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बचपन से ही फिल्में देखने के शौकीन रहे सिद्धार्थ कुमार तिवारी अपने पिता की इच्छा के विपरीत मुंबई नगरी में कहानी कहने के लिए आए थे. 2007 में उन्होंने 'स्वास्तिक प्रोडक्शंन' की शुरूआत की. सिद्धार्थ कुमार तिवारी ने संस्कृति व कला को संरक्षित करने के महत्व को समझते हुए 'महाभारत', 'शिव शक्ति', 'राधाकृष्ण', 'पोरस', वंशज, अम्बर धारा, माता की चैकी, चन्द्रगुप्त मौर्य, महाकाली-अंत ही आरंभ है, कर्मफल दाता शनि, शंकर जय किशन 3 इन 1, बाल कृष्ण, सूर्यपुत्र कर्ण, बेगुसराय और 'श्रीमद रामायण' जैसे सीरियलों के साथ टीवी इंडस्ट्री में अपनी एक अलग पहचान बनायी. आज की तारीख में "स्वास्तिक प्रोडक्शंस" के कर्ता धर्ता सिद्धार्थ कुमार तिवारी की पहचान धार्मिक, पौराणिक व ऐतिहासिक सीरियल बनाने वाले के रूप में होती है. मगर बहुत कम लेगो को याद होगा कि सिद्धार्थ कुमार तिवारी ने सबसे पहले 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' और 'फुलवा' जैसे सामाजिक व विचारोत्तेजक सफलतम सीरियलों के निर्माण व निर्देशन से शुरूआत की थी.
पेश है सिद्धार्थ कुमार तिवारी से हुई बातचीत के अंश...
आपके पिता जी शिक्षक थे. तो फिर सिनेमा के प्रति आपकी रूचि कैसे बढ़ी?
आपने एकदम सही कहा. मेरे पिता जी प्रोफेसर थे. मेरी परवरिश कलकत्ता में हुई. घर में कला का माहौल ही नही था. पर मुझे बचपन से ही फिल्में देखने का शौक रहा है. पता नही क्यों धीरे धीरे मेरे में यह बात गढ़ करती गयी कि मुझे यही काम करना है. मुझे मुंबई जाकर रचनात्मक काम करते हुए सिनेमा में काम करना है. पर मुंबई में मैं किसी को जानता नही था. सिनेमा कैसे बनता है, यह भी नही जानता था. इसके अलावा जब मैने अपने पिता जी से अपने मन की बात बतायी, तो मेरे पिता जी ने साफ तौर पर मनाकर दिया. उनका कहना था कि वह मध्यम वर्गीय परिवार से हैं और प्रोफेसर यानी कि शिक्षक हैं. तो मुझे भी ऐसा ही कुछ करना चाहिए. उन्होने मुझे सलाह दी कि मैं मेहनत करते हुए इमानदारी से अच्छी पढ़ाई करुं. मैं अपने पिताजी के खिलाफ जा नही सकता था. जबकि मेरे अंदर तो मुंबई आकर कुछ करने की धुन सवार थी. तो कई तरह से हाथ पैर मारते हुए अंततः हम मुंबई पहुँच ही गए. मुंबई में हर इंसान को संघर्ष करना पड़ता है. इससे मैं अछूता नही रहा. मैने मुंबई में दो तीन जगहों पर नौकरी भी की. फिर एक दिन मैने नौकरी छोडकर अपना कुछ करने के लिए 2007 के अंत में अपनी कंपनी 'स्वास्तिक प्रोडक्शन' की शुरूआत की, इसी के साथ जिंदगी ने गति पकड़ी और एक अलग राह खुली. 2007 के बाद से अब तक की मेरी यात्रा बहुत ही खूबसूरत रही है. 2007 से रचनात्मक काम करते हुए कई टीवी सीरियल, दो वेब सीरीज का निर्माण व निर्देशन कर चुका हॅूं.
आप मुंबई में कहानियां कहने के लिए आए थे, पर आप खुद उससे पहले किस तरह की कहानियां पढ़ा करते थे?
मेरी यात्रा काफी रोचक रही है. मैं तो हार्ड कोर फिल्मी दिवाना रहा हॅूं. मेरे घर में वही उत्तरप्रदेश वाले परिवारों की तरह का माहौल था. हम चार भाई हैं और मैं सबसे छोटा हॅूं. तो बदमाश भी था. हमारे खानदान में वैल्यू सिस्टम काफी सशक्त था. लेकिन सच यही है कि मैने कभी नहीं सोचा था कि मैं ऐतिहासिक व पौराणिक विषयों पर सीरियल बनाउंगा. जब 2009 में मैने 'महाभारत' पर काम करना शुरू किया, तो पूरे पांच वर्ष लगे इसे स्क्रीन पर लाने में. तब मुझे अहसास हुआ कि इन पौराणिक कहानियों में कितनी गहराई है, कितने भाव हैं. हर कहानी में शब्द से ज्यादा जो भावार्थ है, उसे समझना और दर्शकों तक पहुँचाने की जरुरत है. तब मुझे अहसास हुआ कि अगर युवा पीढ़ी के तौर पर मैं इन कहानियों को समझ पा रहा हूं, तो मेरे जैसे करोड़ों लोग होंगे, जो इन कहानियों के भावार्थ को समझना चाहते होंगे. यह ख्यााल आते ही मैने 'महाभारत' को बहुत बारीकी से पढ़ना शुरू किया. फिर मेरे सामने एक नई दुनिया ही खुल गयी.
लेकिन आपने शुरूआत सामाजिक विषयों से की थी. आपने सबसे पहले सीरियल "अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो" का निर्माण किया था. उसके बाद 2013 तक आप 'फुलवा' सहित कई सामाजिक सीरियल बनाए. ऐसे सीरियल बनाने का ख्याल कहां से आया था?
मेरी समझ में यह आया था कि टीवी एक बहुत बड़ा व सशक्त माध्यम है. यहां पर हमें कुछ अच्छी बातें कहनी चाहिए. मैं सास बहू मार्का सामाजिक सीरियल बनाना या कहानियां नहीं सुनाना चाहता था. मैं ऐसी कहानी सुनाना चाहता था, जिसके पीछे कोई सोच हो. 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' की कहानी के पीछे सोच व भाव बहुत अच्छा था. हमारा परिवार गांव से आता है. हमने गांव में देखा है कि जब इंसान के पास दो वक्त का खाना नही होता है, तो उनकी क्या हालत होती है. इस पर सोचते हुए मेरे दिमाग में जो ख्याल आया, उसी के चलते मैने सीरियल बनाया- "अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो". इसमें 'बिटिया ही कीजो' के इर्द गिर्द सारा भाव पिरोया हुआ था. उन दिनों 'बिटिया ना कीजो' काफी लोकप्रिय गीत था. क्योकि सारी मुसीबतों के बावजूद जो काम बेटी करती है, वह कोई बेटा नहीं करता. मैं दिल से इस बात पर यकीन करता हॅूं कि लड़कियां जो काम कर सकती हैं, वह काम लड़के नही कर सकते. इसी सोच के साथ मैने 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' की कहानी सुनायी थी, जिसे काफी पसंद किया गया. मेरी समझ से तब तक ऐसी कहानी आयी भी नही थी. मैं यह काम इसलिए करता हूं क्योंकि कहानी सुनाते हुए मैं इंज्वाॅय करता हॅूं. मैं आज भी हर दिन सोलह से अठारह घंटे काम करता हूँ. यह मेरा ऐसा शौक है, जो मेरी जिंदगी बन गया है. फिर हमने 'फुलवा' बनाया. तो इस तरह की कहानियां कहते हुए हम खुद भी सीखते हैं. मेरे इन सीरियलों में बहुत गहराई से एक विचार था, जिनसे मैं सीख रहा था. मैं तो आज भी काम करते हुए सीख रहा हॅूं.
आपके सामाजिक विषयों वाले सीरियल काफी लोकप्रिय हो रहे थे, ऐसे में आप पौराणिक या ऐतिहासिक विषयों वाले सीरियलों की तरफ रुख क्यों किया?
सच यही है कि मैने कभी सोचा ही नहीं था कि मैं 'महाभारत' की कहानी बयां करुंगा. 'महाभारत' की कहानी बयां करने के लिए हजार बार सोचना चाहिए. लेकिन एक दिन 'स्टार प्लस' से विवेक बहल ने मुझे बुलाया और बताया कि उन लोगो को मेरा सीरियल "अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' काफी अच्छा लगता है और इसके किरदार भी अच्छे हैं. वह चाहते थे कि हम इसी तरह से 'महाभारत' के किरदारों पर भी सोंचे. 'महाभारत' का नाम सुनने पर मुझे याद आया कि मैने बचपन में कुछ जगह 'महाभारत' की किताब देखी हैं तो जब मैने 'महाभारत' पढ़ना शुरू किया, तो मैने पढ़ा, शुरूआत में ही लिखा है कि वेद व्यास जी ने गणेश जी को बुलाया और कहा कि वह 'महाभारत' की कथा लिखना शुरू करें गणेश जी ने सोचा कि यह अब मुझे ज्ञान देंगें, तो उन्होने वेद व्यास जी से कहा कि जल्दी जल्दी बोलिएं लेकिन रूकिए नहीं. . आप रुकेंगे, तो हमें जाना पड़ेगा. तब वेद व्यास जी ने कहा कि ठीक है. मैं रुकुंगा नही. पर तुम जो लिखोगे, उसे समझ कर लिखना. इस बात ने मुझे अंदर से हिला दिया. सच कह रहा हूं. 'महाभारत' पढ़ने के बाद मैं इंसान के तौर पर काफी बदल चुका था. मेरी जिंदगी बदल गयी. 'महाभारत में चारों वेद है. विश्व में ऐसी कोई कहानी नही है, जो कि 'महाभारत"में न हो. 'महाभरत 'में ही लिखा है, 'जो कुछ यहां है, वही दूसरी जगह है. जो यहां नहीं वह कही नहीं..." मैं उत्साहित था. पर सोच रहा था कि मैं इन कहानियों को कैसे कह पाउंगा. मैने उसे पढ़ना व समझना शुरू किया.
'महाभारत' को पढ़कर समझने के बाद उसे वर्तमान पीढ़ी समझ सके, इसे अनुकूल बनाने के लिए आपकी अपनी क्या तैयारी रही और आपने क्या क्या पढ़ा?
यही तो मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी. जबकि सभी मुझे सलाह दे रहे थे कि मैं शापित 'महाभारत' पर काम न करुं. 'महाभारत' की किताब को कोई भी अपने घर में नही रखता. महाभारत बनाने का प्रयास करने वाला चैनल भी बंद हो गया. इधर मैं लगातार काम करता जा रहा था, पर समय बढ़ता जा रहा था. मैं स्केच भी बना रहा था. पर समय छह माह से साढ़े तीन वर्ष बीत गए. बारिश के चलते सेट भी बह गया. आप सोच नही सकते वह सब मेरे साथ हुआ. मतलब मेरे साथ बहुत कुछ बुरा हो रहा था. पर मैने सोच लिया कि हमें हार नही माननी है. 'महाभारत' की कहानी को वर्तमान पढ़ी तक पहुँचाना जरुरी था. मैने पुणे के भंडारकर इंस्टिट्यूट से संपर्क साधा. कुछ लोगों को रिसर्च करने के लिए रखा. हमारे देश में हर भाषा में अलग वर्जन का महाभारत है. सवाल था कि किसे एकदम स्वीकृत माना जाए. तब मैने भंडारकर इंस्टीट्यूट के क्रिटिकल संस्करण का सहारा लिया. पर हम दूसरे ग्रंथ भी पढ़ रहे थे. मान लीजिए हमने एक कहानी पढ़ी, तो फिर हमने अलग अलग ग्रंथों में उस कहानी के संदर्भ में क्या उल्लेख है, उसे भी पढ़कर जाना. सब कुछ पढ़ने व जानने के बाद सवाल करता था? इसका मतलब क्या हुआ और आज की तारीख में यह समसामायिक कैसे होगा? जिस धृतराष्ट के पास हजारों हाथियों का बल है, वह कमजोर कैसे हो सकता है? धृतराष्ट् को अंधा क्यों लिखा गया? आखिर 'महाभारत' कहना क्या चाहता है? यह सवाल मुझे उत्साहित करते थे, रात रात भर बैठकर सोचता था, सवालों के जवाब ढूढ़ने के लिए दूसरी किताबें तलाश कर पढ़ता. तब निश्कर्ष निकला था कि अगर पिता अपने बेटे के मोह में पड़ जाए, तो वह पिता धृतराष्ट होता है और बेटा दुर्योधन होता है. यह मेरा अपना इंटरप्रिटेशन था. मैने तीस चालिस लोगों की अपनी एक टीम बनायी. 'महाभारत' का लेखन, निर्माण व निर्देशन मैं ही कर रहा था. यह बहुत विशाल विषय है. तो मैने अपने साथ उन लोगों को जोड़ा, जिनसे मेरी वेब लेंथ मिलती हो. हमें उस दुनिया को भी विज्युअलाइज करना था. हमें इसे इस तरह पेश करना था कि हर इंसान को लगे कि यही हमारी संस्कृति है. यही हमारा इतिहास है और लोगों को उस पर गर्व भी हो. मजेदार बात यह है कि मैं काम करते हुए एन्जॉय कर रहा था. हम सभी ने कलेंडर में भी देखा है कि कुरूक्षेत्र में युद्ध के मैदान में अर्जुन के रथ पर सारथी बने भगवान कृष्ण गीता का उपदेश दे रहे हैं और सभी खड़े हुए सुन रहे हैं. मेरे मन में सवाल उठा कि भगवान कृष्ण इतनी लंबी गीता कह रहे थे और लोग इंतजार कर रहे थे? इस तरह हर कथा पर सवाल उठ रहे थे? भीष्म को इतने बाण क्यों मारे? एक बाण में ही काम खत्म कर सकते थे. मुझे लगता था कि हर कथा को लेकर जो सवाल मेरे दिमाग में आ रहे हैं, तो वही सवाल दर्शक के दिमाग में भी आएंगे? मैने खोज की तो एक जगह लिखा पाया कि भगवान की एक झपकी हजारों साल माना जाता है. तो मैने अपने सीरियल में बताया कि भगवान ने समय को रोककर उपदेश दिया है. भगवान ने यदि अलौकिक विष्णुरूप दिखाया, तो वह सिर्फ अर्जुन को ही क्यों दिखायी दिया? वहां मौजूद बाकी लोगों को क्यों नही दिखायी दिया. इसका जवाब दिया. मैने यह भी दिखाया कि हर किरदार को मारने से पहले भगवान ने उनके वध की वजह बतायी है. मैने इसे अपनी स्टाइल में पेश किया. मैने हर किरदार की कहानी बयां किया. क्योंकि मैं चाहता था कि जब कुरूक्षेत्र के मैदान में हर किरदार खड़ा हो, तो दर्शक को पता हो कि कौन सा किरदार किस तरह का है. 'महाभारत' एक नही कई किरदारों की कहानी है. मैने सीरियल की शूटिंग शुरू होने से पहले पांच वर्ष तक तैयारी की. कलाकारों का चयन करने के बाद उन्हे डेढ़ वर्ष तक हर तरह की ट्रेनिंग दिलाई. संवाद अदायगी करना सिखवाया. शुद्ध हिंदी चाहिए थी.
'महाभारत' पढ़ने व समझने के बाद जब आपने सीरियल बनाना शुरू किया, तब आपके दिमाग में किस संदेश को लोगों तक पहुँचाने की बात थी?
मेरे अंदर हर बात को लेकर एक उत्सुकता थी कि यह बात क्यों लिखी हुइ है और वही मैं दर्शकों तक पहुँचाना चाहता था. 'महाभारत' क्यों लिखी गयी. देखिए, जब इंसान का मनोरंजन होता है, तो वह कहानी सुनने के लिए भाव विभोर हो जाते है. और लोग उस कहानी से कुछ ज्ञान ले लेते हैं. हम किसी को ज्ञान देने जाएंगे, तो कोई भी इंसान ज्ञान नहीं लेना चाहता. 'महाभरत' जब लिखी गयी थी, तब उसमें छोटे छोटे हजारों संदेश दिए गए. उन्हे मैने सीरियल में पेश करने का प्रयास किया. इसलिए हमने भगवान कृष्ण को सूत्रधार बनाया और जो संदेश हम समझ रहे थे, वह कृष्ण के माध्यम से दिलवाया. हमने दिल से इस कहानी को कहा था.
'महाभारत' पढ़ने, उसे समझने और सीरियल बनाने के दौरान या उसके बाद आपकी जिंदगी में क्या बदलाव आए?
'महाभारत' पढ़ने से पहले मैं बहुत अलग इंसान था. मगर इस पर सीरियल बनाने के बाद मेरी सोच, मेरी कार्यशैली सब कुछ बदला. हम अपनी जिंदगी में सारी गलतियों खुद करके नही सीखते हैं. हमें दूसरों की गलतियों से भी सीखना चाहिए. मेरे अंदर करूणा का भाव आ गया. 'महाभारत' ने मुझे सिखाया कि कोई भी इंसान ब्लैक या व्हाइट नही होता. हर इंसान कहीं न कहीं 'ग्रे' है. अगर आप दूसरे के प्वाइंट आफ व्यू को समझोगे तो आपकी अपनी जिंदगी आज से कल ज्यादा बेहतर होगी. मैने जो कुछ समझा, उसे अपनी जिंदगी में उतारता हॅूं. इसके बाद ही मैने तय कि मैं अपने अतीत की कहानियां अपने भविष्य तक पहुँचाउंगा और वही कर रहा हॅूं.
धार्मिक सीरियल हो या ऐतिहासिक सीरियल में सही तथ्य रखने के साथ ही उस माहौल को यथार्थ परक तरीके से उकेरने से लेकर कलाकारों का चयन, उनके कास्ट्यूम आदि पर ध्यान देने के लिए आप की कार्यशैली क्या है?
देखिए, जब मैं 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' जैसी नई कहानी कहता हॅूं, तो इसके किरदारों को लेकर दर्शकों के दिमाग में कोई ईमेज नही है. तो जैसा मैंने बनाया, उसी तरह के किरदार व उसी तरह की दुनिया पर यकीन कर लिया. लेकिन धार्मिक, पौराणिक या ऐतिहासिक किरदारों के कलेंडर नुमा फोटो सभी ने देख रखी है. जब मैं 'राधा कृष्ण' कर रहा हॅूं, तो लोगों के दिमाग में कृष्ण हैं. ऐसे में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम कहानी को किस तरह से अडॉप्ट कर रहे हैं. स्कूल दिनों में हम किताब में जो लिखा होता था, वही उत्तर लिख देते थे, तो हमें पचास प्रतिशत नंबर मिलते थे. शिक्षक कहते थे कि आपने किताब पढ़ने के बाद क्या समझा, यह तो लिखा ही नही. सिर्फ किताब में जो कुछ है, उसे ज्यों का त्यों उतार दिया. तो जिस किरदार पर मैं सीरियल बनाता हूँ, उसे पहले मैं समझता हूं और फिर अपने कंविंशन को मैं अपने कलाकारों को समझाता हूं, तब वह कलाकार उसे परदे पर साकार करता है. इसलिए हम टीम वर्क की तरह काम करते हैं. मैं ऑडिशन, लुक टेस्ट करने के बाद कलाकार से मिलकर उससे सवाल करता हूँ कि आप इस किरदार को क्यों करना चाहते हैं? मेरा मानना हे कि यदि किसी को एक किरदार छह माह तक निभाना है, तो वह तब तक उसे सही ढंग से नही निभा पाएगा, जब तक उसके मन में उसे निभाने का कोई भाव ही न हो. कलाकार का मोटीवेट होना बहुत जरुरी है. मैं अपने कलाकार के अंदर एक ताकत भरता हॅूं, एक माहौल बनाता हॅूं. पूरी टीम को एक साथ लाना अति महत्वपूर्ण होता है.
'महाभारत' बनाने के बाद आप पौराणिक व ऐतिहासिक सेरिअल्स तक ही सीमित होकर रह गए?
जब मुझे 'महाभारत' बनाने का अवसर मिला, उसे बनाया तो मुझे अहसास हुआ कि महाभारत को लेकर कितनी कम जानकारी मुझे थी. जबकि यह कहानियां हमारी युवा पीढी के लिए बहुत ही ज्यादा समसामायिक हैं. इन्हे कहा जाना चाहिए. हमारे अपने देश में इतिहास भरा पड़ा है. हमें मंगल या ज्यूपीटर जाने की जरुरत नही है. हमारे यहां कि संस्कृति इतनी लाजवाब है कि हमें कहीं और जाने की जरुरत नही है. लोग कहते है कि हम तो मॉडर्न है और यह मैथोलॉजि तो आर्थोडेक्स है. पर 'महाभारत' पढ़ने के बाद मुझे अहसास हुआ कि ऐसा नही है. इसमें बहुत कुछ ऐसा है, जो कि वर्तमान पीढ़ी के लिए जानना जरुरी है. इससे उनकी जिंदगी में बदलाव आएगा. उनकी जिंदगी की तमाम समस्याएं अपने आप खत्म हो सकती हैं. मैं अपने सीरियलों में पूरी एक दुनिया रचता हॅूं. 'महाभारत' से राधा कृष्ण की दुनिया अलग है. पौरस की दुनिया तो सबसे अलग है. 'कर्मफल दाता शनि' में शनि की कहानी बिलकुल अलग है. 'श्रीमद रामायण' और 'शिवशक्ति बहुत अलग है. तो पहले मैं कहानी पढ़ता हॅूं, उन्हे समझता हूं, उन पर सवाल जवाब करता हूं, फिर उनके किरदारों को रचता हॅूं. शिवपुराण पढ़कर हमारी सोच में बदलाव आता है. आखिर कैलाश कैसा होगा? वृंदावन कैसा होगा. पौरस के जमाने में संसार किस तरह का था. जब हम यह सब जानने का प्रयास करते हैं, तो हमारी सोच, हमारे विचार बदलते हैं. हमारा इंसान के प्रति व्यवहार बदलता है. अलेक्जेंडर की कहानी बयां करते समय मुझे अलेक्जेंडर की दुनिया, उस वक्त का साम्राज्य भी गढ़ना होता है, इससे हम सीखते चले जा रहे हैं. तो इन सारी चीजों को क्रिएट करना मुझे इतना एक्साइटिंग लगा कि मैं ऐसी ही कहानियां कहता जा रहा हॅूं. सास बहू मार्का कहानियां करने की मेरी ताकत कभी नहीं रही. मैंने 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' या 'फुलवा'जैसे सीरियल जरुर बनाए हैं. लेकिन इन दिनों मैं 'सब टीवी' पर सामाजिक सीरियल "वंशज" लेकर आया हॅूं. इसे काफी पसंद किया जा रहा है. यह मॅार्डन डे' की कहानी है. तो मुझे इतिहास व संस्कृति में रूचि है. मुझे लगा कि आज की पीढ़ी को यह कहानी बतायी जानी चाहिए. वर्तमान पीढ़ी को पता चले कि हमारी जड़े कहाँ है? हम किसी को प्रणाम क्यों करते हैं? हम किसी के पैर क्यों छूते हैं? हमारे पौराणिक और ऐतिहासिक सेरिअल्स में सब कुछ विज्ञान सम्मत संदेश है. बस यही सोचकर जितनी कहानियां कहने का मौका मिल रहा है, वह कहते जा रहा हॅूं.
87 से 90 के बीच रामायण व महाभारत बनी और इन्हें जबरदस्त सफल मिली थी. पर बाद में जब इन पर दूसरों ने सीरियल बनाए, तो सफलता नही मिली. ऐसे में जब आप इन पर सीरियल बनाने जा रहे थे तो रिस्की लगा था या नहीं?
देखिए, रामानंद सागर और बलदेव राज चोपड़ा ने जो काम किया, वह कमाल का था. यह दोनो आइकोनिक है. वह दौर अलग था. उस दौर के लिए जिस तरह से उन्होने बनाया, उसके बारे में तो हम क्या कह सकते हैं. उससे तो हम सभी ने सीखा. उस वक्त जो युवा पीढ़ी थी, उसने तो काफी कुछ इन दोनो सीरियलों से सीखा था. अब लगभग तीस वर्ष से अधिक समय बीत चुका है. दर्शकों की नई पीढ़ी आ गयी है. तकनीक काफी विकसित हो गयी है. 'महाभारत' के बाद मैने सोचा था कि मुझे 'रामायण' बनाने का भी मौका मिल जाए, पर यह काम अब मैं पूरे दस वर्ष बाद कर पा रहा हॅूं. मैने आपको पहले ही बताया कि हम भी चार भाई हैं. मेरे घर में भी यही माहौल रहा है कि बड़ा भाई राम है, वह सभी का ख्याल रखेगा. 'रामायण' तो हमारे देश की संस्कृति है. हम आधुनिक हो गए हैं, पर इसका अर्थ यह नही कि मेरे व मेरे बेटे के बीच रिश्ता बदल गया हो. रिश्ता तो वही है. माता पिता और बच्चे के बीच का रिश्ता वही है, मगर कहीं न कहीं एक्सप्रेस करने के तरीके में जरुर बदलाव आया है. रिश्तों की समझ एक दूसरे के प्रति काफी बदल गयी है. 'रामायण' पर सिनेमा की शुरूआत से कई फिल्में बन चुकी हैं. इसलिए मेरा मानना है कि हर नई पीढ़ी के लिए 'रामायण' व 'महाभारत' की कहानियां कही जानी चाहिए. हर दस साल में 'रामायण' व 'महाभारत' पर फिल्म/सीरियल बननी चाहिए. हमारे यहां हर दस साल बाद एक नया भारत पैदा होता है. नई पीढ़ी को हम अस्सी का सीरियल देखने के लिए नही कह सकते. हमें तो उनकी पसंद नापसंद को ध्यान में रखते हुए उसी कहानी को नए अंदाज व नए इंटरप्रिटेशन के साथ दिखानी होगी. तो जब मैं 'महाभारत' बना रहा था और अब जब मैं 'रामायण' बना रहॅूं तो मुझे रिस्क नहीं लगा, बल्कि मुझे पता था कि मुझे आज की सोच के अनुरूप कहानी सुनानी है. मैने इसी सोच के साथ 'महाभारत' बनाया था, उसे लोगों ने देखा और अब लोग 'श्रीमद रामायण' को भी देख रहे हैं. अगर आप दिल से कुछ काम करो, तो सफलता मिलना तय है. इन कहानियों में गहराई है, जिसे आज की पीढ़ी सुनना चाहती है, पर थोड़ा सा अलग अंदाज में. हमारी संस्कृति यह नही कहती कि सब कुछ उसी तरह से करना होगा. बल्कि संस्कृति कहती है कि आओ और अपनी जिंदगी को जियो. तो इसी सोच के साथ मैं अपनी तरफ से सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास करता हॅूं. फिर जिसे जो सोचना हो सोचता रहे. आज लोग 'रामायण' के सोनी पर और यूट्यूब पर भी देख रहे हैं. हम 'रामायण' को बहुत अच्छे ढंग से बनाया है. हमारा इंटरप्रिटेशन भी युवा पीढ़ी को पसंद आ रहा है तो वह इसे कहीं न कहीं जरुर देखेंगे. मैं रीमेक नही कर रहा हूं, बल्कि 'रामायण' की कहानी को अपने हिसाब से अडॉप्ट कर पेश कर रहा हॅूं. इसीलिए मैने सोचा कि 'दशरथ' का नाम 'दशरथ' क्योंकि है? उनका असली नाम 'नेमी 'था, जब में यह सच बताता हूं तो कहानी में रोचकता आ जाती है. इसी तरह 'दो वचन' को लेकर भी रोचक कहानी है. आखिर उन दो वचनों का इतना महत्व क्यो है? इन वचनों की आज की तारीख में समसामायिकता क्या है. पच्चीस साल पहले दिए गए वचन को पूरा करना महत्व क्यों रखता है? उस वक्त तो कोई लिखा पढ़ी नही हुई थी. आज तो लोग अग्रीमेंट की भी अवहेलना कर देते हैं. इससे यह पता चलता है कि वह दुनिया कैसी थी.
आप लेखक, निर्माता व निर्देशक हैं. इन तीनो जिम्मेदारियों को किस तरह से निभाते हैं. निर्माता तो धन की सोचता है. लेखक व निर्देशक रचनात्मकता की सोचता है. तो किस तरह के टकराव से गुजरते हैं?
मैं हमेशा यह सोचता हूँ कि मैने इसकी शुरूआत क्यों की थी. मुझे कहानियां कहनी है. मेरी पहली सोच यही रहती है कि हम इस कहानी को सही कह रहे हैं? उसके बाद आता है किस तरह से कहना है. उसके बाद आता है निर्माता वाला एंगल है. बजट और किस जगह कर रहे हैं. पर यह ध्यान रखता हॅूं कि बजट वगैरह की सोच के चलते मेरी कहानी के कहने में कोई मिलावट न आने पाए. तो मैने सोचा कि हर बार मैं किराए पर जगह लेकर शूटिंग करता हॅूं. अचानक समय के अनुसार जगह वाले का व्यवहार बदल जाता है. एक दिन मैने सोचा कि अगर जगह मेरी होगी, तो कहानी कहने में कोई समस्या नही होगी. इसी सोच के वलते मैने उमरगांव में 25 एकड़ जमीन लेकर 'स्वास्तिक भूमि' नामक स्टूडियो बनाया है. यह सबसे बड़ा स्टूडियो है. जहां सत्रह फ्लोर है, जिन पर हम सीरियल के सेट खड़ा करते हैं. मसलन- 'श्रीमद रामायण' का सेट वहीं पर लगा हुआ है. हमने अयोध्या बसा रखी है. 'इसके अलावा राधा कृष्ण' और 'वंशज' भी वहीं फिल्माए जा रहे हैं. सभी कलाकार वहीं रहते हैं. इसके अलावा लगभग ढाई हजार लोग वहां पर रहते हैं. पूरा इंफ्रास्ट्क्चार हमने बनाया है, जो कि धीरे-धीरे विकसित होता जा रहा है. हम इसे इस तरह विकसित कर रहे हैं कि निर्माता निर्देशक अपनी युनिट व स्क्रिप्ट लेकर पहुँचे और पूरा प्रोडक्ट बनाकर वहां से निकले. हम दूसरो को भी वहां पर काम करने का मौका दे रहे हैं. मसलन-फिल्म 'रामसेतु' का सेट वहीं पर लगा था. हमारी 'स्वास्तिक भूमि' पर कई फिल्में व सीरियल फिल्माए जा चुके हैं. यदि हमें हाथी, घोड़े रथ आदि के साथ विशाल स्तर पर शूटिंग करनी है, तो उसके लिए बड़ी जगह चाहिए थी, जो कि हमारे पास 'स्वास्तिक भूमि' में है. मेरे लिए आवश्यक यही है कि मैं कहानी कहने में कहीं भी मिलावट न आने दॅूं.
"स्वास्तिक प्रोडक्शन" की शुरूआत 2007 में हुई थी. आज हम 2024 में बैठे हैं. तब से अब तक की स्वास्तिक प्रोडक्शन की यात्रा को किस तरह से देखते हैं?
हमारी यात्रा काफी अच्छी रही. हमने अपना आफिस बनाया, जहां हमारा खुद का पोस्ट प्रोडक्शन करने की क्षमता है. हमारा अपना स्टूडियो है. हम अपनी कहानियां के साथ ही दूसरे के कंटेंट को भी पूरे विश्व भर में वितरित करते हैं. हमारे पास कई कहानियों के काॅसेप्च्युअल राइट्स हैं. हम पूरे विश्व के बाजार में जाकर भारत की कहानियां फैलाते हैं. हम कंटेंट का सिंडीकेशन भी कर रहे हैं. हमने अपना डिजिटल प्लेटफार्म 'स्वास्तिक प्रोडक्शन इंडिया' भी दो साल पहले शुरूश्किया है. अब हम सीधे ग्राहक तक पहुँच रहे हैं. हम कुछ कहानियां ऐसी बनाने जा रहे हैं, जिन्हे हम सीधे अपने डिजिटल प्लेटफार्म पर ही डालेंगें. इन सत्रह वर्षों में हमारे साथ काफी लोग जुड़े हैं. तो स्वास्तिक का एक दूसरे से गहराई के साथ जुड़ा हुआ एक बहुत बड़ा परिवार है.
पंद्रह वर्षों में आप टीवी इंडस्ट्री में किस तरह के बदलाव देख रहे हैं?
बहुत बदलाव आ गया है. तकनीक के चलते पूरी दुनिया बदल गयी है. पहले हम सिर्फ टीवी ही कर रहे थे. लेकिन तकनीक ऐसी बदली कि अब यह जरुरी नही रह गया कि दर्शक को अपना पसंदीदा कार्यक्रम रात नौ बजे ही देखना पड़ेगा, वह अब किसी भी वक्त देख सकता है. अब तो यूट्यूब बहुत बड़ा प्लेटफार्म हो गया है. अब मोबाइल के चलते जरुरी नही कि एक कार्यक्रम पूरा परिवार एक साथ बैठकर देख रहा हो, बल्कि वह अलग अलग अपने मोबाइल पर एक ही वक्त में एक ही कार्यक्रम को देख सकता है. तो अब ग्राहक की तरफ से कंजम्शन और एक्सपोजर दोनो बढ़ा है. पूरे विश्व से एक्सपोजर है. तो बहुत सारे अवसर हैं. जरुरी यह है कि आप अपने दर्शक से जो कहानी कह रहे हो, उसमें गुणवत्ता होनी चाहिए.
ओटीटी के आने से टीवी को नुकसान हो रहा है?
टीवी पर कार्यक्रम देखने की पद्धति यह है कि 'शिवशक्ति' देखना है, तो साढ़े आठ बजे ही देख सकते हैं. पर तकनीक ऐसी आ गयी है कि दर्शक जब चाहे, तब वह शिवशक्ति देख सकते हैं. तो टीवी के दर्शक टीवी से हटकर डिजिटल पर देख रहे हैं. ओटीटी पर भी देख रहे हैं. इससे टीवी के बिजनेस मॉडर्न को जरुर नुकसान हुआ है. लोगों ने कहानी देखना बंद नही किया है, पर किस तरह से किस मीडियम पर देखेंगे, वह बदलाव है.
आपने भी ओटीटी के लिए कुछ बनाया है?
हमने ओटीटी के लिए 'स्केप लाइफ' नामक सीरीज का लेखन व निर्देशन किया है. एक कहानी में छह कहानी कही. अच्छा अनुभव रहा. हर मीडियम पर कहानी कहने का तरीका अलग होता है.
आप तो बचपन से फिल्में देखने के शौकीन रहे हैं, तो फिल्मों से दूरी क्यों?
बस बहुत जल्द यह दूरी खत्म होने वाली है. एक फिल्म की तैयारी लगभग पूरी हो गयी है.
स्वास्तिक प्रोडक्शन के अगले प्रोजेक्ट क्या हैं?
हम डिजिटल पर कुछ ज्यादा ही फोकश कर रहे हैं. इन दिनों स्वास्तिक अपने मौलिक कार्यक्रमों को यूट्यूब व फेशबुक अदि की तरफ बढ़ा रहा है. हम भारत के स्प्रियच्युअल युनिवर्स पर भी काम कर रहे हैं. हम डिजिटल पर मंत्र का मतलब भी समझाने वाले हैं. हम मंदिरों की कहानियां भी बताने वाले हैं. हम टीवी पर नही कह सकते, वह हम डिजिटल पर कहने जा रहे हैं. फिल्म पर काम चल ही रहा है. हमने 'शिवशक्ति' के साथ ही 'लक्ष्मी नारायण' की शुरूआत की. 'लक्ष्मी नारायण' में यदि शिव आते हैं तो वह 'शिवशक्ति वाले ही शिव आते हैं. हम टीवी, ओटीटी, डिजिटल, संगीत, पॉडकास्ट हर तरफ बढ़ रहे हैं.
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