्दगी तभी तक होती है जब तक वे स्क्रीन पर दिखायी देते रहते है. हर हफ्ते करोड़ो दर्शको का मनोरंजन करते रहते है. उनके बाद न रंजनी याद आती है न कभी करमचन्द फिर भी हम दावे के साथ कहेंगे हिन्दुस्तान के सर्वप्रथम 'ऑपेरा' 'हम लोग' की दादी माँ को शायद ही आज भूल पाया हो. एक खास मध्यवर्गी उत्तर भारतीय बुर्जुर्ग नारी की भूमिका में सुषमा सेठ नामक इस अभिनेत्री ने जो अपने किरदार को सजीव जामा पहनाया था उसमें यर्थाथ वाद और मधुरता की ऐसी पुट थी कि 'हमलोग' के अन्त में निर्देशक ने जब उसे 'कैंसर' का मरीज बनाकर मारना चाहा था तो लाखों टी. वी. प्रेमियों ने उनके इस निर्णय का विरोध किया था. वे दादी माँ को इतना प्यार करने लगे थे कि झूठ से भी वे इस किरदार की मृत्यु नहीं चाहते थे.

टी.वी. सीरियलस ही क्यों सुषमा सेठ ने 'जनून' और बी. आर. चोपड़ा की फिल्म 'तबायफ' में भी ऐसी भूमिका निभा छोड़ी है कि फिल्मों में भी समान रूप से उन्हें प्रसिद्धि मिली है. वे चरित्र अभिनेत्रियों की श्रेणी में अग्रिण है. शशि कपूर की फिल्म 'अजूबा' के लिए जब वह बम्बई के दूरदराज इलाके नेशनल पार्क में शूटिंग कर रही होती है तो एकान्त के क्षणों में झील के किनारे अकेला पाकर हम उनसे बाते करने की पेशकश करते है तो वे कहती है क्यों नहीं अभी शुरू हो जाइये. बल्कि हम तुरन्त बातों के लिए तैयार न थे हम झट से बातों का सिलसिला जमाते हुये उनसे पूछते है. अब वे टी. वी. सीरियल्स में कभी दिखायी नहीं देती. क्या 'हमलोग' के बाद उनकी इच्छा तृप्त हो गई और वे अब केवल फिल्म माध्यम को ही समर्पित है?

वे मुस्करा कर बोली 'बस मैं टी. वी. सीरियल में काम करने की इच्छुक अब नही हूँ. अर्थ यह न लगाये टी.वी 'मीडिया' फिल्मों से 'इन्फीरेबर' है बल्कि 'हमलोग' की भूमिका के बाद मैं नहीं समझती 'एक्टिंग' में कुछ ज्यादा बुरा करने के लिये कुछ रह गया है. वैसे भी फिल्मों से मुझे फुर्सत नहीं ज्यादातर मैं फिल्में करने ही बम्बई आती हूँ और दिल्ली वापस लौट जाती हूँ. टी. वी. सीरियल्स क्योंकि ज्यादातर बम्बई में बनते है, मैं उनके लिये अपना और समय बम्बई में नहीं गँवाना चाहती'...सुषमा जी ने कहा.

कोई खास बात आप इतनी व्यस्तता के बावजूद भी दिल्ली में ही रहना पंसद करती है?

'दिल्ली का बात ही कुछ और है यहाँ बम्बई में मन नहीं लगता. जब तक काम में व्यस्त रहती हूँ ठीक है फिर होम सिक महसूस करने लग जाती हूँ. और दिल्ली भाग जाती हूँ. उन्होंने कहा.

लगता है 'हमलोग' की दादी माँ की तरह आपको अपने घर और परिवार से अत्याधिक लगाव है? कौन-कौन है परिवार में?

'बेशक! मुझे अपने परिवार से बेहद लगाव है. मेरे पति मोदी इन्ट्रप्राइजेज में 'सीनिया -एक्सीकुटिव' हैं मेरा बड़ा बेटा कलकत्ता में 'सेटल' है दो बेटियाँ है.'

क्या आपकी बेटियाँ भी आपकी तरह अभिनय में रूचि रखती है?

'जी हाँ, मेरी बेटी दिव्या तो हम लोग में मझली बनी थी, नाटको आदि में काफी रूचि रखती है. मेरी तरह उसे भी रंगमंच में हो रहे विकास को जमाने और समझने का शौक है. उन्होंने अवगत कराया.

'हम लोग' के बाद उनकी इस पुत्री ने फिल्मों में ब्रेक पाने की खातिर बम्बई में काफी प्रयास किये थे मगर कोई रोल उन्हें नहीं मिल सका. इसी बारे में हमने उनसे पूछा दिव्या को फिल्मों में काम पाने की काफी तमन्ना थी...पर

'जी हाँ, यहाँ कोई 'पोजेटिव-रिसपोसं' उन्हें न मिल सका वह वापस दिल्ली चली गई'...उन्होंने संक्षिप्त में कहा.

आप बुनियादी तौर पर रंगमंच की अभिनेत्री हे टी.वी के माध्यम से ही फिल्मों में आना हुआ है आपका आप तीनो माध्यमों में किसे सबसे ज्यादा संतुष्टी कारक मानती है?

'सच पूछिये तो मेरे लिये अभिनय करना संतुष्टी कारक है फिर माध्यम कोई सा भी क्यों न होने दो मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता. मैं उसके हिसाब से अपने को 'एडजेस्ट' कर लेती हूँ.'....सुषमा ने कहा.

क्या फिल्मों में किसी खास प्रकार की भूमिका करने की ख्वाहिश आपकी नहीं जिसे आप बरसों से निभाना चाह रही हो और यहाँ 'स्टीरियोटाइप' भूमिकाओं के झमेले में उस भूमिका को निभाने का अवसर आपको न मिल रहा हो.

जी नहीं, मैं स्टेज पर लगभग सभी तरह की भूमिका निभा चुकी हूँ. मुझे क्या जो लोग मुझे जानते है सभी को मालूम है मैं हर तरह की भूमिका निभा सकती हूँ फिर जो वे फिल्मों में ऑफर करते है यह उनका 'जजमैंट' है मैं उसमें जद्दोजहद नहीं करना चाहती. हाँ मैं कभी कभी उन भूमिकाओं के कलर में कुछ अतिरिक्त जरूर डालना चाहती हूँ, यहाँ फिल्मों में दो ही तरह के करेक्टर चलते है या तो एक दम ब्लेक या शुद्ध व्हाहट मैं चाहती हूँ दोनो के बीच में कोई करेक्टर बन जाये तो कितना अच्छा हो, मैं कई 'डायरेक्टर्स' से कोशिश करती हूँ कुछ मेरी बात समझते हैं तो ठीक है नहीं समझते तो मैं अपनी समझ को उनकी समझ के मुताबिक बना कर आगे बढ़ जाती हूँ' सुषमा जी ने कहा.

व्यवसायिक हिन्दी फिल्मों के निर्देशकों को क्या आप रंगमंच के निर्देशकों से किन्ही मामलो में तुच्छ और हीन पाती है?

'जी नहीं जो उनकी फिल्में देखते ऐसा महसूस करते है गलत सोचते है हिन्दी फिल्मों के निर्देशक बौद्धिक स्तंर पर किसी से कम नहीं होते. वे सभी बातों को जानते हुये आम जनता के मनोरंजन की खातिर कुछ 'गिमिक्स' और 'क्लीशे' का सहारा लेते है. उनको 'फ्रन्ट-बेन्चर्स' का हमेशा ख्याल रहता है. उनकी समझ के मुताबिक समझौता करके वे फिल्में बनाते है. अगर वे बौद्धिक स्तर पर फिल्म बनाते है. अगर वे बौद्धिक स्तर पर फिल्म बनाये तो शायद जिन्दगी में एक ही फिल्म बना पाये' सुषमा सेठ ने मुस्करा कर कहा.

फिर भी आपने फिल्मों में प्रवेश 'जनून' जैसी श्याम बेनेगल की फिल्म से किया क्या कलात्मक फिल्म कारों से किसी अदभुत 'रोल' पाने की तवक्को आप नहीं रखती होगी?

'आखिर कब तक इन्तजार किया जाये कि अच्छा रोल मिलेगा तो करेगे. दो चार साल हो सकता है ऐसा कोई रोल आ भी जाये तो किसे पता उस वक्त वह मुझे ही मिले लिहाजा बढ़ते जाना ही सही पोलिसी है., अब देखो कॉमर्शियल फिल्मों मे से 'तबायफ' में मुझे अच्छा रोल मिला ही था'...सुषमा जी ने अपनी धारणा को व्यक्त किया.

आप रंगमंच से क्यो विमुख हो गई ? जबकि आप मन से उसकी पेरवी करती है?

'वक्त की कमी-मैं बेशक रंगमंच को आज भी उतना ही प्यार करती हूँ उस कला को उतना ही आदर देती हूँ मगर लगातार चार पाँच सप्ताह रंगमंच पर 'रिहर्सल' आदि के लिए निकालना आज मेरे लिये संभव नही है'...सुषमा ने कहा.

आपने शशि कपूर की इस फिल्म 'अजूबा' में जिसकी शूटिंग में आप व्यस्त है, क्या नया पाया जो भूमिका कर रही है? क्या इसकी भूमिका के विषय में कुछ बतायेगी?

'मुझे जब 'अजूबा' की भूमिका सुनायी गई तो काफी 'एक्साइटिंग' लगी. मैं इसमें हीरोईन की माँ हूँ. क्योंकि 'अजूबा' एक 'फेन्टेसी' फिल्म है. मुझे एक नया तर्जुबा करने का अवसर मिला है. मैं अपनी बेटी को एक जंगल में भयानक जानवरो के बीच जन्म देती हूँ. जानवर मेरा स्वागत करते है देखभाल और रक्षा करते है'...सुषमा जी ने संक्षिप्त में बताया.

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