रूही Movie Review: हंसी का विस्फोट और हॉरर का मज़ाक बनाती है ये रूही By Siddharth Arora 'Sahar' 10 Mar 2021 | एडिट 10 Mar 2021 23:00 IST in ताजा खबर New Update Follow Us शेयर रूही रिव्यू: औरत के साथ सबसे बड़ी समस्या है उसका औरतों से ही जलना और उन्हीं से नफ़रत करना। कहते ही हैं, औरत औरत की दुश्मन न होती तो संसार में कोई आदमी किसी औरत को तंग न कर पाता। #MuddockFilms #DineshVijan Productions (Spoiler Alert) कहानी बागड़पुर से शुरु होती है। जहाँ ज़लज़ला____ नामक न्यूज़पेपर चलाते गुनिया भाई (मानव विज) टॉप के बदमाश हैं और दुल्हनों को किडनैप कर उनकी शादी कराते हैं। इन्हीं के अंडर काम कर रहे भंवरा (राजकुमार राव) और कट्टनी (वरुण शर्मा) मस्त मौला हाज़िर जवाबी प्रेस रिपोर्टर (?) हैं। भंवरा जहाँ ग्राउन्ड रिपोर्टिंग करता है वहीं कट्टनी एक हॉरर कॉलम लिखता है, पर उसका सारा इंटरेस्ट एस्ट्रोफिजिक्स (गैलक्सी, ब्लैकहोल व सोलर सिस्टम) में है। ट्विस्ट तब आता है जब इन दोनों को पहली किडनैपिंग के लिए बोला जाता है और वो किडनैपिंग रूही (जान्हवी) की करनी होती है। यहाँ ट्विस्ट टर्न्स और लाफ्टर की फुल डोज़ के साथ, कहानी एक हिल स्टेशन पहुँचती है जहां न नेटवर्क है और न ही कोई फैसिलिटीज़, बस भंवरा -कट्टनी हैं और हैं रूही-अफ़ज़ाना, रूही के अंदर बैठी ही एक चुड़ैल है। यहाँ हॉरर कम कॉमेडी ज़्यादा है। लव ट्राइएंगल है। अंग्रेज़ी शब्दों को ग़लत तरह से बोल हाज़िर जवाबी वन लाइनर्स हैं और अनएक्सपेक्टेड क्लाइमेक्स है। डायरेक्शन जब आर्टिस्ट्स के टैलेंट पर पूरी तरह निर्भर हो जाए तो ख़लता है। हार्दिक मेहता ने शुरुआत अच्छी की, फिर इंटरवल आते-आते एवरेज हुए और इंटरवल के बाद उन्होंने फिल्म बिल्कुल अपनी पकड़ से निकल जाने दी। मृगदीप सिंह लाम्बा (जो प्रोड्यूसर भी हैं) और गौतम मेहरा का स्क्रीनप्ले बहुत लचर था। यहाँ वन लाइनर और पंचेस पर इतना फोकस था कि कहानी कहाँ निकल रही है और निकलकर कहीं पहुँच भी रही है कि नहीं; इससे कोई लेना देना नहीं था। एक्टिंग ही इस फ़िल्म का प्लस पॉइंट है। राजकुमार राव और वरुण शर्मा जहाँ-जहाँ स्क्रीन पर आए हैं, वहाँ सीन ड्राप होने का सवाल ही नहीं बना है। राजकुमार फिर टंग ट्विस्टिंग डायलॉग्स के साथ बहुत हँसाते हैं और वरुण शर्मा अपनी बॉडी लैंग्वेज, बेसिरपैर की कॉमेडी और कॉमिक टाइमिंग से मनोरंजन करते रहते हैं। जान्हवी कपूर से ज़्यादा काम वीएफएक्स और मेकअप ने किया है। उनके हिस्से 2 - 4 डायलॉग्स ही हैं, वुमन सेंट्रिक फिल्म में उन्हें लीड रोल देकर उनके कंधों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी थोप दी गयी है जो उनसे नहीं संभली। मानव विज बहुत जमे हैं। गौतम मेहरा और आदेश भारद्वाज कहाँ किधर हैं ये पता लगने से पहले उनका करैक्टर ख़त्म हो चुका है। बुढ़िया बनी सरिता जोशी का छोटा सा रोल शो स्टॉपर करैक्टर है। उनके और राजकुमार के डायलॉग टाइमिंग से समा बंध जाता है। बाकी टिम बने एलेक्स ओ नील और राजेश जईस के छोटे-छोटे रोल ठीक-ठाक हैं। VFX_CGI ठीक है। किसी फिल्म से तुलना न करो तो अच्छा है। बाकी कोई भी स्पेशल या वर्चुअल इफेक्ट किसी से एक्टिंग नहीं करा सकता। म्यूजिक बहुत कमज़ोर है। सचिन जिगर की जोड़ी इस बार पूरी तरह फेल होती है। अब क्योंकि इस फिल्म को 'स्त्री' वाले मेकर्स की 'रूही' के नाम से ही प्रोमोट किया गया है तो तुलना करनी बनती है। 1. स्त्री में शुरुआत हॉरर से थी और फिर अंत में हॉरर का सही प्रकोप, सही चेहरा पूरी तरह नुमायां हुआ था जिससे ख़ौफ़ बना रहा था। 2. स्त्री में कहानी बहुत सलीके से चली थी, सस्पेंस अंत तक बरकरार रहा था। फिर प्रिक्रेडिट सीन में भी सस्पेंस की गुंजाइश रखी थी। सीक्वल की जगह छोड़ी थी। 3. और सबसे बड़ा फ़र्क़ रहा पंकज त्रिपाठी का क्योंकि विजय राज़ वाला करैक्टर तो सरिता जोशी ने अच्छा संभाल लिया लेकिन पंकज त्रिपाठी की कमी साफ़ ख़ली। तो कोनक्लूज़न ये है कि अगर स्त्री रूही के बाद आती तो कहीं बेहतर फिल्म सीरीज लगती। बाकी एडिटिंग अच्छी हुई है। हुज़ेफा लोखंडवाला ने 2 घण्टे दस मिनट की परफेक्ट कटिंग की है जो फिल्म को अझेल होने से बचा लेती है। सिनेमेटाग्राफी भी बढ़िया है। हालांकि स्त्री में बेहतर थी। अमलेंदु चौधरी ही स्त्री में भी थे, पर यहाँ डायरेक्टर का फ़र्क़ पड़ गया। बात आर्ट डायरेक्टर की भी होनी चाहिए क्योंकि मोबाइल फोन पर टेलीफोन का रिसीवर लगाना बहुत यूनीक आइटम था, केबिन इन द वुड्स का सेट भी ग़जब था। फैक्ट्री में डॉल्स और मैनइक्वीन्स का होना अच्छा माहौल बना रहा था। कुलमिलाकर रूही वन टाइम कॉमेडी फिल्म तो है, पर हॉरर वाली कोई इसमें बात नहीं है। कहानी लचर होने से कैरेक्टर्स के साथ वो जुड़ाव नहीं बन पाता जो स्त्री के जना, 'बिक्की' और बिट्टू से बन गया था। फैक्चुअल एरर्स की बात करूं तो जब जहाँ नेटवर्क नहीं आते हैं वहाँ कॉल कैसे आ गयी? बाकी फिल्म की हर जोड़ी में एक हिन्दू एक मुस्लिम मिलाकर अच्छी सौहार्द स्थापित किया है। कहानी से ज़्यादा फिल्मों में इसी चीज़ की तो ज़रूरत है। बट स्टिल, 1) आप फैमिली या फ्रेंड्स के साथ हैं, 2) आपको वीकेंड में टाइमपास करना है, 3) आपने स्त्री नहीं देखी थी तो ये फिल्म आपके लिए ही है। रेटिंग - 6/10* कुछ मेरे मन की भी ____ हर फिल्म की रीढ़ होती है उसकी कहानी। रीढ़ अगर कमज़ोर है तो कितनी ही एक्सरसाइज़ कर लो, शरीर मजबूत नहीं हो सकता, एक बारगी दिख सकता है, पर हो नहीं सकता। मेरा मानना है कि नारी प्रधान फिल्म में आप जिस सामाजिक बुराई से फिल्म की शुरुआत करते हैं, आपको अंत उसी पर या उसके आसपास के समाधान पर करना चाहिए। रिव्यू अच्छा लगे तो शेयर करें। - #Janhvi Kapoor #Varun Sharma #Roohi #Rajkumar Rao हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Advertisment Latest Stories Read the Next Article