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एक सस्पेंस थ्रिलर फिल्म की सबसे बड़ी पॉवर होती है उसका क्लाइमेक्स। पटकथा लेखक ने एक-एक सीन बनाने में चाहें अपनी कलम के घोड़े खोल लिए हों, फिर भी उसपर सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी यही होती है कि वो कहानी का अंत किस तरह करता है।
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बात करते हैं ‘चेहरे’ की, फिल्म की शुरुआत वहीं से है जहाँ से ट्रेलर शुरु होता है। समीर मेहरा (इमरान हाश्मी) बर्फीले मौसम में तेज़ गाड़ी चलाते हुए शोर्टकट पकड़ दिल्ली की तरफ दौड़े जा रहे हैं कि शॉर्टकट पकड़ने के चक्कर में रास्ते के आगे पेड़ गिर पड़ता है। यहाँ समीर की मदद के लिए मिस्टर भुल्लर (अनु कपूर) मिलते हैं और मौसम से बचाने के लिए अपने घर ले आते हैं जहाँ थोड़े से खिसके हुए कुछ बुड्ढे हैं। यह सारे बूढ़े एक समय अदालत में काम किया करते थे। सरदार भुल्लर डिफेंस के वकील थे, जगदीश आचार्य (धृतिमान चैटर्जी) कभी जज हुआ करते थे और लतीफ़ ज़ैदी (अमिताभ बच्चन) टॉप के प्रोसिक्यूशन के वकील थे। यहाँ पर एक खिसकी सी लड़की ‘ऐना’ भी है और एक मर्डरर ‘जो’ (सिद्धान्त कपूर) है जो सात साल की सज़ा काटकर आया है और अब यहीं रह रहा है।
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शुरुआत में प्रतीत होता है जैसे ये बुड्ढे समीर मेहरा का इंतज़ार ही कर रहे हैं। ट्रेलर के मुताबिक ही यहाँ एक खेल शुरु होता है जिसमें लतीफ़ जैदी समीर से इंटेरोगेशन करके एक मर्डर केस का इल्जाम उनपर लगा देते हैं। यहाँ से डाइलॉग्स का सिलसिला शुरु होता है। लम्बे-लम्बे डाइलॉग्स और एक दूसरे को घूरते पात्र अच्छा टेन्स माहौल क्रीऐट कर देते हैं। स्क्रीनप्ले शुरुआत में थोड़ा फोर्सफुली पुश करता लगता है लेकिन कहानी सेटल होने के बाद फिल्म अंत तक कसी रहती है।
ऐक्टिंग के खाते में एक से बढ़कर एक धुरंधर यहाँ मौजूद थे। शुरुआत अनु कपूर से करते हैं। इस ऐक्टर को आप कोई भी रोल दे दें, ऐसा लगता ही नहीं है कि ये ऐक्टिंग कर रहे हैं। इस फिल्म में तो पहले सीन से लेकर आखिरी सीन तक अनु कपूर छ गए हैं।
रघुवीर यादव पूरी फिल्म में उत्सुकता जगाते रहे हैं। इनका पोकर फेस और कॉमिक टाइमिंग आपको कई बार हँसने का बहाना देते हैं।
रिया कपूर और क्रिस्टल डीसूज़ा के हिस्से जितना आया, उन्होंने बखूबी निभाया। समीर सोनी फिल्म में होते न होते, कोई फ़र्क नहीं पड़ना था।
शक्ति कपूर के बेटे भी कुछ सीन्स के लिए थे और अच्छे लगे।
जज बने धृतिमान चैटर्जी की एक्टिंग भी शानदार है। हालाँकि सब अमिताभ बच्चन की परछाई के नीचे कहीं न कहीं दब ही रहे हैं।
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अब बात लीड ऐक्टर एमरान हाशमी की करते हैं, एक लालची, हसद का मारा, मन में चोर लिए बैठा मौकापरस्त और झूठा कैरिक्टर आपके पास हो तो उसे निभाने के लिए बेस्ट ऐक्टर एमरान हाशमी ही हैं। ये रोल उन्हीं के लिए बना था।
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अमिताभ बच्चन इस फिल्म में नहीं है, ये फिल्म अमिताभ बच्चन में है। शुरुआत में चेहरे पर लिखी नज़्म कहते बिग बी, आखिरी सीन तक अपना वर्चस्व कायम रखते हैं। शायद यही फिल्म की सबसे बड़ी समस्या भी हो जाती है। कैसे? अभी बताता हूँ।
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पहले बात डायरेक्टर-राइटर की करते हैं। रूमी जाफरी इससे पहले तीन-चार फिल्में (गली गली चोर है, लाइफ पार्टनर, गॉड तुस्सी ग्रेट हो) बना चुके हैं पर उनमें से कोई भी फिल्म तारीफ लायक नहीं है। लेकिन रूमी जाफरी की लिखी, डेविड धवन की कॉमेडी फिल्म्स एक से बढ़कर एक हैं और उन्हें दस दस बार देख सकते हैं। रूमी ने इस बार भी कान्सेप्ट बहुत अच्छा पकड़ा है, स्क्रीनप्ले भी अच्छा लिखा है, 90% फिल्म में थ्रिल कायम रखा है लेकिन आखिर के दस प्रतिशत, जो किसी भी सस्पेंस थ्रिलर फिल्म में सबसे क्रूशियल होते हैं; वहाँ ग्रिप छोड़ दी है। या मैं ये लिखूँ कि निपटा दी है।
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स्क्रीनप्ले ओवरआल बहुत कसा है पर कहीं-कहीं बहुत सिली फिलर्स डाले हैं जो प्रेडिकटेबल लगते हैं पर मुख्य कहानी से रिलेट नहीं कर पाते। क्लाइमैक्स सिर्फ और सिर्फ अमिताभ बच्चन के कंधों पर उठाने की कोशिश की है, जो अच्छा होते हुए भी सैटिस्फाइंग नहीं है। सज़ा के तौर पर जो अंजाम दिखाया है वो बहुत बचकाना है।
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बिनोद प्रधान ने सिनिमैटोग्रफी बहुत बढ़िया की है। मज़ा आ गया है। बोधादित्य बनर्जी की एडिटिंग भी ठीक है, अंत थोड़ा बेहतर हो सकता था।
कुलमिलाकर फिल्म को हॉलीवुड फील देने के साथ साथ बॉलीवुड इमोशन्स और मेलोड्रामा का मिक्सचर बनाने के चक्कर में रूमी से फिल्म स्लिप हो गयी है। पर वन टाइम वाच फिर भी है।
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आप फिल्म देखने के बाद एक सवाल खुद से ज़रूर पूछेंगे कि इस फिल्म का नाम चेहरे क्यों है?
तो मेरी समझ में बस इतना ही है कि रूमी कहना चाहते हैं कि चेहरे भले ही बदलते रहें, पर चेहरे के अंदर का चेहरा क्रिमिनल ही होता है।
रेटिंग – 6.5/10*
सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’
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