अपने पैंतालीस वर्षों में दिलीप कुमार को काफी करीब से जाना और मैंने उन्हें अलग-अलग अवतारों में देखा है। मैंने उन्हें मूल रूप से एक अभिनेता के रूप में उनकी बहुमुखी प्रतिभा को देखा है, लेकिन मैंने उन्हें कई अन्य ‘रूपों‘ में भी देखा है, जिसके कारण मैं उन्हें सदी के सबसे शानदार इंसान की उपाधि देता हूँ! वह एक प्रशिक्षित अभिनेता नहीं थे, वे कभी भी किसी स्कूल या अभिनय संस्थान में नहीं गए और फिर भी अपने आप में अभिनय की एक संस्था बन गए! लोग उन्हें एक ऐसा अभिनेता मानते थे जिनके अभिनय की अपनी एक अलग ही पद्धति थी। लेकिन मैं उन्हें सबसे स्वाभाविक अभिनेताओं में से एक मानता हूँ, जो उनके द्वारा निभाए जा रहे चरित्र में विश्वास करते थे और फिर चरित्र को सबसे स्वाभाविक तरीके से जीते थे। कुछ और लोग हैं जो मानते हैं कि वह अद्भुत प्रतिभा के धनी और एक नैसर्गिक प्रतिभाशाली व्यक्ति थे, लेकिन मैंने उन्हें सेट पर या उनके मेकअप रूम में और यहाँ तक कि उनकी कार में भी काम करते देखा है और हर विवरण पर बहुत मेहनत करते देखा है। उन्होंने किसी भी सीन को तब तक शूट नहीं किया, जब तक कि उन्हें उस सीन को करने का पूरा भरोसा नहीं हो गया और तभी संतुष्ट हुए जब उन्हें लगा कि उन्होंने सीन या डायलॉग के साथ न्याय किया है। यह पूर्ण समर्पण है जिसने उन्हें दिलीप कुमार बना दिया, जिनकी कभी मृत्यु नहीं हो सकती क्योंकि उनके द्वारा किए गए हर उत्कृष्ट दृश्य और संवाद को आने वाली पीढ़ियों में वर्षों तक याद किया जाएगा। लेकिन दिलीप कुमार, सिर्फ एक कमाल के अभिनेता नहीं थे, उनके ज्ञान के सागर और अच्छी सलाह देने की क्षमता के दम पर वे एक अच्छे राजनेता भी हो सकते थे। ज्ञातव्य है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी उन्हें देश से संबंधित किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर उनकी सलाह लेने के लिए उन्हें फोन किया था। यहीं नहीं बल्कि 27 मई 1964 को मृत्यु से पहले नेहरू की आखिरी मुलाकात दिलीप, राज कपूर और देव आनंद से हुई थी। यहाँ तक कि जब प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कारगिल की समस्या का सामना करना पड़ा था, और जब वे पाकिस्तान के प्रधान मंत्री नवाज शरीफ के साथ एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दे के बारे में बात कर रहे थे, तो उन्होनें दिलीप कुमार को शरीफ से बात करने को कहा ताकि उनकी संवेदनशीलता को समझा जा सके। वह शायद एकमात्र ऐसे अभिनेता थे जो देश की समस्याओं को समझ सकते थे और सत्ता में बैठे लोगों के लिए उनका समाधान कर सकते थे जो उनकी बात सुनने को तैयार थे। जब वे राज्य सभा के सदस्य और बॉम्बे के शेरिफ थे तब राजनीति पर उन्होंने अपने विचार प्रकट किए और किसी भी अन्य मंच पर वे स्वतंत्र रूप से, खुलकर और निडर होकर अपने विचार व्यक्त करने में सक्षम थे। देश और दुनिया के अर्थशास्त्र की अपनी समझ के कारण वे एक प्रमुख अर्थशास्त्री बन सकते थे। वह किसी भी भाषा अंग्रेजी, उर्दू, हिंदी, पश्तू और यहाँ तक कि मराठी के भी प्रोफेसर हो सकते थे। वह एक अग्रणी कवि या लेखक हो सकते थे क्योंकि साहित्य और कविता पर उनका अधिकार इतना गजब था कि कई अन्य लेखक और कवि उनके आस-पास भी नहीं आ सकते थे। वह देशों, धर्मों और जहाँ भी विवाद और असहमति की स्थिति थी, वहाँ एक आदर्श राजदूत और मध्यस्थ हो सकते थे। वह एक धार्मिक नेता भी हो सकते थे जो सभी धर्मों के लोगों को प्रेम, शांति और भाईचारे के महत्व का प्रचार कर सकते थे और सभी धर्मों और उनके नेताओं के बीच शांति ला सकते थे। लेकिन, अभिनेता होने के अलावा यदि वे सर्वप्रथम एक स्पोर्ट्स पर्सन हो सकते थे। दिलीप कुमार बंटवारे से पहले पेशावर में अपने युवाकाल में एक अच्छे फुटबॉल खिलाड़ी थे। बॉम्बे में उतरने के बाद भी उन्होंने फुटबॉल खेलना जारी रखा और विल्सन कॉलेज और खालसा कॉलेज में दाखिला लिया। वह एक स्वीकृत बैडमिंटन खिलाड़ी भी थे और कई वर्षों तक बांद्रा जिमखाना के सदस्य थे। वह एक क्रिकेटर के रूप में एक ऑल राउंडर थे। वह एक अच्छे और मध्यम गति के गेंदबाज और एक बेहतरीन ओपनिंग बल्लेबाज थे। उन्होंने क्रिकेट की दुनिया के सभी घटनाक्रमों पर नजर रखी। क्रिकेट कमेंट्री सुनने के लिए उन्हें हाथों में ट्रांजिस्टर लिए हुए देखना बहुत दिलचस्प था। उन्होंने और लता मंगेशकर, जिन्हें वे अपनी ‘छोटी बहन‘ कहते थे, ने क्रिकेट के प्रति अपने जुनून को साझा किया। वह गिल्ली डंडा और कबड्डी जैसे सबसे देहाती खेल भी खेल सकते थे। जिस किसी ने भी ‘गंगा जमुना’ देखी हो, उसने देखा होगा कि वे उसमें कबड्डी का मैच कितनी ईमानदारी से खेलते हैं। वह घंटों पतंग भी उड़ा सकते थे और पतंग उड़ाने के इसी प्यार का फायदा मनोज कुमार को तब मिला जब वह उनके साथ ‘क्रांति‘ की शूटिंग कर रहे थे। जब भी शूटिंग के दौरान कोई गलतफहमी या कोई समस्या होती, तो मनोज उन्हें अपनी छत पर ले जाते और पतंगबाजी में व्यस्त कर उनका मन बदल देते। ये बहुआयामी व्यक्त्वि वाले व्यक्ति के कुछ ही चेहरे हैं जो और भी बहुत कुछ हो सकते थे। लेकिन मुझे एक ऐसे व्यक्ति के सभी चेहरों को जानने का सौभाग्य नहीं मिला, जिनकी प्रतिभा आने वाली कई पीढ़ियों को प्रेरित करेगी। खेल-खेल में गजब का खिलाड़ी कैसे खेल, खेल गया। क्या ऐसा खिलाड़ी फिर कभी इस धरती पर खेलेगा?
जन्मदिन विशेष: अगर मोहम्मद यूसुफ खान दिलीप कुमार नहीं होते, तो कौन होते?
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