प्यारेलाल रामप्रसाद शर्मा जी का नाम, बिना लक्ष्मीकान्त जी के नाम के अधूरा है। लक्ष्मीकान्त जी का निधन तो 25 मई 1998 के दिन 60 बरस की उम्र में हो गया था लेकिन प्यारेलाल जी आज भी हमारे साथ बदस्तूर हैं व हर संभव कोशिश से अपना जीवन संगीत में लीन रखते हैं। ज़रा काल के पहिये को पीछे घुमाया जाए तो याद आता है कि प्यारेलाल जी के पिता, ट्रंपेट बजाते थे और उन्हीं की बदौलत प्यारेलाल जी ने म्यूजिक सीखने की शुरुआत की थी। प्यारेलल जी संगीत के प्रति इतने दीवाने थे कि जब उन्होंने वॉइलिन सीखना शुरु किया तो 8 साल की उम्र से ही दिन में 12-12 घंटे प्रैक्टिस करने लगे। उनके भाई गिटार बताते और प्यारेलाल जी वॉइलिन।
लेकिन सन 1952 में जब वो 12 साल के हुए, तो उनके घर आर्थिक संकट मंडराने लगा। इसका उपाये निकालने के लिए प्यारेलल जी ने पढ़ाई से बिल्कुल किनारा कर लिया और स्टूडियो-स्टूडियो जाकर वॉइलिन बजाने लगे। उस वक़्त उनके गुरु एक गोवानी संगीतकार एंथनी गोनज़ालवेज थे। वह बॉम्बे ऑर्केस्ट्रा, कूमी वालिया, मेहील मेहता और उनके बेटे ज़ुबिन मेहता आदि के लिए ऑर्केस्ट्रा में वॉइलिन बजाया करते थे। हालांकि उन दिनों प्यारेलाल जी को इन ऑर्केस्ट्राज़ में बजाने की एवज में कोई बहुत अच्छी धनराशि नहीं मिलती थी, लेकिन गुजर-बसर करने के साथ साथ सुरील कला केंद्र में संगीत सीखने के लिए जाने लायक रुपए कमा लेते थे। ये म्यूजिक अकैडमी मंगेश्कर फैमिली द्वारा चलाई जाती थी। यहीं पर एक रोज़ उनकी मुलाकात लक्ष्मीकान्त जी से हुई, मुलाकात क्या हुई, यूं समझिए एक 12 साल के और एक 16 साल के (लक्ष्मीकान्त जी) लड़के के बीच नियति की ओर से तय की गई दोस्ती हो गई। लक्ष्मीकान्त जी के पिता गुजर चुके थे तो उनकी आर्थिक स्थिति भी बहुत कमज़ोर थी। इस मुफ़लिसी ने उन दोनों को और पक्का दोस्त बना दिया। साथ ही जब लता मंगेश्कर जी को पता चल कि ये दोनों माली रूप से मजबूत नहीं हैं, तो उन्होंने बॉलीवुड के नामी संगीतकारों को अपने ऑर्केस्ट्रा के लिए इन दोनों का नाम भेजना शुरु कर दिया। इन नामी संगीतकारों में नौशाद साहब, सचिन दा, सी राम चंद्रा, कल्याणजी आनंदजी आदि मौजूद थे। लेकिन यहाँ से रोज तो काम मिलता नहीं था, सो ये दोनों स्टूडियो दर स्टूडियो ऑर्केस्ट्रा में बजाने के लिए स्ट्रगल करते ही रहते थे। कोई 13 – 14 साल की उम्र होगी जब प्यारेलाल जी का सब्र जवाब दे गया। वह बोले “लक्ष्मीकान्त जी, मैं अब और यहाँ धक्के नहीं खा सकता। यहाँ तो शो करने के कितने-कितने दिन बाद तक पेमेंट ही नहीं मिलती है। ऐसे कैसे काम चलेगा, मैं सोचता हूँ कि ज़ुबिन मेहता की तरह मैं भी विएना चला जाऊँ और किसी वेस्टर्न ऑर्केस्ट्रा में जा के वॉइलिन बजाऊँ, कम से कम सुकून से रोटी तो मिलेगी” लक्ष्मीकान्त जी जानते थे कि वेस्टर्न म्यूजिक में प्यारेलाल की पकड़ भी बहुत अच्छी है और उस जैसा वॉइलिन भी शायद ही पूरे बॉम्बे शहर में कोई बजा सकता हो। लेकिन फिर भी उन्होंने बड़े भाई की तरह हक़ से मना कर दिया कि नहीं, प्यारेलाल तुम कहीं नहीं जाओगे, तुम हम मिलकर यहीं कुछ कर गुज़रेंगे” और कोई शख्स होता या आज का ज़माना होता, तो यही लगता कि लक्ष्मीकान्त जी प्यारेलाल की तरक्की से जल रहे हैं इसलिए मना कर रहे हैं पर न तब ऐसी कुंठायें हुआ करती थीं, और न प्यारेलालजी ऐसे शख्स हैं जो बुरा सोचकर रुकते। उन्होंने लक्ष्मीकान्त जी की बात पर भरोसा किया और यहीं रुक गए। प्यारेलाल जी के स्वभाव की बात उठी है तो मैं ये बात जोड़ता चलूँ कि वो सिर्फ नाम के ही प्यारेलाल नहीं है, मन से भी बहुत प्यारेलाल हैं। उन्होंने कभी मुहम्मद रफी को नाम लेकर नहीं बुलाया, वह हमेशा उन्हें साहब कहकर संबोधित करते हैं। किसी भी सीनियर, समकालीन, या उनके बाद के आए संगीतकारों के प्रति उनकी तरफ से कोई नकारात्मक बात नहीं सुनने को मिली। समकालीन की बात करूँ तो एक वक़्त लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के अलावा कोई संगीतकार हिट था तो वो पंचम दा यानी आर-डी बर्मन थे, मतलब के तगड़े प्रतिद्वंदी थे पर उसके बावजूद इन दोनों में बैर तो दूर, दोस्ताना माहौल था और पंचम दा फिल्म दोस्ती में इन्हीं के इसरार पर माउथ ऑर्गन भी बजा चुके थे। बहरहाल, बात प्यारेलाल जी के विदेश जाने की हो रही थी जिसे लक्ष्मीकान्त जी ने सिरे से नकार दिया था। धीरे धीरे इन दोनों को बॉलीवुड से ही काम मिलने लगा। सन 1954 किदार शर्मा जी ने जोगन फिल्म बनाई, जिसमें बुलो-सी-रानी का संगीत था, यहाँ पहली बार 14 साल की उम्र में प्यारेलाल जी ने किसी फिल्म के लिए वॉइलिन बजाया। फिर इन दोनों ने कल्याणजी आनंदजी को असिस्ट करना शुरु कर दिया। कोई 7 साल बाद, बाबूभाई मिस्त्री की एक फिल्म पारसमणि (1963) में इन्हें बतौर संगीतकार काम करने का मौका मिला। मज़ा देखिए, बाबूभाई मिस्त्री का हाथ पकड़कर ही इनके गुरु कल्याणजी आनंदजी भी इंडस्ट्री में आए थे। क्योंकि लक्ष्मीकान्त जी बड़े भी थे और भारतीय संगीत को बहुत अच्छे से समझते भी थे, इसलिए ये तय हुआ कि लक्ष्मीकान्त जी कम्पोज़ करेंगे और प्यारेलाल जी म्यूजिक अरैन्ज करेंगे। इनकी पहली रिलीज़ फिल्म ‘पारसमणि’ के गाने इतने बम्पर हिट हुए कि साथ साथ फिल्म भी सुपरहिट करवा गए। हमेशा की तरह इनके लिए लता मंगेश्कर जी ने पहली फिल्म होते हुए भी गाने से न नुकूर करने की बजाए प्रोत्साहित किया और कम बजट होते हुए भी 6 में से 5 गाने गाए। इन गानों में ‘हँसता हुआ नूरानी चेहरा, काली जुलफ़े रंग सुनहरा’ आपने ज़रूर सुना होगा और आप यकीनन पसंद करते होंगे। साथ ही पहली फिल्म का शगुन करते हुए मोहम्मद रफी साहब ने पहला गाना ‘वो जब याद आए, बहुत याद आए’ के लिए कोई फीस न ली और कह दिया कि इस गाने की फीस आप किसी ज़रूरतमंद को देना। प्यारेलाल जी सौम्यता से बताते हैं कि ये लताजी और साबजी (रफी) का आशीर्वाद था उनके लिए। और यकीनन ये एक ऐसा आशीर्वाद साबित हुआ कि एल-पी के नाम से महशूर होने वाले इस म्यूजिक डूओ ने फिर पीछे मुड़कर देखना तो दूर, तुरंत ही कामयाबी के झंडे गाड़ने शुरु कर दिए। अगले ही साल एक और कमाल हुआ। 1964 में फिर एक लो बजट फिल्म संत ज्ञानेश्वर तैयार होने लगी और लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल को नए होने के चलते फिल्म में काम दिया गया। फिल्म के प्रोड्यूसर मशहूर ट्रेड अनिलिस्ट कोमल नाहटा के पिता रामराज नाहटा थे। फिल्म पहले तीन दिन में ही फ्लॉप डिक्लेयर होने को थी कि चौथे दिन रामराज जी के पास उनका असिस्टेंट दौड़ता हुआ आया और बोला “भाईसाहब, गजब हो गया, फिल्म तो सुपर हिट है ये” रामराज जी ने टोका भी “क्यों बेवकूफ बना रहे हो भाई” तो उसने उसी उत्साह में बताया “अरे नहीं, जैसे ही गाना ‘ज्योत से ज्योत जगाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो’ गाना बजता है वैसे ही पब्लिक पागलों की तरह स्क्रीन पर रेजगारी फेंकने लगती है। मैंने आजतक काभी किसी भी सीन, किसी भी गाने के लिए इतनी रेजगारी लुटती नहीं देखी।“ कमाल की बात ये भी है कि यही गीत बिनाका गीत माला में दो साल तक टॉप थ्री में बना रहा था। इसी साल नई स्टार कास्ट के साथ फिल्म ‘दोस्ती’ न सिर्फ इनके गानों की वजह से सुपर-डुपर हिट हुई, बल्कि करिअर के दूसरे ही साल लक्ष्मीकान्त प्यारेलालजी को पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला। मोहम्मद रफी के गाए गाने ‘राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताये रे’ बहुत पसंद किया गया। अब क्योंकि यह दोनों ही शंकर-जयकिशन जी का संगीत बहुत पसंद करते थे, इसलिए इनका म्यूजिक स्टाइल भी कुछ लोगों को वैसा ही लगता था। लेकिन समय की करवट देखिए, कुछ सालों बाद शंकर-जयकिशन ने अपनी संगीत शैली में संगीत में फेरबदल कर ली कि लोग ये न कहें कि उनका संगीत लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल की कॉम्पोज़िशन से मिलता है। इसके बाद, फिल्म मिलन में मुकेश का गाना ‘सावन का महिना, पवन करे शोर’ हो या शागिर्द में लता जी का गाना ‘दिल विल प्यार व्ययर मैं क्या जानू रे’ हो, इनका हर गाना रेडियो पर नॉन-स्टॉप बजता मिलता था। फिल्म दो रास्ते, इंतकाम, बॉबी, रोटी कपड़ा और मकान, अमर अकबर एंथनी’ आदि सन 70 की हर बड़ी फिल्म में संगीत लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल जी का संगीत धूम मचा रहा था। इनके गानों की फेरहिस्त यहाँ लगाकर उसका गुणगान करना तो सूरज को दीया दिखाना है, पर अमर अकबर एंथनी की बात आई है तो इतना ज़रूर बताना चाहूँगा कि कि उस वक़्त के चार लिजेंड, टॉप फॉर को एक ही गाने में लाना, ये सिर्फ प्यारेलालजी और लक्ष्मीकान्त जी के बस का काम था। हमको तुमसे हो गया है प्यार क्या करें, इस गाने में मुकेश, रफी साहब, किशोर कुमार और लता मंगेश्कर भी हैं। ये पहला और आखिरी गाना है जिसमें ये चारों साथ हैं। साथ ही, आपको इस फिल्म का, अमिताभ बच्चन पर फिल्माया वो कॉमेडी सॉन्ग तो याद ही होगा ‘माई नेम इज एंथनी गोनज़ालवेज, मैं दुनिया में अकेला हूँ’। यह गाना प्यारेलाल जी की तरफ से उनके उन्हीं गोवानी उस्ताद एंथनी के लिए समर्पित था। इनके संगीत की ऊँचाइयों की क्या बात करूँ, अस्सी के दशक में तो इन्होंने सत्तर से ज़्यादा कहर ढाया था। फिल्म कर्ज़, एक दूजे के लिए, प्रेम रोग, नाम, नगीना, मिस्टर इंडिया, तेज़ाब, चालबाज़, राम लखन, आदि एक से बढ़कर एक म्यूज़िकल हिट दी। नब्बे में भी सौदागर, खुदा गवाह, खलनायक, दीवाना मस्ताना, आदि सब टॉप क्लास म्यूजिक से सजी ब्लॉकबस्टर फिल्में थीं। फिर धीरे-धीरे लक्ष्मीकान्त जी की सेहत गिरने लगी और प्यारेलाल जी का मन भी संगीत के बदलते तौर से विरक्त होने लगा। लक्ष्मीकान्त जी की देथ के बाद भी उन्होंने कुछ समय काम किया और एल्बम पर लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल ही लिखा, लेकिन वो बात न रही। पर प्यारेलाल जी सन 1998 से लेकर आज 2021 तक भी संगीत से जुड़े हुए हैं और आज भी म्यूजिक अरेंज में उनका कोई जवाब नहीं है। उनकी सौम्यता का हाल तो क्या बताऊँ साहब, उनके यहाँ 50 साल पहले जो वादक काम करने आते थे, उनकी चौथी पीढ़ियाँ तक अभी भी उनके पास ही आती हैं। वह लता जी से हमेशा टच में रहते हैं। मुकेश जी की वह तारीफ करते नहीं थकते। रफी साहब के बारे में तो फख्र से कहते हैं कि रफी साहब कल भी थे, आज भी हैं, हमेशा रहेंगे। सुबह 5 बजे से उनके गाने सुनने शुरु करता हूँ और शाम सात बजे तक सुनता हूँ। सारा दिन साहबजी की संगत में बीत जाता है। ऐसे ही प्यारे, हम सब के दुलारे, संगीत के लिए चौबीस घंटे समर्पित प्यारेलाल जी को हम मायापुरी मैगजीन की ओर से उनके 80वें जन्मदिन पर बहुत-बहुत शुभकामनाएं प्रेषित करते हैं और आशा करते हैं कि वह स्वस्थ रहें और सदा संगीत से जुड़े रहें। सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’ फिल्म - मिलन (1967) संगीत - लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल गीतकार - आनंद बक्षी गायक - लता मंगेशकर, मुकेश हम तुम युग-युग से ये गीत मिलन के गाते रहे हैं गाते रहेंगे हम तुम जग में जीवन साथी बन के आते रहे हैं आते रहेंगे जब-जब हमने जीवन पाया जब-जब ये रूप सजा सजना हर बार तुम्हीं ने माँग भरी तुमने ही पहनाया कँगना हम फूल बने या राख हुए पर साथ नहीं छूटा अपना हर बार तुम्हीं तुम आन बसे इन आँखों में बनके सपना हम तुम युग-युग... सावन में जब कभी भी ये बादल गगन पे छाये बिजली से डर गए तुम डर कर करीब आये फिर क्या हुआ बताओ बरसात थम न जाए बरसात थम न जाए हम तुम युग-युग... जग ये बंधन ना तोड़ सका हम तोड़ के हर दीवार मिले इस जनम-जनम की नदिया के इस पार मिले, उस पार मिले भगवान ने पूछा मांगो तो तुमको सारा संसार मिले पर हमने कहा संसार नहीं हमको साजन का प्यार मिले हम तुम युग-युग... हम आज कहें तुमको अपना हम तुम किस रोज़ पराये थे बाहों के हार तुम्हें हमने बरसों पहले पहनाए थे दुनिया समझी हम बिछड़ गये ऐसे भी ज़माने आये थे लेकिन वो जुदा होने वाले हम नहीं, हमारे साये थे हम तुम युग-युग.