फिल्मकार-वितरक Tarachand Barjatya: फिल्म वही जो दर्शक मन भाये By Mayapuri 10 Nov 2022 | एडिट 10 Nov 2022 11:36 IST in बीते लम्हें New Update Follow Us शेयर यह लेख पुराने मायापुरी अंक 213 से लिया गया है. -जे.एन.कुमार उस दिन जब तारा चन्द बड़जात्या 'मायापुरी' के दफ्तर में दाखिल हुए तो मुंह पर बेसाख्ता गालिब का शेर आ गया- वह आयें घर में हमारे खुदा की कुदरत है. कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते है... ताराचन्द बड़जात्या को इस युग का 'फादर ऑफ़ फिल्म-इन्डस्ट्री' कहा जाए तो अतिशयुक्ति नहीं होगी. इस दौर में जितनी अच्छी फिल्में उन्होंने बनाई हैं उतने ही प्रतिभावान निर्देशक लेखक कलाकार आदि इस उद्योग को दिए हैं. इसके अलावा फिल्म-वितरण की भी उनकी अपनी बहुत बड़ी संस्था है. जिसके द्वारा उन्होंने सदा ही अच्छी फिल्मों को वितरित किया है. वह दुनिया में अकेले निर्माता हैं जिनकी एक ही दिन में 6-6 फिल्मों की शूटिंग हुई है. इस कदर महान व्यक्तित्व को 'मायापुरी' के दफ्तर में देख कर उनकी हमारी नजरों में महानता और महानता भी बढ़ गई. वे दिल्ली आये हुए थे तो अपने कीमती वक्त में से थोड़ा समय निकाल कर स्वयं ही मायापुरी परिवार से मिलने और प्रेस देखने शहर से इतनी दूर मायापुरी तक आए. प्रेस आदि दिखाकर जब हम बैठे तो बातचीत का सिलसिला छिड़ गया. मैंने कहा, 'बड़जात्या जी आपकी संस्था इतनी सम्पन्न है कि भारत में कोई दूसरी नहीं है. फिर क्या वजह है कि आप इतनी ढेर सारी फिल्में बनाते हुए भी आर्ट फिल्मों के निर्माण की ओर ध्यान नहीं देते?' 'सच बात यह है कि मैं 'अंगूर', 'फिर भी', 'मौसम', 'भूमिका', 'निशान्त', जैसी आर्ट फिल्मों के सख्त खिलाफ हूं. आज की यह आर्टिस्टिक फिल्में जीवन के निगेटिव पहलू को पेश करने के सिवा और कुछ नहीं करती. मिसाल के तौर पर 'भूमिका' में एक ऐसी अभिनेत्री का जीवन दर्शाया गया है. जिसे विवाहित जीवन में कोई सुख नहीं मिला था. जिसके कारण उसने मदिरा पान शुरू कर दिया और अन्य मर्दो के साथ सोने लगी. इसमें कोई संदेह नहीं कि यह सच्ची कहानी है किन्तु यह एक अभिनेत्री का एक्सैप्शनल-केश है. जो कुछ उसके साथ पेश आया उसका कारण यह नहीं था कि वह कोई जीवन का कानून है. इसलिए ऐसी बातें पर्दे पर दिखाने की जरूरत ही क्या है? इससे आप यह मत समझ लीजिएगा कि मैं श्याम बेनेगल या गुलजार को पसन्द नहीं करता. मुझे बेनेगल की 'मंथन' और गुलजार की 'कोशिश' और 'खुशबू' बहुत पसन्द आई थी. 'मंथन' एक पोजिटिव सब्जेक्ट पर बनी फिल्म थी. ऐसी फिल्मों से समाज को भी लाभ पहुंचता है. किन्तु जिनमें निगेटिव विषय होता है. उससे कोई लाभ नहीं होता. ऐसी फिल्में जब विदेशों में फिल्म समारोह में भेजी जाती हैं तो उससे भारत का इमेज तक खराब हो जाता है. हम भारतीयों को अपनी सभ्यता पर गर्व है. इसलिए विदेश में ऐसी ही फिल्में भेजी जानी चाहिए जिनमें भारतीय जीवन का सुन्दर पहलू दर्शाया गया हो.' बड़जात्या जी ने एक सच्चे देशभक्त की तरह कहा. 'बतौर वितरक आप अपने सिद्धान्तों का कहा तब पालन कर पाते हैं? वहां तो आपको भी दूसरों से समझौता करना ही पड़ता होगा ?' मैंने कहा. 'वितरक के रूप में भी इस बात का ध्यान रखा जाता है कि कोई अश्लील फिल्म नहीं ली जाये जहां तक मेरा सवाल है राजश्री ऐसी फिल्मों को कभी हाथ नहीं लगाएगी. अपने पिछले 45 वर्षो के अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि भारत में सेक्स फिल्मों का कोई लम्बा जीवन नहीं है वह चाहे 'भूमिका' या फिर भी की ही हद तक क्यों न हो. हां, वितरक के रूप मे मैं मौजूदा टेªन्ड का जरूर ध्यान रखता हूं. शोले और 'धमवीर' इस बात का प्रमाण है. इस पर मैंने कहा, लेकिन यह बात समझ में नहीं आई कि आप प्रायः एक ही थियेटर में फिल्म क्यों लगाते है? आपकी यह बिजनेस नीति अपनी समझ से बाहर है. 'देखिए बात यह है कि मैं एक थियेटर पर फिल्म इस लिए लगाता हूं कि मुझे अपने पैसों की वापसी की कोई जल्दी नहीं होती. दूसरे जो लोग ऐसी फिल्मों को दस-दस थियेटरों में लगाते है उनका भी हस्त्र आपने देखा होगा. पैसे अधिक आने की बजाय उनके 6 प्रिन्ट अगले सप्ताह वापस आ जाते है अब मैंने 'जीवन मृत्यु' को बम्बई में एक ही थियेटर पर केवल ही शो में एक ही प्रिंट लगाया था. 'जीवन मृत्यु' वहां 100 सप्ताह चलाई. उससे मेरे पैसे देर से वापस हुए किन्तु जो क्रेडिट राजश्री को मिला वह क्या कम है. 'जीवन मृत्यु' ने नया रिकाॅर्ड स्थापित किया. इस तरह राजश्री के नाम और दाम दोनों मिले. 'नये निर्देशकों को अवसर तो सभी देते ही हैं किन्तु क्या आपको फ्लाप निर्देशकों को अवसर देने में डर नहीं लगता?' मैंने पूछा. 'मैं मानता हूं कि यदि कोई फ्लाप होता है तो इसमें उस बेचारे का क्या दोष होता है? मुझे पता था कि लेख टन्डन की 6 फिल्में-'आम्रपाली' 'झुक गया आसमान' आदि बाॅक्स आफिस पर पिट गई थी. किन्तु मुझे इसमें उसकी कोई गलती नहीं लगी. गलती थी तो व्यवस्था की. प्रायः लोग फिल्म शुरू कर देते हैं. किन्तु इस चीज की ओर ध्यान नहीं देते कि शेष प्रबंध भी ठीक है या नहीं. दरअसल फिल्म शुरू करने से पहले स्क्रिप्ट पूरी तरह तैयार होना चाहिये. उसके बाद शूटिग के लिए फाइनेन्स की पूरी व्यवस्था करके शेडयूल बनायें तो कोई भी निर्देशक आपको अच्छी फिल्म बनाकर दे सकता है. मेरे दोनों लड़के ने स्क्रिप्ट आदि का.' 'इसके बावजूद आपकी फिल्म 'सौदागर' और 'अली बाबा मरजीना' आदि आशाओं पर पूरी नहीं उतरीं. इसका क्या कारण है ?' मैंने पूछा. 'सौदागर' के लिए मैं अमिताभ की जगह शत्रुधन सिन्हा को लेना चाहता था. मुझे उम्मीद थी कि अमिताभ वह रोल नहीं करेगा. इसके बावजूद उसे बुलाकर रोल सुनाया और अमाउंट बताया गया. किन्तु उम्मीद के खिलाफ अमिताभ ने सब कुछ स्वीकार कर लिया. रही बात अली बाबा मरजीना' की तो यह सब फिल्म के नाम की वजह से हुआ. इसमें मुझे 32 लाख का नुकसान हुआ. अगर फिल्म इस तरह न पिटती बहुत से लोगों ने केवल नाम की वजह से फिल्म नहीं देखी.' आप जिन नई प्रतिभाओं को अपने यहां अवसर देते है क्या आप भी उन्हें बाउंड करके रखते हैं?' मैंने पूछा, 'किसी भी निर्देशक या अभिनेता व अभिनेत्री संगीतकार आदि को जिसे मैं ब्रेक देता हूं उनके साथ ऐसी कोई शर्त नहीं रखता कि वे मेरी फिल्म बनाते वक्त या फिल्म में काम करते वक्त बाहर के किसी निर्माता के साथ काम नहीं कर सकते. इसके बाबजूद खुद उनकी यह इच्छा होती है कि मेरी फिल्म जल्दी पूरी कर लें. क्योंकि अपना नफा-नुकसान वे मुझसे ज्यादा जानते हैं. काजल किरण एक दिन मेरे पास आई और कहने लगी कि मैं आपके साथ एक फिल्म करना चाहती हूं. मैं उस वक्त 'सांच को आंच नहीं' की तैयारी कर रहा था. मैंने कहा तुम्हारे लायक 'सांच को आंच नहीं' में एक रोल है. तुम करना चाहो तो मैं अभी साइन कर लेता हूं. वह तुरंत राजी हो गई और चैक लेकर चली गई. किन्तु दूसरे ही दिन रोती हुई मेरे पास आई और बोली- नासिर साहब नहीं मानते! कहते हैं- 'तू मेरी फिल्म की हीरोईन थी! यह क्या किया ? जाओ यह चैक वापस करके आओ' अब आप ही बताईये कि क्या किसी को ऐसे बंधन में रखना कोई अच्छी बात है. अगर उस वक्त उसने मेरी फिल्म कर ली होती तो उसे दस फिल्में और मिल गई होती.' 'किन्तु किसी कलाकार को फिल्म में लेने और शूटिंग करने के बाद फिल्म से अलग करना भी तो अच्छी बात नहीं है. आपने ही सारिका को सारिका बनाया और फिर खुद ही उसे अपनी फिल्म से दूध से मक्खी की तरह अलग कर दिया. इस विषय में आपका क्या कहना है ?' मैंने पूछा. 'मैंने सारिका को एकदम से फिल्म से नहीं निकाला उसे अलग करने से पहले मैंने कई बार उसे वानिंग दी थी किन्तु उसने उसपर कान नहीं धरे. जिसकी वजह से मुझे यह सख्त कदम उठाना पड़ा. हालांकि उसे फिल्म से अलग करने के कारण मुझे दस लाख की हानि उटानी पड़ी. लेकिन मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि मेरी बिल्ली मुझसे ही मियाऊं करे. मैंने उसे हीरोईन बनाया और वहीं मेरे साथ काम करने के लिए मुझे कमांड करे, शर्त लगाए! यह तो शायद आप भी गलत मानेगे.' 'सारिका ने ऐसी क्या शर्त लगाई थी जिसकी वजस से आपने उसे अलग कर दिया?' मैंने जिज्ञासा से पूछा. 'अखियों के झरोखे' की हीरोइन सारिका ही थी. उससे तीन फिल्मों का अनुबंध किया गया था. 'गीत गाता चल' के बाद 'गोपाल कृष्ण' और 'अंखियों के झरोखों से' तीसरी फिल्म थी. किन्तु इस बीच सारिका और सचिन के आपसी संबंध बिगड़ गए थे. इसलिए सारिका ने जिद की कि सचिन को फिल्म से निकाल दूं तभी काम करूंगी. मैंने उससे कहा सचिन ने तो आज तक ऐसा नहीं कहा कि सारिका को निकाल दो! फिर भला मैं उसे क्योंकर निकाल दूं बस इसी बात पर मैंने सचिन की बजाए उसी को फिल्म से निकाल दिया. उन्हीं दिनों रंजीता ने मुझसे कहा कि मुझे भी कोई चांस दीजिए. मुझे फौरन उसकी बात जंच गई और अंखियों के झरोखों से' के लिए उसे हीरोईन ले लिया. इसी तरह की एक बात और है. शबाना आजमी मुझसे कोई डेढ़ साल पहले एक पार्टी में मिली थी. मुझसे कहने लगी, 'मैं आपके साथ काम करना चाहती हूं.' मैंने कह दिया कि जब तुम्हारे लायक रोल निकलेगा तो तुम्हें सूचना दे दूंगा. आज डेढ़ साल बाद मुझे शबाना के लिए एक रोल दिखाई दिया. मैंने उसे फोन पर बताया कि यह रोल है और यह अमाउंट है. उसने जवाब दिया मुझे अमाउंट की नहीं रोल की जरूरत है. दूसरे दिन वह मेरे दफ्तर आई और काॅन्टेªक्ट पर साइन कर दिए. तभी मैंने उसे बताया कि मेरे पास एक रोल और है. फिर मैंने उसे वह रोल भी सुनाया तो शबाना कहने लगी जो रोल आपने मुझे दिया है वह तो मैं कर ही रही हूं लेकिन जो रोल आप अब सुना रहे हैं वह रोल मेरे लिए चैलेजिंग है. मुझे यह भी दीजिए.' तब मैंने उसे दूसरे रोल के लिए भी साइन कर लिया. क्योंकि वह डबल रोल था. मैंने पूछा, आज जो फिल्में बतौर वितरक प्रदर्शित करते है क्या उनके निर्माण में भी आप इसी तरह दिलचस्पी लेते है. जैसी अपनी फिल्मों में लेते हैं. क्योंकि वितरण का धन्धा तो बड़ा जोखिम का धन्धा बताते है?' 'आपने सही कहा कि बड़ा जोखिक का धन्धा है. इसीलिए बहुत से समझदार निर्माता फिल्म फ्लाप होने पर पिछले नुकसान की कम्पन्सेट अगली फिल्म मे कर देते है. किन्तु ऐसे निर्माता आटे में नमक के बराबर है. मैंने प्रमोद चक्रवर्ती की तुम से अच्छा कौन है' रिलीज की थी उस फिल्म में मुझे काफाी नुकसान हुआ तो चक्की साहब ने 'नया जमाना' में मुझे पूरी तरह कम्पन्सेट कर दिया. किन्तु एक चेतन आनंद और देव आनंद हैं जिनकी मैंने बहुत पहले 'अफसर' फिल्म रिलीज की थी. इसलिए उन्होंने मुझे अनलक्की डिस्ट्रिब्यूटर मान कर अगली फिल्म 'बाजी' मुझे न देकर किसी और को दे दी और मेरी कोई सहायता नहीं की. रही बात हमारे तजुर्बे से फायदा उठाने की तो हम केवल मश्वरा दे सकते हैं. उसके बाद निर्माता की मर्जी है जो उचित समझे करे. मोदी साहब जिन दिनों 'शीश महल' बना रहे थे. मैंने फिल्म देखकर उन्हें राय दी. जिससे सहमत होकर उन्होंने फिल्म को जगह-जगह से उसी तरह संवारा किन्तु 'झांसी की रानी' बनाते वक्त मैंने उनसे कहा था कि महताब को न लेकर किसी और को ले लें तो फिल्म हिट होगी. किन्तु वह नहीं माने और उसका जो नतीजा निकला उसे आज तक भुगत रहे हैं.' 'आज जो टेªन्ड चल रहा है. उसके हिसाब से आपने बताया है आप वितरण के लिए फिल्में लेते हैं. किन्तु आप स्वयं वैसी फिल्में क्यों नहीं बनाते ?' मैंने पूछा. 'क्या उसका कारण सैन्सर पाॅलिसी रहा है?' मैंने सदा सेहतमंद पारिवारिक फिल्में बनाने का निश्चय किया है. जो कि लोग अपने परिवार के साथ बैठ कर देख सकें. इसलिए मैं निजी रूप से मौजूदा टेªन्ड के खिलाफ हूं. इसी वजह से आपको मेरी फिल्म में सेक्स वायलेन्स, मदिरापान, (यहां तक कि औरतों का सिगरेट पीना तक) आदि कुछ नहीं मिलेगा. अब सैन्सर ने चुम्बन भी पास करना शुरू कर दिया है. मैं इसे भी पसन्द नहीं करता निजी जीवन में पति-पत्नी यह क्रिया भी अंधेरे में करते हैं यह चीज हमारे लिए ठीक नहीं है. बिल्कुल ऐसी ही हमारी क्राइय-एक्शन-पैक्ड फिल्में होती है. उनमें बुरे काम का बुरा नतीजा कहीं तेरहवीं रील में दिखाया जाना है इससे पहले की बारह रोलों में वह सारी अनचाही बातें होती है जिनका असर तेरहवीं रील की बात से कही ज्यादा होता है. इसीलिए दर्शकों को जिससे शिक्षा लेनी चाहिए उसे तो भूल जाते हैं. इसीलिए मैं ऐसी फिल्में नहीं बनाता जो समाज पर गलत ढंग से असर कारक हों.' 'सैन्सर की नई पाॅलिसी के विषय में आपके क्या विचार है?' मैंने अंतिम प्रश्न पूछा. 'मैं इसका स्वागत करता हूं. पिछली सरकार के कारण इंडस्ट्री जबरदस्त क्राइसिस का शिकार हो गई थी. किन्तु मौजूदा सरकार ने अपनी पाॅलिसी के कारण इंडस्ट्री को डूबने से बचा लिया है. यहां तक कि चुम्बन भी पास करने लगी है. किन्तु मेरी फिल्में पहले भी इससे पाक थीं. और आज भी पाक हैं और कल भी पाक साफ रहेंगी.' बड़जात्या जी ने आत्म-विश्वास और दृढ़तापूर्वक कहा. बड़जात्या जी के जाने के बाद मैं घंटों यही सोचता रहा कि बड़जात्या जी अपने आप में एक महान हस्र्ती हैं. एक पूरा इंस्टिच्यूट हैं. किन्तु न तो देश ने और न ही फिल्मोद्योग ने उनके अनुभवों का पूरा पूरा लाभ नहीं उठाया है. यदि फिल्मोद्योग की बागडोर ऐसी हस्ती के हाथ में रहे तो देश वाकई दुनिया के सामने एक आदर्श खड़ा कर दें. #Tarachand Barjatya #Tarachand Barjatya article #Tarachand Barjatya story हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Advertisment Latest Stories Read the Next Article