"मौत से किसको रिश्तेदारी है, आज उसकी तो कल हमारी बारी है"

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By Sulena Majumdar Arora
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"मौत से किसको रिश्तेदारी है, आज उसकी तो कल हमारी बारी है"

स्व. क़ादर खान को मायापुरी की  ओर से श्रद्धा सुमन

इकतीस दिसम्बर कहें या पहली जनवरी का नव वर्ष, क़ादर खान जैसे जिंदादिल, कद्दावर एक्टर, लेखक कॉमेडियन के गुज़र जाने के झटके ने पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री के उत्सव पर पर्दा गिरा दिया। एक ऐसा वक्त खत्म हो गया जहाँ  अपने ग़मो में भी हँसने का बहाना कोई ढूंढ ही लेता था। पिछले चालीस पैंतालीस वर्षों से दर्द के सुलगते राखो में झुलस कर जो हंसी उभरी थी वह कादर खान के चुटीले, हास्य रस से भरपूर डायलॉग्स में तब्तील होती रही जिस पर दुनिया दीवानी हो गयी, लेकिन सालों साल तक किसी को यह गुमान भी नहीं था कि सबको हंसाने वाला कादर, दुख दर्द के समुंदर में गोते खाते-खाते इतना पक्का हो चुके थे कि एक वक्त वह आया जब खुशी और गम उनके लिए एक सिक्के के दो पहलू जैसे बन गए थे। हंसते हंसाते कब यह कॉमेडी किंग मौत की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ाने लगे किसी को खबर नहीं लगी। वह कहते हैं ना, 'तुम जो हंसोगे तो हंसेगी यह दुनिया, रोओगे तुम, तो ना रोएगी यह दुनिया' ये कादर ख़ान के लिये सटीक बैठती है, शायद इसलिए वे शरीर की तकलीफों का दर्द किसी से साँझा नहीं करते थे। 2015 में अपने करियर के अंतिम फिल्म, 'हो गया दिमाग का दही' में काम करते हुए जिस बीमारी ने चुपके से उन्हें घेरना शुरू किया था वह प्रोग्रेसिव सुप्रान्यूक्लियर पाल्सी था ये कौन जानता था? पर तबीयत की गिरती रफ्तार के कारण वे कोई काम बिना थकान नहीं कर पाते थे और जैसा कि यह बेदर्द जमाना है जो आसमान में चमकते चांद को भी जरा सी ग्रहण लगने पर टूटा हुआ तारा मान लेते हैं और भुलाने लगते हैं कुछ ऐसा ही कादर खान के साथ भी होने लगा। बीमारी के कारण शूटिंग करने की शक्ति क्षीण होती रही लेकिन कादर साहब, स्क्रिप्ट लिखते रहने की चाहत तब तक रखते रहे जब तक बीमारी ने उन्हें पूरी तरह जकड़ ना लिया और वे चलने फिरने बोलने से भी लाचार हो गए। यह वही कादर खान थे जिन्होंने 400 फिल्मों में अभिनय किया और 250 फिल्मों की स्क्रिप्ट, कहानी, संवाद  लिखी थी, जिन्होंने अपने फ़िल्मी अभिनय से दर्शकों को पहले डराया, फिर हँसाया और आखिर में रुलाया भी। ये वही लेखक, एक्टर थे जो  फिल्मों में आना ही नहीं चाहते थे, वे खुश थे रंगमंच की दुनिया में, खुश थे एमएच साबू सिद्दीक कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में बतौर सिविल इंजीनियरिंग  प्रोफेसर के, वे खुश थे छात्रों को दिन में पढ़ाते हुए और खुश थे रात को जाग कर नाटके  लिखते और नाटकों के रिहर्सल करते हुए। अगर एक दिन उनका एक नाटक 'लोकल ट्रेन' उस जमाने के मशहूर फिल्मकार नरेंद्र बेदी और सुपरस्टार कामिनी कौशल, बतौर जूरी मेंबर देखने ना आए होते और उनका वो नाटक पचासों अवॉर्ड हासिल ना करता तो कादर खान अपनी उसी पुरानी छोटी सी दुनिया में खुश रहते। उनका फिल्मों के प्रति एक अलग धारणा थी, वे कहते थे, 'मैं अपनी मां का पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी बेटा हूं, मां के कहने पर मैंने बड़ी मेहनत से अच्छी तालीम हासिल की, आज खुद मैं भी बच्चों को तालीम दे रहा हूं, तो फिर फिल्म इंडस्ट्री में मेरे जैसे इंसान का क्या काम?' अगर कादर खान की माली हालत अच्छी होती तो शायद फिल्में उन्हें अपनी ओर कभी ना खींच पाती।  लेकिन आखिर पैसों की तंगी ने उन्हें फिल्मों में धकेल ही दिया और जिस कादर  को नहीं मालूम था कि स्क्रिप्ट लिखना क्या होता है, संवाद लिखना क्या होता है, वही कादर आगे चलकर अपने अभूतपूर्व प्रतिभा के चलते फिल्म इंडस्ट्री के बड़े बड़े महान से महान निर्माता-निर्देशक का वो चहेता एक्टर, स्क्रिप्ट, डायलॉग,स्टोरी राइटर बन गए जिनके बिना मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा, के. राघवेंद्र राव, नारायण दसारी राव, के बपैया, रामा नायडू, डेविड धवन फिल्में बनाने की सोच भी नहीं पाते थे। यह वो कलाकार थे जिन्हें हरफनमौला कहा जाता था, जो एक्टिंग में जितने मंजे हुए खिलाड़ी थे उतने ही संवाद लेखन में उस्ताद थे । एक वो दौर उनका इतना व्यस्त दौर था कि वे सुबह शाम रात, काम ही काम करते रहते थे। उन्होंने 1971 में लेकर 2015 तक सारे चोटी के नायक नायिकाओं  के साथ काम किया जैसे दिलीप कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, जितेंद्र, फिरोज खान, अनिल कपूर, गोविंदा, अक्षय कुमार, वहीदा रहमान, शर्मिला टैगोर, राखी, मुमताज़, हेमा मालिनी, रेखा, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित वगैरा सारे टॉप के कलाकार। विलेन के रूप में वे बेहद डरावने किरदारों को बखूब अंजाम देते थे और सुपर हिट थे लेकिन उनके बेटे की अपने दोस्तों से अक्सर लड़ाई मारपीट हो जाती थी क्योंकि बेटे का दोस्त उन्हें विलन का बेटा कहकर चिढ़ाते थे। अपने बेटे की तकलीफ देख कर कादर खान ने विलेन का किरदार निभाना छोड़ दिया और कॉमेडी रोल करने लगे और उसमें भी इतने सुपरहिट हो गए की कॉमेडी किंग कहलाने लगे। उनके लिखे डायलॉग्स और उनके अभिनय का अंदाज ऐसा होता कि सिनेमा हॉल दर्शकों की हंसी से तीन घंटे तक गूंजती रहती थी। कादर खान फर्श से अर्श पर पहुंचकर चमकने लगे, लेकिन इतनी कामयाबी कादर खान को वह सुख और खुशी ना दे पाई जो उनकी अम्मी (इकबाल बेगम) का उनके सर पर हाथ और  आंचल रख देने से उन्हें मिलता था। मां की याद में इस कमेडी किंग की आंखे अक्सर बहने लगती थी। उन्हें इस बात का बेहद दुख था कि काबुल में बेहद गरीबी, मुफलिसी से उनके मां बाप ने दिन बिताए और इन्हीं हालातों में कादर खान के चार भाइयों की मौत भी हो गई और मां ने अपने आखिरी नन्हे बच्चे कादर को गोद में लेकर पति से चिरौरी की कि वहां से निकल कर ऐसी जगह ले चले जहां दो वक्त की रोटी मिल पाए और अपने आखिरी बच्चे की जान वो बचा ले। वालिद अब्दुल रहमान ने बीवी की बात मान ली फिर किस तरह दर दर की ठोकरें खाते हुए अफगानिस्तान, काबुल और काबुल से होते हुए मुंबई आ गए और मुंबई की सबसे भयंकर, बदनाम और गंदी जगह कमाठीपुरा के दड़बे नुमा खोली में रहने लगे। यहां भी उन अजनबियों को कौन पूछता? कौन काम देता? हफ्ते में तीन-तीन दिन घर में फाके होने लगे। ऐसे में गृहस्थी की गाड़ी में दरार आने लगी और वालिद ने हाल छोड़ दिया तो अम्मी बौखला उठी। झगड़े होने लगे और कादर के वालिद ने अपनी बीवी बच्चे को छोड़ दिय। कादर खान के अनुसार यह उनका वह बचपन था जो ठोकरों पर पलने पर मजबूर था। उनके नाना, मामू ने अकेली रह गई युवा अम्मी को फिर से जबर्दस्ती शादी करवा दी ताकि बुरी नजरों से बची रहे और फिर शुरू हुआ कादर खान की एक और बदनसीबी की कहानी। सौतेला पापा निकम्मे निठल्ले तो थे ही मारते पीटते भी थे।  अक्सर कादर को कहीं से भी एक दो रूपये लाने के लिए घर से धक्के मारकर निकाल देते थे, अम्मी रोकती तो उन्हें भी उनके गुस्से का सामना करना पड़ता। एक, दो रुपए भीख मांगने पर मजबूर कादर अपने असली पिता के पास जाकर रोते तो पिता किसी तरह अपने दस रूपये की कमाई में से दो रूपये दे देते थे। उसी पैसों से दो दिनों का खाना बनता था। लेकिन मां तो मां ही होती है, किसी तरह उन्होंने क़ादर को म्युनिसिपलटी स्कूल में मुफ्त शिक्षा दिलाने के लिए डाल दिया। लेकिन ऐसी मुफलिसी की हालत में किसे पढ़ने की इच्छा होती? एक दिन दस वर्ष के नन्हे कादर ने अपनी किताबें पटक दी और दो चार रुपये कमाने के लिये मजदूरी ढूंढने को तैयार हो गए। लेकिन मां नहीं मानी, बोली, 'दो तीन रुपए से अगर घर चलाने की बात है तो मैं किसी तरह बन्दोबस्त कर लूंगी लेकिन जब तक मैं जिंदा हूँ कादर को पढ़ाई करना ही पड़ेगा क्योंकि सिर्फ तालीम ही इंसान को गुरबत से निकाल सकता है, दो चार रुपयों से गुरबत दूर नहीं होती।' उस दिन मां का वह चेहरा, वह आवाज कादर के रोम रोम में समा गया। एक जोश के साथ उन्होंने वो किताबें जो उठाकर सीने से लगा लिया तो म्युनिसिपालिटी स्कूल से होते हुए इस्माईल युसूफ कॉलेज, फिर इंस्टिट्यूशन ऑफ इंजीनियरिंग में बतौर सिविल इंजीनियर मास्टर्स डिप्लोमा (एमआईई) हासिल की और इंजीनियरिंग कॉलेज (एमएच साबू सिद्दीक) में सिविल इंजीनियरिंग प्रोफेसर बन गए। साथ साथ नाटकों में काम करने और नाटक लिखने का शौक )ने उन्हें रंगमंच से फिल्मी आकाश में पहुंचा दिया। पैसे बरसने लगे, गरीबी दूर हो गई लेकिन वक्त हाथ से फिसलता रहा। जिस मां को सुख सुविधा देने के लिए उन्होंने इतनी मेहनत की इतने सपने देखें, वे यह सुख देखने-भोगने के लिए जीवित नहीं रही। इन्ही दुःखो को लेकर कादर खान ने क्या खूब कहा, 'जब कई कई रोटियां खाने की उम्र और भूख थी तब रोटी नहीं मिली थी और जब रोटियों की बौछार होने लगी तो भूक ही मर गई।' सिर्फ भूख ही नहीं बल्कि धीरे-धीरे कादर खान की फिल्म नगरी से भी मोहभंग होने लगा, यहां के स्वार्थी लोगों ने उन्हें वाकई चौंका के रख दिया। तभी तो उन्होंने कहा था, 'लब ए शिकवा को सी लेता हूं, चंद घड़ियां है जो जी लेता हूं, एक बार समझ लेता हूं जिसे दोस्त का हाथ, फिर उन हाथों से जहर भी पी लेता हूं।' उनके सारे पुराने पसंदीदा दोस्त फिल्म मेकर इस दुनिया से कूच करने लगे, तब उन्होंने अपने आप से प्रश्न किया, 'अब मैं किसके लिए काम करूं?' इस प्रश्न ने उन्हें घेरा तो बीमारी ने उन्हें दबोच लिया। बीमारी के इलाज के लिए बेटे बहू के पास कनाडा जाना पड़ा। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री से कहीं न कहीं दिल के जुड़ाव ने उन्हें विदेश जाते जाते एक बार यह कहने मजबूर कर दिया, 'मैं एक दिन ठीक होकर लौटूंगा, मुझे जो प्यार करते हैं उनके लिए लौटूंगा, फिर से काम करूंगा। मैंने 750 फिल्मों में अभिनय और लेखन किया है लेकिन मेरा टारगेट है 1000 फिल्में पूरी करने का और मैं लौट कर बाकी के 250 फिल्में जरूर करूंगा।' लेकिन कादर खान की वो इच्छा पूरी ना हो सकी। उन्हें अपने बेटे बहू के सहारे की बेहद जरूरत थी, तो इसलिये कैनेडियन सिटीजनशिप लेना पड़ा और मृत्यु के बाद उनका अंतिम संस्कार भी वहीं हुआ। मौत को लेकर भी उनका फलसफा उनके दिल का हाल बयां करता रहा, जिसे उन्होंने बड़ी खूबसूरती से एक दृश्य में कहा था, 'मौत से किसको रिश्तेदारी है? आज उसकी तो कल हमारी बारी है।' हंसी से भरपूर डाइलॉग लिखने वाले क़ादर ने अपने बचपन के दिनों के दुःखो और बुढ़ापे में बीमारी के दर्द को कभी नहीं भुलाया, वे कहते रहें, ' सुख तो तवायफ की तरह है, आती है, नखरे दिखाती है,थोड़ी ख़ुशी देती है और हमेशा के लिए चली जाती है। दुख जीवन भर साथ निभाता है। इसलिए सुख को ठोकर मार के दुखों को गले लगा लेना ही समझदारी है।' ऐसे समझदार इंसान को खुदा  ज़न्नत में जगह दें। क़ादर खान की बतौर एक्टर, और स्क्रिप्ट- डाइलॉग राइटर सबसे हिट और पॉपुलर फिल्में है दाग,रोटी, परवरिश, कुली, अमर अकबर एंथनी, मिस्टर नटवरलाल, दो और दो पांच, सत्ते वे सत्ता, अग्निपथ, नसीब, क़ुरबानी, फ़र्ज़ और कानून, मवाली, धर्म अधिकारी,  खुदगर्ज़, खून भरी मांग, जैसी करनी वैसी भरनी, बीवी हो तो ऐसा, मुकद्दर का सिकंदर, दूल्हे राजा, हसीना मान जाएगी, हीरो नंबर वन, बोल राधा बोल, आँखें, मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी, कुली नंबर वन, साजन चले ससुराल, सूर्यवंशम, जुदाई, आंटी नंबर वन,  बड़े मियां छोटे मियां, राजा बाबू, खुद्दार, छोटे सरकार,  घरवाली बाहरवाली, हीरो हिंदुस्तानी, अनाड़ी नंबर वन,  अंखियों से गोली मारे, चलो इश्क लड़ाए,  यह है जलवा,  मुझसे शादी करोगी, मिस्टर एंड मिसेज, खिलाड़ी, सुहाग, याराना, हम, वगैरा। उनकी खुद की शुरू की गयी टीवी सिरीज़ 'हँसना मत' और 'हाय पड़ोसी, कौन है दोषी' भी चर्चित रही।

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