भारत में स्पोर्ट्स का मतलब एक लम्बे समय तक सिर्फ क्रिकेट था। आज भी यूँ तो जितनी क्रिकेट की पॉपुलैरिटी है उसकी आधी ऊंचाई पर भी कोई दूसरा स्पोर्ट नहीं है लेकिन, भला हो कबीर खान और शाहरुख खान का जो उन्होंने चक दे इंडिया बनाई और बॉलीवुड को एक से बढ़कर एक स्पोर्ट्स स्टार्स पर (क्रिकेट के इतर) फिल्म बनाने का हौसला मिला।
साइना नेहवाल(परिणीति) की कहानी कॉमनवेल्थ गेम्स में डबल गोल्ड मेडल जीतने से होती है। यहाँ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस है जिसमें साइना जवाब देते-देते फ़्लैश बैक में खो जाती है। वो याद करती हैं कि उनकी माँ उषा रानी (मेघना मलिक) उनके पैदा होने से पहले ही बैडमिंटन चैंपियन बनाने की तैयारी कर रही थीं। फिर साइना सीधे 8-10 साल को हो जाती है और ड्रामेटिक अंदाज़ से लाल बहादुर शास्त्री स्पोर्ट्स अकैडमी में उनका सलेक्शन हो जाता है।
साइना नेहवाल ने क्या जीता है, कहाँ हारी हैं ये तो आप जानते होंगे या आप आसानी से ऑनलाइन देख सकते हैं लेकिन ये कहानी सिर्फ पदकों की जीत तक सीमित नहीं है। ये बायोपिक 'कोई नहीं' से वर्ल्ड बैडमिंटन चैंपियन रैंकिंग वन तक पहुंचने की दास्तान है। कहानी इंटरवल तक बहुत एंगेजिंग है, इंटरवल के बाद ज़रा सी ढीली होती है लेकिन फिर पेस पकड़ लेती है।
डायरेक्शन और स्क्रीनप्ले अमोल गुप्ता के हाथों में रहा है। डायलॉग लिखने में अमितोष नागपाल ने उनका साथ दिया है। सन 2018 से फिल्म स्टार्ट कर फ्लैश बैक देखना पहली नज़र में थोड़ा ख़लता है लेकिन कहानी का पेस, इमोशन्स, ड्रामा और तेज़ रफ़्तार स्क्रीनप्ले दोबारा कुछ और सोचने का मौका नहीं देता। हाँ, इतनी शिकायत ज़रूर है कि साइना का 2015 में हुआ वो मैच दिखाया ही नहीं है जिसमें वो नंबर वन बनीं। फिर भी क्लाइमेक्स मैच बहुत इंटरेस्टिंग बना है।
डायलॉग विटी भी हैं और विचारणीय भी। ख़ासकर मेघना मलिक के डायलॉग बहुत इंटरेस्टिंग है। '12 egg वाइट खायेगी तो पीले वाले का के करना है?'
एक्टिंग के खाते में परिणीति चोपड़ा की एक और फिल्म याद की जायेगी। हालांकि कुछ जगह वो ओवर हुई हैं, फिर भी उनकी मेहनत साफ झलकती है। लुक के मामले में वो कहीं से भी साइना नहीं लगी हैं, हाँ, मेकअप और टोन चेंज करके वो फोर्सफुली वैसी बनने की कोशिश ज़रूर कर रही हैं लेकिन लुक्स को छोड़ करैक्टर को अच्छा पकड़ा है।
मेघना मलिक शो स्टॉपर हैं। यकीन मानिए, अगर तरीके से स्क्रीन टाइम उन्हें मिला होता तो वो दंगल के आमिर खान को टक्कर देती नज़र आतीं।
सुभराज्योति बरत को आपने मिर्जापुर में गुंडई करते देखा होगा, क ख ग घ बुलवाते सुना होगा, लेकिन यहाँ वो बिल्कुल अलग अंदाज़ में नज़र आए हैं।
लव इंटरेस्ट ईशान नक़वी का न ज़्यादा स्क्रीन स्पेस था, न ही उन्होंने इम्प्रेस किया।
मानव कॉल अपने छोटे से रोल में छा गए। हालांकि ये उनके लिए रोज़ मर्रा की बात है। वहीं तीसरे कोच बने अंकुर विकाल कैमियो रोल में नज़र आए, फिर भी उन्होंने पिछली फिल्मों से ज़्यादा एक्टिंग इसमें की है।
म्यूजिक अमाल मलिक का है और अच्छा है। एंगेजिंग है पर स्पोर्ट्स फिल्म के हिसाब से बैकग्राउंड स्कोर बहुत कमज़ोर है।
वहीं गीत 'चल वहीं चलें' बहुत अच्छा है। मनोज मुंतशिर ने जितना अच्छा लिखा है, श्रेया घोषाल ने गाया भी उतना ही सुरीला है।
एंथम सांग मैं परिंदा क्यों बनूँ भी अच्छा है।
दीपा भाटिया ने एडिटिंग बहुत कंजूसी से की है। फिल्म बायोपिक है, जीवन यात्रा है तो ढाई घण्टे की हो सकती थी। बताइए, वो ही मैच नहीं दिखाया जिसके चलते वर्ल्ड नंबर वन बनी थीं।
सिनेमेटोग्राफी में पीयूष शाह ने बहुत दिमाग लगाया है। यूँ बैडमिंटन मैच दिखाना टफ होता, आर्टिस्ट्स को वाकई खेलना पड़ता तो शुरुआती मैच कुछ ऐसे शूट किए हैं कि शटल वाला हाथ फ्रेम से बाहर रहा है। हालांकि क्लाइमेक्स बढ़िया शूट हुआ है।
फिल्म की सबसे ख़ूबसूरत बात ये है कि इसमें स्टार की जीत को ही ग्लोरीफाई नहीं किया है, बल्कि उसकी जीत के लिए जुटे उसके परिवार, उसके कोच उसके दोस्त और उसकी टीम के एफर्ट की भी सराहना की है।
कुलमिलाकर 'साइना', दंगल या भाग मिल्खा भाग तो नहीं है, लेकिन बुरी भी नहीं है। बायोपिक के हिसाब से अमोल गुप्ते ने डिटेल्स में जाने का रिस्क नहीं लिया पर फिल्म बोर भी नहीं होने दी।
फिल्म के हिसाब से मेरी रेटिंग यूँ तो 7 है लेकिन हॉफ पॉइंट एक्स्ट्रा मैं सिर्फ इस बात के लिए देता हूँ कि ऐसे टॉपिक्स पर, ऐसे स्टार्स पर फिल्म्स बननी चाहिए। रेगुलर बननी चाहिए। हमारे 135 करोड़ वाले देश में जहाँ बच्चे आँख बन्द कर बस नौकरियों के पीछे भाग रहे हैं और इंडिया को ओलिंपिक में क्वालीफाई भी नहीं मिलता है, वहाँ ऐसी फिल्में बहुत ज़रूरी हैं।
रेटिंग - 7.5/10*
'>- सिद्धार्थ अरोड़ा सहर