फिल्म की कहानी भाऊ (महेश मांजरेकर) के वॉइस ओवर स्पीच और खेतान नामक इंडस्ट्रियलिस्ट (समीर सोनी) की हत्या से होती है। सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन इशारों में दुबई वाला डॉन (दाऊद इम्ब्राहिम) नाम लिया गया है।
फिर कहानी फ्लैशबैक में जाती है जहाँ अमर्त्य राव (जॉन अब्राहम) बहुत शरीफ सीधा साधा आदमी है। रेलवे ब्रिज पर उसके परिवार की सब्ज़ी की दुकान है जहाँ गायतोंडे (अमोल गुप्ते) नामक लोकल डॉन के गुंडे हफ्ता वसूली के लिए आते हैं और जो उन्हें मना करता है, उसे पीटते हैं।
लेकिन अमर्त्य किसी के बीच में नहीं पड़ता। लेकिन जब बात उसके भाई पर आती है तो वो एक गुंडे का हाथ काट देता है। जेल जाता है तो वहाँ भी सबको मारता है। फिल्म की हिरोइन सीमा (काजल अग्रवाल) मार कुटाई से बहुत ख़ुश होती है। हालांकि पहले चालीस मिनट तक समझ नहीं आता कि वो हीरो की बहन हैं या गर्लफ्रैंड, लेकिन फिर शादी के बाद क्लियर हो जाता है। अगले 10 सालों में अमर्त्य डॉन बन जाता है और खैतान मिल के इकलौते वारिस को मार देता है।
यहाँ, करीब एक घण्टे बाद विजय सावरकर (इमरान हाशमी) की एंट्री होती है जो 10 करोड़ रुपए के लिए अमर्त्य का एनकाउंटर करने के लिए तैयार हो जाता है।
फिल्म के राइटर, डायरेक्टर प्रोड्यूसर यानी सर्वेसर्वा संजय गुप्ता ने आज से दस साल पहले वाला एक्शन और स्टोरी टेलिंग स्टाइल फिर दोहराया है जो सरप्राइज़िंगली अच्छा लगता है।
स्क्रिप्ट कहीं सुस्त नहीं होती, एक के बाद एक टर्न ट्विस्ट्स आते रहते हैं। डायलॉग्स हेवी क्लीशे से हैं पर मज़ेदार लगते हैं,
जैसे - आदमी का कलेजा बड़ा होना चाहिए, मूछें तो बिल्ली की भी बड़ी होती है।
किस्मत गाड़ी के गेयर जैसी होती है, सही समय पर सही लगा लो तो ज़िन्दगी की स्पीड बढ़ जाती है।
फिल्म के एक्शन सीक्वेंस भी अच्छे हैं। पहला एक्शन ज़रूर बेतुका लगता है लेकिन उसके बाद सारे एक्शन सीन एंगेजिंग हैं।
हालांकि जितना दमदार स्क्रीनप्ले है, उतनी बेहतरीन कहानी नहीं है।
एक्टिंग की बात करूं तो जॉन चिल्लाते बिल्कुल नहीं जमते, हां उनका लुक बिल्कुल डॉन वाला लगता है। संजय दत्त के बाद कोई ऑन स्क्रीन डॉन बनता अच्छा लगता है तो वो जॉन हैं।
इमरान हाशमी इंटरवल के बाद आए हैं और छा गए हैं। उनकी डायलॉग डिलीवरी और बॉडी लैंग्वेज, सब कमाल है। वो चिल्लाते भी नेचुरल लगते हैं।
अमोल गुप्ते ज़बरदस्त हैं। उनकी कॉमिक टाइमिंग लाजवाब है। महेश मांजरेकर ने भी बाला साहेब ठाकरे का रोल अच्छा निभाया है।
काजल अग्रवाल भी अच्छी लगी हैं। शाद रंधावा, रोहित रॉय और प्रतीक बब्बर ने भी अपनी जान झोंक दी है। प्रतीक को एक सीन कायदे का मिला है जिसमें उन्होंने मज़ा ला दिया है।
कैमियो रोल में सुनील शेट्टी का लुक बहुत अच्छा है। समीर सोनी भी अच्छे लगे हैं।
गुलशर ग्रोवर सरीखे एक्टर को वेस्ट किया है। उनका कायदे का रोल बनता था।
म्यूजिक के नाम पर एक गाना है 'मचेगा मचेगा शोर' जो वाकई शोर है। उस गाने में ख़ासकर हनी सिंह ने इरिटेट किया है।
सिनेमटाग्राफी बहुत इनेटेरेस्टिंग है। शिखर भटनागर ने ज्यादातर नी शॉट या क्लोज़अप लिए हैं। इन्हें देख साउथ इंडियन फिल्म्स की याद आती है। पर एक्शन के वक़्त कैमरा वर्क अच्छा लगता है।
एडिटिंग में बहुत कांट छाँट हुई है। लॉकडाउन के बाद रिलीज़ की जल्दबाजी साफ दिखती है। एक जगह 8 साल का लैप है, जॉन का भाई बड़ा होकर प्रतीक बब्बर बन जाता है लेकिन महेश का बेटा उतना ही रहता है।
ऐसे ही क्लाइमेक्स में एक चूक है, शाद रंधावा कॉन्फेंस करने की बात करके गायब हो जाता है। आगे उसका कोई सीन नहीं है।
कुलमिलाकर मुम्बई सागा एंटरटेनिंग है, एक्शन है, बड़े बड़े डायलॉग हैं और शोर सा बैकग्राउंड साउंड है। फिर भी वीकेंड में फ्रेंड्स के साथ देखने में कोई हर्ज नहीं है।
हां, परिवार और बुद्धिजीवियों के लायक न फिल्म है न उसकी कहानी है।
रेटिंग -6.5/10*
'>सिद्धार्थ अरोड़ा सहर