दिलीप कुमार से वो मुलाकात, जब जिंदगी ने एक नई करवट ली By Sulena Majumdar Arora 31 Jan 2020 | एडिट 31 Jan 2020 23:00 IST in ताजा खबर New Update Follow Us शेयर जिन दिनों बॉलीवुड में मैंने कदम रखा था, तब तक सुनहरे दौर के लगभग सारे बड़े एक्टर या तो इस दुनिया से विदा ले चुके थे या रिटायर्ड थे लेकिन कुछ दिग्गज कलाकार ऐसे थे जिनसे मिलकर मेरी चेतना जागृत हुई, उन्ही में से एक हैं दिलीप कुमार। मैं अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना मिथुन चक्रवर्ती की फ़िल्में देख कर बड़ी हुई थी अतः मुझे दिलीप कुमार की फिल्मों का ज्यादा अंदाज़ा नहीं था इसलिए जब अँधेरी ईस्ट के नटराज स्टूडियो से सटे सेठ स्टूडियो (जो हमारे फ़्लैट से कुछ ही दूरी पर था) में दिलीप कुमार स्टारर फ़िल्म 'सौदागर' की शूटिंग कवर करने का निमन्त्रण पीआरओ से मिला तो मैं मन में हजारों कल्पनाओं के साथ वहां पहुँच गयी। एयर कंडीशंड सेठ स्टूडियो के अंदर मेकअप रूम्स थे। वहाँ पहुँचते ही लॉबी में बैठी रिसेप्शनिस्ट से मालूम पड़ा दिलीप कुमार सामने वाले मेकअप रूम में हैं। मैं उनके बाहर आने का इंतज़ार करने लगी। जब सुभाष घई खुद उन्हें शूटिंग के लिए लिवाने आए तो वे बाहर निकले और बिना इधर उधर नज़रें घुमाए सेट की तरफ चलने लगे। मैंने लगभग दौड़ते हुए उनका रास्ता रोका और उनसे इंटरव्यू की गुज़ारिश की, वे ठिठके और ज़रा नाराज़गी के साथ बोले, 'इस तरह रोका नहीं करते, बात करतें हैं आकर' थोड़ी देर में वे मेकअप रूम में लौटे तो मुझे इंतज़ार करते देख उन्होंने भीतर बुला लिया, 'कहो क्या बात है?' मैंने इंटरव्यू की इच्छा दोहराई तो पहले मेरा नाम पूछा फिर 'मजुमदार' सुनकर बोले, ' ' बंगाली?' मैंने 'हाँ' कहा तो उन्होंने मेरा क्लास लेना शुरू किया, ' मेरे बारे में कितना जानती हो?' मैं इस अनपेक्षित प्रश्न से घबरा कर सिर्फ इतना बोल पाई, 'आप लीजेंड दिलीप कुमार हैं मेरे लिए इतना जानना ही काफी है।' इसपर वे बोले,' क्या आप जानती हो मेरा नाम दिलीप कुमार किसने रखा?' 'जी, देविका रानी ने?' 'नहीं, पहले मेरे बारे में अच्छी तरह जान समझ के आओ, होमवर्क सही करोगी तो इंटरव्यू सही होगा, आज तो आप सिर्फ बैठकर ऑब्सर्व कीजिए।' मैं बैठ गई, उनसे मिलने कई लोग, कई निर्देशक आते रहे, कई उम्रदराज़ पत्रकार भी आए, तभी दरवाज़े के बाहर कुछ शोर सा सुनाई दिया, पता चला कि बाहर कोई स्ट्रगलर दिलीप साहब से मिलने की जिद्द कर रहा था। दिलीप कुमार ने उन्हें अंदर आने की इजाजत दे दी, उस स्ट्रगलर ने उनका पांव छूना चाहा तो दिलीप साहब ने उन्हें ऐसा करने से मना करते हुए पूछा, 'आपका नाम क्या है?' अपना नाम प्रदीप बताते हुए वो व्यक्ति अपने स्ट्रगल की दुख भरी कहानी उन्हें सुनाने लगे और उनसे फिल्मों में काम दिलाने की सिफारिश करने की गुजारिश की। कुछ देर मौन रहकर दिलीप साहब ने कहा, 'सिफारिश से क्या होने वाला है?--जो तुम्हारी किस्मत में है वह तुम्हें जरूर मिलेगा--- वक्त का इंतजार करो--- वक्त से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता। बस मेहनत करते रहो। मुझे भी वक्त के साथ ही वह मिला जो मेरी किस्मत में लिखा था और वह नहीं मिला जो मेरी किस्मत में नहीं लिखा था। मैं खेल कूद का शौकीन था--फुटबॉल मेरा प्रिय गेम था, स्कूल और कॉलेज में मेरी दिलचस्पी स्पोर्ट्स में थी, सोचा था स्पोर्ट्समैन बनूंगा-- लेकिन किस्मत को तो कुछ और ही मंजूर था-- मैं तो अपने घर जा रहा था-- लेकिन चर्चगेट स्टेशन में मेरी मुलाकात हो गई हमारे एक परिचित डॉ मसानी से, यूं ही ट्रेन के इंतजार में काम के सिलसिले में बात होने लगी -- उन्होंने बताया कि वे बॉम्बे टॉकीज में काम करतें हैं और मुझे भी उस स्टूडियो के ओनर देविका रानी के पास काम मिल सकता है, जनाब मुझे देविका रानी से मिलवाने मलाड ले गए और मुझे लगा वहां मुझे कोई ऑफिस जॉब मिलेगा, मैंने तो सोचा भी नहीं था कि हीरो बन जाऊंगा और सीधे मेरी मंथली सैलेरी साढ़े बारह सौ महीना हो जाएंगे। यह मेरी किस्मत थी।' प्रदीप मंत्रमुग्ध उनकी बातें सुन रहा था, मैं आश्चर्य में थी कि अभी थोड़ी देर पहले जिन्होंने इंटरव्यू से इसलिए मना किया था कि मैंने होमवर्क नहीं किया, वे एक संघर्षरत कलाकार को अपने जीवन की कहानी सुना रहे थे, फिर दिलीप साहब ने उनसे पुछा 'आप महाराष्ट्रियन हैं?' प्रदीप के हाँ कहने पर दिलीप साहब उनसे अच्छी खासी मराठी में बात करने लगे, मैंने दिलीप साहब से पूछा,'आपको मराठी भाषा आती है?' इसपर वे बोले, 'क्यों नहीं? पढ़ाई लिखाई नासिक में की, बचपन से अब तक महाराष्ट्रा में बिताया, वैसे मुझे बंगाली भी ऐक्टू ऐक्टू आती है।' मैंने पूछा 'कैसे?' तो वे बोले, 'इसीलिए कहा था कि मेरे बारे में होमवर्क करके आना, आपको यह भी नहीं मालूम कि मैंने एक बंगाली फिल्म 'सगीना महतो' में काम किया था ऑफ कोर्स आपकी पैदाइश से पहले ।' तभी लंच ब्रेक हो गया। उन्होंने हम सबको लंच में इन्वाइट किया, मैंने उनसे बहुत कहा कि मेरा घर पास ही है, मैं लंच घर पर ही करुँगी लेकिन वे नहीं माने। मैंने ऑब्सर्व किया कि जहाँ अशोक कुमार, देव आनन्द का लंच एकदम सादा होता था जैसे उबले गाजर, बीट, गोभी, फलियाँ, एक रोटी, दो चम्मच दाल चावल, दही, वहीं दिलीप साहब के लंच में कवाब, बिरयानी, कोरमा और भी बहुत कुछ था, मैंने जब उनसे फिर कहा कि मेरी मम्मी इंतजार कर रही है, वे मेरे साथ ही रोज़ लंच लेती है तो उन्होंने कहा 'अच्छा एक सैंडविच ही ले लो' और उन्होंने बॉय से सैंडविच का सामान मंगवाया और खुद बना कर देते हुए बोले, 'यह इंग्लिश सैंडविच बनाया है मैंने, देखो कैसे बना, एक वक्त था जब मैं ढेरों इंग्लिश सैंडविच बनाया करता था। मुझे खाने और स्पेशल फ़ूड पकाने का बहुत शौक है।' सैंडविच वाकई लाजवाब था। उन्होंने सबके साथ लंच शेयर किया। लंच के बाद संघर्षरत प्रदीप ने दिलीप साहब का बहुत बहुत शुक्रिया अदा करते हुए कहा, 'आपने मेरे अंदर जान डाल दी है साहब। मैं खूब मेहनत करूँगा, लेकिन एक गाइडेंस दे दीजिए कि मुझे फ़िल्म इंडस्ट्री में किस किस के गुड बुक में रहने के लिए क्या क्या करना चाहिए ताकि सब मुझसे खुश हो सके और मुझे ज्यादा काम मिले।' इस पर दिलीप साहब हँस पड़े और बोले, 'मैंने अभी कहा था आपसे कि किस्मत में जितना और जो होगा वो होकर रहेगा चाहे आप जितना भी सबकी खुशामद करें। आप अब भी नहीं समझे तो मैं एक किस्से के ज़रिए यह बात आपको समझाता हूँ। एक बार मौत (यमराज) एक आदमी के घर गया और उससे बोला 'आज का दिन तुम्हारा आखिरी दिन है।' इस पर उस आदमी ने कहा, 'पर मैं तैयार नहीं हूं।' मौत ने कहा, 'मुझे तो तुम्हे लेकर जाना ही है क्योंकि मौत बांटने की लिस्ट में तुम्हारा नाम सबसे ऊपर लिखा है।' वह आदमी कुछ सोच कर बोला 'आपके साथ चलने से पहले मैं आपको एक कप कॉफी पिला कर खातिरदारी करना चाहता हूँ।' मौत कॉफी पीने को राज़ी हो गया। उस आदमी ने चुपके से कॉफी में नींद की दवा मिला दी। जब मौत कॉफी पी कर सो गया तो उस आदमी ने मौत की जेब से वह लिस्ट निकाली और सबसे ऊपर लिखे अपने नाम को मिटा कर अपना नाम लिस्ट के सबसे नीचे लिख दिया। जब मौत की नींद खुली तो वो उस आदमी से बोला, 'तुम्हारी खातिरदारी से मैं बहुत खुश हुआ इसलिए अब मैं लिस्ट में ऊपर लिखे नाम से शुरुआत ना करते हुए सबसे नीचे लिखे नाम से मौत बांटने का काम शुरु करता हूं।' किस्सा तो यहीं खत्म हो जाता है लेकिन आप समझ गए ना, इसलिए मैं कहता हूँ कि सिर्फ मेहनत करते रहो, बाकी किस्मत में जो होगा होकर रहेगा। मेरी पहली फिल्म 'ज्वारभाटा' बहुत बड़े पैमाने पर और बहुत अच्छी बनी थी लेकिन नहीं चली, 1944 से 1947 तक कुछ भी सही नहीं चला, 1948 में फ़िल्म 'जुगनू' आई और इतनी चली की फिर कभी मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।' दिलीप साहब से यह कहानी सुनकर अट्ठारह वर्षीय मैं, उस दिन जैसे अचानक बड़ी हो गयी, जिंदगी ने जैसे एक करवट ली। मैं हैरानी से दिलीप साहब को देखती रह गयी और वो संघर्षरत बन्दा दिलीप साहब के पैरों पर झुक गया। आज जब व्हाट्सऐप पर दिलीप कुमार द्वारा सुनाई गई वर्षो पुरानी कहानी को फिर से सर्कुलेट होते देखती हूँ तो लगता है वक्त ठहर सा गया है। बाद में जब मैंने उनका नाम मोहम्मद युसूफ खान से दिलीप कुमार में बदलने की कहानी की जानकारी ली तो पता चला कि यह नाम उन्हें हिंदी के महान साहित्यकार भगवती चरण वर्मा ने दी थी। और पढ़े: Thappad का ट्रेलर ‘कबीर सिंह’ के डायरेक्टर के मुंह पर तमाचा हैं #bollywood #Dilip Kumar हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Advertisment Latest Stories Read the Next Article