Death Anniversary: नौशाद साहब ने एक रोज़ कहा था "ग़लती हो गयी उस्ताद, आइन्दा कभी इस साज़ को नहीं हाथ लगाऊंगा"

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By Mayapuri Team
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Death Anniversary: नौशाद साहब ने एक रोज़ कहा था "ग़लती हो गयी उस्ताद, आइन्दा कभी इस साज़ को नहीं हाथ लगाऊंगा"

नौशाद साहब को सन 90 के बाद पैदा हुई पीढ़ी शायद न पहचानती हो पर भारतीय संगीत के इतिहास में नौशाद साहब का नाम हमेशा सुनहरे अक्षरों से लिखा गया है. बैजू बांवरा, मुग़ल-ए-आज़म, आन, मदर इंडिया, गंगा जमना जैसी सत्तर से अधिक फिल्मों में अपने संगीत का जादू बिखेरा है. 

पर क्या उस्ताद की हैसियत रखने वाले नौशाद साहब पैदाइशी फनकार थे? जवाब है न! 

सन 1919 लखनऊ में जन्में नौशाद मुंशी वाहिद अली के बेटे थे. बाकी मुस्लिम परिवारों की तरह उनके लिए भी संगीत वगैरह में रुची रखना मना था. लेकिन छोटी उम्र में नौशाद लखनऊ से 25-26 किलोमीटर दूर बाराबंकी में देवा सह्रीफ दरगाह पर कव्वाली सुनने ज़रूर जाते थे. यहीं से जाने कब उन्हें संगीत का चस्का लग गया, उन्हें भी न पता चला. 

दरगाह जाना तो कभी-कभार का था, पर संगीत की भूख उन्हें रोज़ लगती थी, अब क्या करें? 

लखनऊ में तब रोयल थिएटर हुआ करता था जिसमें मूक यानी साइलेंट फिल्में लगा करती थीं. पर उन साइलेंट फिल्मों का माहौल साइलेंट नहीं होता था. पिक्चर रिलीज़ से पहले संगीतकार को सुनाई जाती थी, वह उसे देख नोट्स बनाते थे. तब उसपर प्रैक्टिस कर, संगीतकार वहीँ पर्दे के पास ही बैठते थे और फिल्म के सामने लाइव म्यूजिक चलता था. यही लाइव म्यूजिक नौशाद जाकर सुना करते थे. 

वहीँ लखनऊ में एक म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट्स की दुकान थी, वहाँ नौशाद साहब सुबह रोज़ जाते थे और खड़े देखते रहते थे. उस दुकान में हर तरह के म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट जैसे तबला, सारंगी, सितार, वायलिन आदि होते थे. नौशाद बस खड़े उस दुकान के मालिक ग़ुरबत खान को कभी बजाते तो कभी ठीक करते देखते रहते थे. 

एक रोज़ ग़ुरबत खान ने टोक दिया “बरखुरदार मैं कई रोज़ से देख रहा हूँ कि तुम यहाँ आते हो, खड़े ताकते रहते हो, फिर चले जाते हो. आख़िर इरादे क्या हैं ज़रा बताओ” 

तो 12-13 साल के नन्हें नौशाद बहुत संकोच करके, हिचकिचाते हुए बोले “उस्ताद यूँ ही इन संगीत यंत्रों को ठीक करते, बजाते आपको देखता हूँ, अगर आपकी इजाज़त हो तो कुछ अर्ज़ करूँ?”

ग़ुरबत खान अच्छे मूड में थे, बोले “कहो जो कहना कहो”

“उस्ताद अगर आप चाहें तो मैं सुबह यहाँ आकर साफ़-सफ़ाई और धूप लोबान वगैरह कर दिया करूंगा”

उस्ताद ग़ुरबत खान को लगा कि लड़के को शायद जेब ख़र्च के लिए किसी काम की दरकार होगी. उन्होंने मंज़ूरी दे दी .

अब रोज़ सुबह, नौशाद उनके घर से चाबी लाते, साफ़-सफाई करते, धूप-लोबान जलाते और रॉयल थिएटर में सुने म्यूजिक की हुबहू नक्ल करने की कोशिश में जुट जाते. उधर ग़ुरबत खान के आने से ज़रा पहले हारमोनियम छोड़कर कोने में कहीं बैठ जाते. 

एक रोज़ नौशाद यूँ ही अपने रियाज़ में मग्न थे, न इधर देख रहे थे न उधर, आख़िर उस्ताद के आने में अभी समय था. वो रियाज़ में लगे हुए थे कि उस्ताद के गला खंखारने की आवाज़ हुई और नौशाद के तो मानों काटो खून नहीं. उन्होंने मुड़कर देखा तो उस्ताद ग़ुरबत खान ही थे. 

वो बोले “हूँ, तो ये सफाई हो रही है. आप दुकान की सफाई नहीं, अपने हाथ की सफाई करने यहाँ आते हैं”

नौशाद सहम गए, बोले “उस्ताद आज ग़लती हो गयी, माफ कर दें, आइन्दा नहीं हाथ लगाऊंगा” 

“माफ़ी तो खैर आपको नहीं मिलेगी” उस्ताद भी रहम के मूड में न थे “आप ये जो हमारे नये साज़ का सत्यानाश कर रहे थे, ये आपने कहाँ सीखा?” 
नौशाद ने बताया कि वह रॉयल थिएटर जाते हैं, वहीं जिन संगीतज्ञों को बजाते सुना, उसी की प्रैक्टिस यहाँ कर रहे थे. नौशाद मुजरिम की तरह बोले “इस बार माफ़ कर देन उस्ताद आइन्दा ऐसी गुस्ताखी नहीं होगी”

ग़ुरबत खान हल्की सी मुस्कान के साथ बोले “भई माफ़ी तो आपको नहीं मिलेगी, आपको सज़ा मिलेगी, और आपकी सज़ा ये है कि जो आप हमारे नए साज़ का सत्यानास कर चुके हैं, इसे आप अपने साथ ले जाइए और जाइए इसपर रियाज़ कीजिए”

नौशाद को अपने कानों पर विश्वास न हुआ. उनके पास कोई साज़ होने का मतलब ही नहीं होता था. 

फिर कुछ समय बाद उन्होंने गोपालगंज के एक थिएटर में जूनियर म्युज़िशियन के रूप में ज्वाइन कर लिया. 

इसकी ख़बर उनके पिता को भी लगी. नौशाद फिर एक बार मुजरिम की भांति हाथ बांधे खड़े हो गए. पिता ने सख्त शब्दों में कहा कि ये नाच-गाना हमारे जीतेजी मुमकिन नहीं, ये सब इस्लाम में हराम है. इस घर में रहना है तो ये सब छोड़ कोई कायदे का काम पकड़ना होगा. 

नौशाद अपने कमरे में चले गए. अब वो कोई कायदे का काम क्या पकड़ते, इसलिए उन्होंने घर ही छोड़ दिया और मुंबई आ गए. यहाँ वो कुछ रोज़ फुटपाथ पर भी सोए, रूखी सूखी खाई, पर हिम्मत नहीं हारे. अब सिनेमा में आवाज़ और संगीत दोनों आ चुके थे. फिर उनको उस्ताद झंडेखान का साथ मिला जो उन दिनों टॉप के संगीतकार हुआ करते थे. 

यहाँ नौशाद को 40 रुपए महीने की तनख्वाह पर रखा गया. फिर उनको खेमचंद मिले, जिन्होंने उन्हें 60 रुपए महीना देना शुरु किया और नौशाद ने उन्हें अपना गुरु मान लिया. 

इस दौरान अपने दोस्त और गीतकार डी-एन मधोक की मेहरबानी से उन्होंने खुद एक ठुमरी कम्पोज़ की “बता दे कोई कौन गली गए श्याम” लेकिन ये फिल्म कभी रिलीज़ न हो पाई. 

फिर 1940 में फिल्म प्रेम नगर आई और इस फिल्म से एक म्यूजिक डायरेक्टर के नाते नौशाद ने अपना कैरियर शुरु किया. ज्ञात हो कि उनकी उम्र उस वक़्त मात्र 21 साल थी. 

ए आर केदार की फिल्म फिल्म शारदा के एक गाने से उन्होंने 13 साल की सुरैया का डेब्यू करवाया. “पंछी जा” नामक इस गाने को एक्ट्रेस महताब पर फिल्माया गया था. 

फिर 1944 में फिल्म रतन का म्यूजिक देने के बाद, नौशाद रातों रात टॉप म्यूजिक डायरेक्टर बन गए. इस फिल्म के बाद उन्होंने 25000 रुपए प्रति फिल्म चार्ज करना शुरु कर दिया. 

ट्रेड कहते हैं कि ए आर केदार ने 75000 रुपए में फिल्म रतन बनाई थी और इस फिल्म के सिर्फ एलपी डिस्क ही पहले साल में 3 लाख रुपए से ज़्यादा का मुनाफ़ा दे गए थे.

इस फिल्म का सुपरहिट गाना था “अँखियाँ मिला के, जिया भरमा के, चले नहीं जाना रे” या ओ जाने वाले बालवा, लौट के आ लौट के आ”

इन दोनों गानों की धुनों को कॉपी कर एक नहीं दर्जनों गाने बने हैं. इस फिल्म के एल्बम में 10 गाने थे.  

इस फिल्म के लिरिक्स भी उनके दोस्त डी-एन मधोक ने लिखे थे. मज़ा देखिए, उसी दौरान नौशाद की शादी तय हुई. पर उनके पिता वाहिद अली को नहीं पता था कि नौशाद असल में काम क्या करते हैं. शादी के दौरान बैंड-बाजा बजा, बैंड वाले ने रतन फिल्म के गाने ही बजाए और नौशाद के पिता और ससुर हैरान होकर पूछ भी बैठे, “ये गाना कौन से सिनेमा से बज रहा है? संगीत तो अच्छा है, पर किसका है?” 

अब घबराए नौशाद कैसे बताते कि ये उन्हीं की फिल्म से, उन्हीं का कम्पोज़ किया गाना है. 

इसके बाद नौशाद ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने 1952 में बैजू बावरा जैसी म्यूजिक हिट फिल्म दी. जिसका हर गाना, हर राग अपने आप में यादगार है.

मोहम्मद रफ़ी को इंट्रोड्यूस करने वाले नौशाद साहब ही रहे. “सुहानी रात ढल चुकी, न जाने तुम कब आओगे” बम्बर हिट गाना था. 

नौशाद साहब बहुत एक्सपेरिमेंटल भी थे, उन्होंने सन 53 में दिलीप कुमार की फिल्म आन के लिए 100 पीस ऑर्केस्ट्रा का इस्तेमाल किया था वहीं फिल्म उड़न खटोला में बिना किसी ऑर्केस्ट्रा के, नेचुरल साउंड्स की मदद से ही सारे गाने कम्पोज़ कर दिए थे. 

दिलीप कुमार की फिल्म गंगा-जमना में उन्होंने लोक गीत भी अपने संगीत में पिरोया था “नैन लड़ जईहें तो मनवा मा कटक हुइबे करी” ये 60 के दशक का बहुत लोकप्रिय गीत था. आज भी लोग इसे सुनते हैं तो गुनगुनाये बगैर नहीं रह पाते. 

कालजयी फिल्म मुगल-ए-आज़म में नौशाद साहब ने उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब के साथ काम किया था. मुग़ल-ए-आज़म के गानों के बारे में अलग से लिखने की ज़रुरत ही नहीं है कि वो कितने हिट थे. “प्रेम जोगन बन के” और “शुभ दिन आयो राज दुलारा” बड़े गुलाम अली द्वारा गाये गए थे.

मदर इंडिया, जिसे ऑस्कर नॉमिनेशन मिला था, वह भी नौशाद साहब द्वारा ही कम्पोज़ थी. 

मोहम्मद रफ़ी से लेकर हरिहरन तक, नौशाद साहब की कम्पोज़ हुई फिल्में 25 सिल्वर जुबली, 12 गोल्डन जुबली और 3 डायमंड जुबली रह चुकी हैं. 

फिल्म ताज महल द इटरनल लव 2005 में आई थी, इस फिल्म में हरिहरन द्वारा गाया “अपनी जुल्फे मेरे शानों पे बिखर जाने दो” खासा मशहूर हुआ था. 

5 मई 2006 को, संगीत को नई उचाईयां देने वाले नौशाद साहब, दादा साहब फाल्के और पद्म भूषण से पुरस्कृत नौशाद साहब, मासूमियत से मुस्कुरा देने वाले नौशाद साहब इस दुनिया को छोड़कर चले गए. 

पर उनका म्यूजिक हमेशा हमेशा के लिए अमर हो गया. 

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