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भारत का दिल और आत्मा कहे जाने वाले खूबसूरत राजधानी दिल्ली में स्थित मायापुरी क्षेत्र और यहां से प्रकाशित होने वाली दो शानदार प्रसिध्द पत्रिकाएं, मायापुरी तथा बच्चों की सबसे प्यारी पत्रिका मोटू पतलू फेम, लोटपोट, दुनिया भर में प्रसिद्ध है। लेकिन इस शहर को और इन पत्रिकाओं को विश्व स्तर पर चमकाने के पीछे कौन है, यह जानने के लिए आपको खंगालना पड़ेगा, इतिहास के वो पन्ने जो खून पसीने और अथक मेहनत की एक मिसाल बनकर, अपने आप में एक इतिहास बन गई है। ये अद्भुत, अतुलनीय कहानी एक ऐसे शख्स की कहानी है
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जिन्होने एक जर्रे की तरह जमीन से अपना सफर शुरू किया और वक्त के साथ सूरज बनकर आसमान में चमक उठे ।
वे पब्लिकेशन जगत के मुगल और प्रकाशन के मसीहा थे, श्री ए. पी बजाज, जिन्होंने मायापुरी और लोटपोट को विश्व मैप पर एक मार्कर बना कर। उन्होंने अपना खिताब खुद हासिल किया, उन्होने अपनी एक हस्ती खुद बनाई, और एक ऐसी ऊंचाई पर विराजमान हुए जहाँ पहुचने के लिए न जाने कितने जन्म भी कम पड़ जाते है। (AP Bajaj legacy in Mayapuri magazine publishing)
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आज 24 नवंबर, उस महान हस्ती की पुण्यतिथि है। इस पुण्य तिथि में उनके सुपुत्र श्री प्रमोद कुमार बजाज और उनके पोते श्री अमन कुमार बजाज, तथा संपूर्ण मायापुरी परिवार, हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी अपने कर्म स्थल A-5 मायापुरी, दिल्ली में एक दिव्य भोज प्रसाद का आयोजन किया हैं, जहां स्वर्गीय श्री ए. पी. बजाज जी के सभी चाहने वाले, एक छत के नीचे इकट्ठा हो कर, उनके स्मरण में, दिव्य भोज प्रसाद का आनंद ले रहें हैं। सभी के दिल में उस कर्मठ पुण्य आत्मा की यादें बसी हुई है। सभी के दिल में एक आकांक्षा है कि एक बार फिर से, श्री ए. पी बजाज, किसी भी रूप में, किसी भी रंग में, वापस आकर सबके जीवन को फिर से संवार दे तो सभी धन्य हो जाएंगे।
तो आइए आज हम अपनी नई पीढ़ी को श्री ए. पी. बजाज जी के जीवन कथा से वाकिफ करवाएं ताकि आज की पीढ़ी भी उनसे प्रेरित हों।
यह है श्री ए. पी बजाज जी की कहानी, उस इंसान की कहानी है , जिनका जन्म कलम कागज और प्रिंटिंग मशीन के माहौल में हुआ था और अपनी आखिरी सांस तक वे कागज, स्याही और प्रेस की चार दीवारी में दीवानगी के साथ उलझे रहे । वे समय से बहुत आगे की सोचते थे , वे आज की नहीं बल्कि बीस साल बाद की दुनिया को सपनों में बुनते थे। उस जमाने में जब कंप्यूटर, मोबाइल और आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस का नामोंनिशा नहीं था, तब उन्होने कंप्यूटर, ग्राफिक्स, अनिमेशन और आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस की कल्पना करते हुए कुछ सपने देखने की जुर्रत की थी और उन सपनों को साकार करने के लिए एक मजबूत बुनियाद का आगाज़ किया था जो आगे चलकर एक रेविव्यूलेशन में बदल गया।
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प्रेस के प्रति प्यार और जुनून उन्हे अपने पिता से स्वाभाविक रूप से मिली थी। अठारह सौ बयासी का वो एतिहासिक वर्ष जब ए पी बजाज जी के पिताजी श्री सोहन लाल बजाज ने लाहौर के अनारकाली बाज़ार में, अपना खुद का एक प्रिंटिंग प्रेस, अरोड़ बंस प्रेस के नाम से स्थापित की थी। ऐसा कह सकते हैं कि प्रेस के रूप में उन्होने एक नन्हा सा वृक्ष का रोपण किया था जो कालांतर में एक विशाल वट वृक्ष बनकर फैल गया, लेकिन दर्द की बात यह है कि वो जगह, वो ज़मीन, वो जड़ें जो अनारकली बाजार में उनकी खून पसीने की विरासत थी, वो आज हिंदुस्तान में नहीं है, वो पाकिस्तान में है। यह नियति का अफसोसजनक खेल नहीं तो और क्या है?
सोहन लाल बजाज के तीन बेटे थे, आनंद प्रकाश बजाज, हरकिशन लाल बजाज, चमन लाल बजाज, बनवारी लाल बजाज और दो बहने भी थी, रानी कुमार पवन कुमार। आज हम आपको आनंद प्रकाश बजाज के जीवन की कहानी सुना रहें हैं। (AP Bajaj contributions to Indian children’s magazines)
बचपन से ही जिनकी बुद्धि और प्रताप की तेज में आनंद भी था और प्रकाश भी था।
पन्द्रह साल की कच्ची उम्र में भी ए पी बजाज एक कुशाग्र बुद्धि और कुछ कर गुजरने का जज्बा रखने वाले बच्चे थे। वे दूसरे आम बच्चों की तरह बेपरवाह, मौज मस्ती या खेल कूद में रमा हुआ किशोर नहीं थे । यह वो वक्त था जब फिजिकल गेम्स ज्यादा हुआ करता था। यह वो जमाना था जब भारत में सभी अमन चैन से जीते थे। कोई पाकिस्तान नहीं बना था। सब भारतीय थे। वो पुराना एतिहासिक समाज, जब हर दिशा में खेत खलिहान थे, इस पार से उस पार तक खुला आसमान था, सितारों से भरी रातें थी। गर्मी की रात में सभी मंजी बिछाकर खुले आसमान के नीचे बातें करते हुए सो जाते थे, न कोई हिंदू था, ना कोई मुसलमान था, हर शख्स में सिर्फ एक इंसान था। ऐसे माहौल में पले बढ़े ए पी बजाज उस छोटी सी उम्र में स्कूल से आते ही अन्य आम बच्चों की तरह खेलने नहीं निकल जाते थे, बल्कि अपने पापा के प्रेस में जाकर प्रेस के हर काम को बारीकी से देखते और सीखते थे । वो बच्चा प्रिंटिंग प्रेस में रोज आकारअपने पिता को उनकी कुर्सी पर बैठे देखता तो गर्व से उसका सीना तन जाता था। हालांकि उसे समझ नहीं आती थी कि यह प्रेस क्या है, इसे कैसे चलाया जाता है, मगर फिर भी वह प्रिंटिंग प्रेस के एक एक कल पुर्जों को अंदर तक गहराई से देखते सीखते और इस तरह धीरे धीरे वो टेक्निकली सब जानने, समझने लगे थे ।
सब कुछ अच्छा चल रहा था, लेकिन एक दिन वो हो गया जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। ए पी बजाज के पिता का अल्पायु में ही निधन हो गया। परिवार में सब कुछ डांवाडोल होने लगा। ऐसे मातम के दिनों में एक दिन नन्हे ए पी बजाज बजाज अपने पिता के प्रेस में चले गए। वहां यह देखकर उनके दिल में दुख और हलचल का तूफान खौलने लगा कि जिस कुर्सी पर पापा बैठते थे, उस कुर्सी पर उनके ताया लाला शिवदास, बैठे प्रेस चला रहे थे। ताया भी किताबें निकालते थे, कॉलेज के गेस पेपर छापते थे ।
लेकिन नन्हे से ए पी बजाज को पापा की कुर्सी पर ताया जी को देखना कतई अच्छा नहीं लगा । पापा की सीट पर ताया को बैठे देख वो चौंक गए । बच्चे के मन सच्चे होते हैं, उन्होंने स्पष्ट अपने ताया से पूछा, " आप यहाँ कैसे बैठ गए? ये मेरे पिताजी की सीट है।" ताया बोले, "बेटा वो मेरे भाई थे, वे अब नहीं रहे तो अब इस पूरी प्रेस को मैं चलाऊंगा। इस मामले में मुझे कोई दखलंदाजी नहीं चाहिए।" लेकिन पंद्रह साल का वो छोटा सा लड़का अड़ गया कि नहीं यह मेरे पिता जी की प्रेस है, इसको तो मैं ही चलाऊंगा।
इस बात पर सारी फैमली इकट्ठी हो गई कि पंद्रह साल का यह छोटा सा लड़का विधवा मां और भाई बहनों को कैसे गुजारा देगा। इतना बड़ा प्रेस जहां डेढ़ सौ आदमी काम करते है, उसे कैसे चलाएगा? पूरे कुटुंब ने खूब समझाया बच्चे को लेकिन वह तो अड़ गया। अर्थात ए पी बजाज अड़ गए कि यह मेरे पिता जी का प्रेस हैं, यहां मैं अपना काम खुद करूंगा, मैं इसको चलाऊंगा और बकायदा जरूर चलाकर दिखाऊंगा।"
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बच्चे की यह एक मासूम जिद थी, बच्चे की सोच थी, इसलिए किसी को उसपर विश्वास नहीं हो रहा था। उधर पापा की प्रेस चल तो रही थी लेकिन वो बैंक लोन से पूरी तरह से दबी हुई थी।
मगर बच्चे ने अपनी कुशाग्र बुद्धि लगाना शुरू किया। चौबीस घंटे वो यही सोचता रहता था कि बैंक लोन कैसे चुकाया जाय। धीरे धीरे उसका दिमाग चलने लगा। कुछ आइडियाज़ आने लगे।
उन दिनों पेपर के कागज़, विदेश से मंगाया जाता था। कंटेनर के कंटेनर कागज़ जहाज से आते थे।
तो बच्चे ने ये सोच लिया कि इस कर्ज को कैसे उतारा जाय। उन्होंने जितना भी कंटेनर था वो बैंक में गिरवी रखी और बैंक को कहा कि जब जब मुझे कागज़ चाहिए होगा मैं एक कंटेनर आपसे ले लूंगा और आपको उतने पैसे जमा कर दूँगा।
क्योंकि वह कलेंडर छापते थे ग्राफ छापते थे, और ग्राफ उन दिनों बहुत चला करता था, और फिर उनकी इतनी बड़ी बिल्डिंग थी और उनके पिता जी और उनके दादा का वहां बहुत नाम था इसलिए बैंक वाले मान गए।
देखते देखते साल उन्नीस सौ बयालीस आ गया, वर्ल्ड वार का साल।
हर तरफ बहुत मुश्किल का आलम छा गया। लोगों को खाने के लाले पड़ने लगे , आटा दाल दलिया तक की मुश्किल होने शुरू हो गए।
इस आपाधापी में विदेश से पेपर के लिए आने वाला कागज बंद हो गया। पेपर की भारी शॉर्टेज हो गई। तब उस बच्चे ने अपना दिमाग इस्तेमाल किया और उसने जो पेपर कंटेनर अपने बैंक में रखे हुए थे वो सारे उस समय महंगे दाम में बेच दिया, जिससे उसका सारा बैंक का कर्ज खत्म हो गया। ऊपर से थोड़ा प्राफिट भी बन गया। काम इस तरह चला कि वो बालिग होता हुआ किशोर देखते ही देखते एक कामयाब बिज़नेस चलाने लगे।
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वो अब बड़ा होने लगा था। बचपन पीछे छूटा तो जवानी आ गई। वो अपने प्रिंटिंग प्रेस में इतना उलझा कि दीन दुनिया भूल गया और अपने पापा के प्रिंटिंग प्रेस को अपनी हिम्मत, मेहनत और लगन से सींच सींच कर उस मुकाम पर ले गया कि उसके ताया जी ही क्या , उनके पूरे परिवार को उन पर गर्व होने लगा।
उम्र के हिसाब से हर काम जरूरी होता है।
लड़का जवान हो चुका था। घर वालों ने कहा, अब इसकी शादी करते हैं। मगर ये शख्स तो किसी और मिट्टी का बना हुआ था।
उसे तो अर्जुन की तरह सिर्फ एक लक्ष्य नज़र आ रहा था। उसे अपना भविष्य, अपने खानदान का भविष्य उज्ज्वल बनाना था। लेकिन खैर, बड़ी बामुश्किल किसी तरीके से वे शादी के लिए राजी हुए कि ठीक है, चलिए शादी कर लेते हैं। लेकिन आप हैरान होंगे कि जिस दिन उनकी शादी थी उस दिन भी अनारकली बाजार में किसी को कानो कान खबर नहीं थी कि इस घर में शादी है। सादे कपड़ों में ए पी बजाज ने , चार बजे तक, अपने प्रेस में पूरा जोर लगा के काम किया और फिर शाम को शादी करने की तैयारी की । शाम को उनके दोस्त यारों और प्रेस में काम करने वाले लड़कों ने मिलकर उनकी गली में झंडियां लगा कर डेकोरेशन की । उस जमाने में कागज की झंडी हुआ करती थी।
बारात रवाना हुआ , सब लोग आनंद मस्ती करने लगे। कज़न्स सारे नाचने लगे। थालियां बजाकर दोस्त यार अपने तरीके से धूम मचा रहे थे क्योंकि बैंड वालों को बुलाने का भी वक्त नहीं था। जब वे शादी करके डोली में दुल्हन को घर ले आए तो अगले दिन ही सुबह सुबह फिर काम में लग गए।
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धीरे, धीरे, वे कामयाबी की सीढ़ी चढ़ने लगे और उन्होने एक तांगा गाड़ी खरीदा, उस जमाने में तांगा खरीदना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी जो रईसी की निशानी थी। जब वो उस तांगे में बैठकर, भरपूर टशन के साथ, शाम को अनारकली बाजार में पान खाने निकलते तो वे जहां जहां से वे गुजरते, सभी लोग खड़े होकर उनको सलाम करते थे।
उनके बेटे प्रमोद बजाज, उस समय एकदम नवजात शिशु थे , यानी चालीस दिन के भी नहीं हुए थे कि ए पी बजाज जी ने एक दिन अपनी पत्नी से कहा , "चलो वैष्णो देवी चलते हैं", जो लाहौर से नजदीक था। ए पी बजाज, अपनी पत्नी और चालीस दिन के बेटे प्रमोद बजाज को लेकर अपनी नई गाड़ी में वैष्णो देवी के लिए निकल पड़े। साथ में और कोई नहीं था।
सोचिए हौसला कितना बड़ा था। पहाड़ चढ़ते चढ़ते अचानक गाड़ी का एक्सल टूट गया। नई नई गाड़ी थी, उन दिनों उनको पहाड़ों पर वाहन चलाने का तो कोई तजुर्बा नहीं था। अब क्या करें? तांगे का एक्सल टूट गया और फिर किसी तरह धक्के मार मार कर उन्होने धर्मशाला तक गाड़ी पहुंचाई।
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फिर वे ढूंढ ढांढ़ कर एक लोहार के पास गए और अपना टूटा हुआ एक्सल खुद ही अपने हाथों से ठीक किया। तब से उनको यह आदत हो गई कि कोई भी काम जो करना है, अपने हाथों से खुद ठीक कर लेना है। उनका मानना था कि अगर किसी मशीन का कोई पार्ट खराब हो जाए तो उसको चेंज करके नया लेना जरूरी नहीं है। अगर हो सके तो कोशिश करके उसी पार्ट को ठीक करके दोबारा लगाना चाहिए। वे कहते थे कि अगर कोई चीज़ ठीक हो सकती है, इस्तेमाल हो सकती है तो उसको अंत तक इस्तेमाल करना अच्छा है। बजाज जी की यह सोच और यह हुनर, बाद में जब वे लाहौर में हिंदुस्तान शिफ्ट हुए और जब उन्होंने मायापुरी और लोट पोट जैसी सुपर हिट मैगज़ीन्स प्रकाशित करना शुरू किया, तब उनके यह तजुर्बे, यह हुनर और उनका वो जनून बहुत काम आया, क्योंकि हर चीज को उभार कर सामने लाना उनका एक जज्बा था, हर चीज को एक पहचान बनाना उनका हुनर था।
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उनकी जिंदगी बहुत अच्छी तरह कट रही थी। पंद्रह साल की उम्र में प्रेस संभालने से लेकर हिंदुस्तान की आजादी तक, उस इंसान ने पब्लिकेशन पर अपना एकाधिकार बना लिया था। अरोड़ वंस प्रेस एक नाम बन चुका था। एक ब्रैंड बन चुका था ,अब गाड़ी धीरे धीरे पटरी पर आने लगी, सब काम ठीक से चलने लग पड़ा। लेकिन कहते हैं न कि ईश्वर किसी किसी को ही कठिन परीक्षा के लिए चुनते हैं। ए पी बजाज, ऊपर वाले द्वारा वही chosen इंसान थे।
अभी ए पी बजाज के अच्छे दिन शुरू ही हुए थे, मगर जब देश का बंटवारा हुआ तो दुनिया की हर चीज तबाही के रास्ते पर चली गई। करोड़पति लोग रइसी के आसमान से जमीन पर आ गिरे और जो सड़क छाप लोग थे, वे लूट पाट कर के करोड़पति बन गए।
वो साल था उन्नीस सौ उनतालीस के आसपास की बात है, जब देश से अंग्रेजों को निकालने का जुनून, भारत वासियों के अंदर खौलने लगा था, और वाकई अंग्रेजों को भारत छोड़ कर जाना ही पड़ा लेकिन उन लोगों ने जाते जाते एक बहुत बड़ा तूफान खड़ा कर दिया । वो लोग ऐसा काम कर गए जिसका किसी को गुमान तक नहीं था। वो हिन्दू और मुसलमानों में फूट डाल गए कि तुम अलग अलग हो, अलग ही रहो। और तब धर्म के नाम पर देश का बंटवारा हो गया। दो देश बने और फिर देश का प्रधानमंत्री बनने का वो जुनून, दोनों देशों के लाखों लोगों का कत्लेआम का सबूत बन गया।
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ऐसे खतरनाक समय में ए पी बजाज के पूरे खानदान के लोग मसूरी में आकर बस गए, और उनको भी सभी ने आगाह किया कि बेहतर यही है कि वो भी अपने परिवार के साथ मसूरी शिफ्ट हो जाए। मगर ए पी बजाज और उनकी नानी जी अपने सर जमीन छोड़कर टस से मस होने को तैयार नहीं थे। । वो बोले कि कुछ नहीं होगा, ये मेरी ज़मीन है, मैं यहां पैदा हुआ हूं, यह मेरी जन्मभूमि है। यहाँ पर मेरे दादा, मेरे पिता की प्रेस है जिसे मैंने अपने खून पसीने से सींचा है, मैं यह सब छोड़कर नहीं जा सकता, बिल्कुल नहीं जा सकता! मैं अपनी भूमि में हूँ, चाहे कुछ भी हो, मैं अपना सर जमीन नहीं छोड़ूंगा।" उस समय पाकिस्तान नाम नहीं पड़ा था। तब पूरा देश एक था। उनकी वहीं सर ज़मीन थी, वहीं अनारकली बाजार था, वहीं रौनक थी, वही शाम को मेल मुलाकात के दौरान, हिन्दू मुस्लिम एकता के साथ गले लगते थे, मगर उनकी यह सोच गलत साबित हुई। जमाना बदल चुका था। खून खराबा, हिंसा, आगजनी शुरू हो गई । अंततः एक दिन जब हर तरफ कत्लेआम होने लगा तो आखिर ए पी बजाज ने लाहौर, अनारकाली और अपना सपनों का प्रेस छोड़कर हिंदुस्तान पलायन करने का इरादा कर लिया। उन्होने अपनी नानी को अपनी पीठ पर बांधा और एक छत से दूसरी छत टापते टापते छुपते छुपते भागने लगे। लेकिन तभी ना जाने किधर से एक गोली सीधी आके उनकी नानी की पीठ में लगी और नानी वहीं शहीद हो गई। नम आँखों से उन्होंने तब नानी को वहीं छोड़ा और भारी मन से हिंदुस्तान में, मसूरी की तरफ बढ़ गए।
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आखिरकार सर जमीन ए हिंद पर उनके पांव पड़े---
वो शख्स देहरादून से पैदल मसूरी पहुँच गए, जेब में पैसे नहीं थे और उनका दिल भी भयंकर रूप से टूटा हुआ और बेचैन था, उनका कहीं पर भी मन नहीं लग रहा था क्योंकि जो शख्स आसमान की बुलंदी को छूना चाहता था, जो कुछ करना चाहता था, जिसने अपना बचपन और किशोर उम्र कुछ कर गुज़रने के लिए झोंक दिया था, वो इस तरह खाली हाथों, बिना कर्म के बैठा नहीं रह सकता था । उन्होने मसूरी छोड़ने की ठान ली।
वो दिल्ली जाने की जिद पर अड़ गए कि मैं दिल्ली जाऊंगा। और ए पी बजाज आखिर दिल वालों की शहर दिल्ली आ गए, एकदम खाली हाथ।
दिल्ली में उनके नाना जी के पास छह दुकानें थी तो उन्होंने एक दुकान उनको दे दिया। ए पी बजाज ने कहा कि मैं तो फिर से प्रिंटिंग प्रेस का ही काम करूंगा।
यानी वहां आकर भी उन्होंने प्रिंटिंग का काम ही करने की सोची। वे साइकल पर दूर दूर तक जाते थे, जो जो
सामान की रिक्वायरमेंट होती थी, वे उधार पर लाते थे, उन्हे बेचते थे और जो पैसा मिलता उससे उधार भी चुकाते थे और घर का खर्चा भी चलाते थे।
दिल्ली के हाथीखाना में एक छोटा सा कमरा उनको मिल गया। उन्होने वहीं रहना शुरू किया। छोटी सी परछत्ती पर सोते थे। फैमली भी साथ रहती थी। सब वहीं रहते थे। आप सोचिए कितनी अमीरी की जिंदगी देखने के बाद अचानक गरीबी के दौर की शुरुआत ने उन्हे किस कदर झकझोर दिया होगा। लेकिन भला काले बादल कब तक सूरज को ढक के रख सकता था।
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आखिर उन्होंने सोचा कि अब उन्हे मशीन लगानी है, एक छापने वाली मशीन। बहुत खोजबीन के बाद एक सेकेण्ड हैंड जैपनीज मशीन उनको मिल गई लेकिन उसे खरीदने के लिए उन्होंने अपनी पत्नी की गहने बेचने की सोची पर पत्नी ने कहा, "नहीं मैं इस समय गहने नहीं दे सकती, यह हमारे बुरे समय में काम आयेगी।" मगर नाना जी ने समझाया कि इस समय गहने दे दो क्योंकि कल को अगर यह लड़का कामयाब हो गया तो वो आगे चलकर न जाने ऐसी कितने गहने तुम्हें बना देगा। आखिर पत्नी ने गहने दे दी।
गहनों के बदले तेरह हजार रुपए में उस दिन खरीदी गई मशीन ने आगे चलकर न जाने कितने करोड़ों का इंतजाम किया। धीरे धीरे सदर बाजार के अंदर वह अपना काम आगे बढाने लगे।
हाथीखाना में उन्होंने हाथ से चलने वाली प्रिंटिंग मशीन लगाई क्यों कि उस समय ऑटोमेटिक मशीन नहीं हुआ करती थी। उस मशीन में एक आदमी एक तरफ से चक्की घुमाता था और दूसरा इंसान, दूसरी ओर से पेपर काटा करता था।
उस समय उनका एक भाई उनके साथ थे और एक और शख्स उनके साथ जुड़ गए थे, जिनका नाम था जे एन कुमार।
जे एन कुमार उनके सच्चे साथी थे। वे उनके भाइयों से भी बढ़ कर थे।
कुमार साहब कहते थे कि अगर बाउजी दिन को रात कहेंगे तो मैं भी दिन को रात कहूंगा। " यानी कुमार साहब इतने वफादार थे और हर पल उनके साथ थे कि बजाज जी को किसी और की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। काम ठीक से चलने लगा।
दिन बीतने लगे लेकिन फिर एक दिन हाथीखाना स्थित उनके प्रिंटिंग प्रेस वाली जगह का ट्रांसफर नोटिस, एक गवर्नमेंट ऑर्डर के तहत होने की बात होने लगी, क्योंकि वो जगह गवर्नमेंट के किसी ऑप्शंस में आ रही थी।
गवर्नमेंट ने कहा कि आपको यह जगह छोड़ना पड़ेगा और आपके पांच सौ गज के जमीन के बदले आपको एक हजार गज़ की जमीन दिया जाएगा। आप तीन एरिया में से कोई एक जगह चुन लो।
वो तीन एरिया थे रेवाड़ी लाइन इंडस्ट्री एरिया, जिसे आजकल मायापुरी कहा जाता है, ओखला इंडस्ट्रियल एरिया और नारायणा इंडस्ट्री एरिया ।
ये तीनों जगहें, प्रिंटिंग प्रेस वालों के लिए डिसाइड की गई थी उस समय। पहले तो ए पी बजाज इस बात से सहमत ही नहीं हुए, लेकिन आखिर बहुत भारी मन से वे, वो तीनों जगह देखने आए। उन दिनों यह तीनों एरिया जंगल थे। यह उन्नीस सौ साठ के आसपास की बात है।
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तो उन्होंने जो रिवाड़ी लाइन वाला इंडस्ट्री एरिया चुना उसे देखते ही ए पी बजाज जी के मुंह से निकल गया, "ओह, इस जगह पर बसानी होगी मुझे प्रेस की नई दुनिया, वाह! क्या प्रभु की माया है।" उस दिन, उस क्षण, उनके मुँह से निकले 'माया' शब्द ने ही आगे चलकर उनके द्वारा प्रकाशित मशहूर बॉलीवुड पत्रिका को मायापुरी का नाम दिया और उस एरिया को मायापुरी नगर का ओहदा मिल गया। तो खैर, उनको वहां उस समय उनके हाथी खाना वाली जगह के लिए गवर्नमेंट यह जगह दे रही थी। एक हज़ार गज मगर ये शख्स तब भी अड़ गए , बोले, "मैं लूंगा तो ढाई हजार गज ही लूंगा।"
सरकारी डिपार्टमेंट वालों ने कहा कि पाँच सौ गज के बदले में हजार गज ही मिल सकता है, इससे ज्यादा हम नहीं दे सकते, लेकिन वो जिद्दी इंसान, जिद पर अड़ चुके थे। वे बोले, "नहीं, मै अगर लूंगा तो ढाई हजार गज ही लूंगा।" आखिरकार बहुत मनाने के बाद वे पंद्रह सौ गज पर राजी हो गए। बाकी एक हजार गज उनको पैसे देकर खरीदने पड़े।
लेकिन पैसे उनको कहां से मिलते? एक्स्ट्रा जमीन खरीदने के लिए पैसे तो चाहिए थे। उसके लिए उस जमाने में बिजनेस लोन लेना इतना आसान नहीं था, तो उन्होंने उस बिजनेस लोन के लिए गवर्नमेंट का, दिल्ली फाइनेंस कॉर्पोरेशन डिपार्टमेंट से सिक्सटी सेवेन हजार का लोन ले लिया जो उन्नीस सौ सत्तासी में उन्होने धीरे धीरे करके आखिर चुका ही दिए, बिना कोई भी इंस्टालमेंट बाउंस हुए, उन्होने पूरी पेमेंट कर दी।
जिस दिन उन्होने लोन का लास्ट इंस्टॉलमेंट चुकाया तो पूरे ऑफिस के अंदर मिठाई के डब्बे बांटे गए, क्योंकी रजिस्ट्री के सारे पेपर बजाज साहब के हाथ में आ चुके थे।
अब तो मानों ए पी बजाज जी को खुला आसमान मिल गया था। मेहनत से तो वे कभी नहीं चूके, वे दिन रात जाग कर अपने सपनों को सजाने में व्यस्त हो गए।
वो शख्स जो पाकिस्तान से पैदल चलकर हिंदुस्तान के इस जगह यानी रेवाड़ी लाइन पर खाली हाथ आया था, जिस जगह को उनकी वजह से आज मायापुरी नगर के नाम से जाना जाता है, वही शख्स अब अपनी ढाई हजार गज के जमीन का मालिक बन चुका था और कहते हैं ना कुछ कर गुजरने का जज्बा होता है तो रास्ते अपने आप निकल आते हैं।
अब ढाई हजार की जमीन तो ले ली इस इंसान ने, पर उसके ऊपर बिल्डिंग बनाने के लिए जेब में इतने पैसे नहीं थे, यानी ढाई हजार गज का एक मैदान उनके सामने था। जहां सिर्फ ख्वाबों में ही उनका महल था, ख्वाबों में ही उनका प्रेस था, ख्वाबों में उनका सब कुछ था, मगर जेब में जब तक पैसा न हो तब तक तो कुछ नहीं हो सकता।
तब ए पी बजाज ने एक नया आयडिया लगाया, उन्होने कहा, "मैं बेसमेंट खोद दूंगा।"
सब ने पूछा कि बेसमेंट खोदने से क्या होगा? बजाज ने कहा, "जो बेसमेंट से मिट्टी निकलेगी मैं उस मिट्टी को बेचूंगा, जितना पैसा आएगा उससे मैं बिल्डिंग बनाने की शुरुआत तो कर लूंगा।"
वही किया गया। उस शख्स ने अपनी जमीन पर बहुत गहरी बेसमेंट खुदवाई और बेसमेंट से निकली उस मिट्टी को बेचा और उससे सचमुच इतना पैसा आया कि जमीन के ऊपर दीवारें और बाउंड्री और कुछ पार्ट जितना बन सकता था, वो बन गया यानी एक शुरुआत हो गई, फिर शुरू होते होते उनका ग्राउंड फ्लोर और फर्स्ट फ्लोर बन गया जहां वे रहने लगे।
वे अपनी कल्पना के अनुसार, अपना सपनों का महल बनाना शुरू कर चुके थे, चार हिस्सों में वह घर बनाया जो देखने में तो एक ही बिल्डिंग लगती थी लेकिन उसके पार्टीशन चार थे क्योंकि उन्हें लगता था कि उनके चारों भाई भी उनके साथ वहीं रहें और साथ ही एक दूसरे को कोई डिस्टर्बेंस भी ना हो। उन्होने अपने कुटुंब के जितने भी लड़के लड़कियां शादी लायक हुई सब की शादियां करवा दी थी। अपने भाइयों का घर अच्छी तरह से अलग अलग बसा दिया था। बहनों को भी बसा कर सुखी कर दिया था। अब वह जीवन की चुनौतियों को अकेले खेलना चाहते थे । अपने दम पर एक नई उड़ान भरना चाहते थे और कुछ ऐसा कर गुजरना चाहते थे कि लोग हमेशा याद करे।
बस इस वजह से ए पी बजाज साहब धीरे धीरे सबसे अलग हो गए। एक नए रूट पर अकेले चलने का जज्बा साथ ले कर। वे जुझारू थे, जूझना जानते थे, जीवन भर तो उन्होने यही किया था। जब वे जीवन में कुछ कर गुज़रने की लड़ाई लड़ रहे थे, तब से उनका चित्त कोई भी मेहनत का काम करके आगे बढ़ने के लिए बेचैन था। उन्नीस सौ बासठ में भी उन्होंने एक ऐसा बिज़नेस शुरू किया था जो उनके खानदान में तब तक कभी किसी ने भी नहीं किया। उन्होने सबके मना करने के बावजूद एक पोल्ट्री फार्म खरीदा।
उस समय भी उनके भाई ने कहा था, "ये क्या है भाई? हम मुर्गियां कैसे पालेंगे?" मगर उनकी दूर की दृष्टि देखिए उन्होने गुड़गांव के आगे शाहपुर में पोल्ट्री फ़ार्म शुरू किया। मुर्गियों के अंडे से लेकर मुर्गियों के बीट का भी कारोबार किया, जो खाद के रूप में बिकने लगे । ए पी बजाज वो शख्स थे, जो राख से भी सोना उगलने की कोशिश में पीछे नहीं हटते थे। फिर उन्होने गाय का गौशाला भी बनाया और दूध की डेयरी भी शुरू की। बिज़नेस शुरू हुआ तो धीरे धीरे सब भाइयों ने उनमें से अपना-अपना हिस्सा लेना शुरू किया और फिर सब अलग अलग बिखर गए।
सब भाईयों को उनका हिस्सा देने के बाद यह शख्स अपनी बिल्डिंग में, (जिसे मायापुरी बिल्डिंग के नाम से सब जानते है) वहां सिर्फ अपने परिवारजनों के साथ रहने लगे जिसमें पत्नी, बेटा प्रमोद कुमार बजाज और बेटी थे।
उन्होने अपनी बेटी की शादी उन्नीस सौ इकहत्तर में कर दी और बेटे प्रमोद कुमार बजाज की शादी उन्नीस सौ बहत्तर में सम्पन्न की और उनके पोते अमन बजाज का जन्म उन्नीस सौ तिहत्तर में हुआ। वही अमन बजाज , जो आने वाले जेनेरेशन के वो स्तंभ बने जो आगे चलकर डिजिटल अनिमेशन की दुनिया में तहलका मचाने वाले थे और अपने दादाजी के सपनों को डिजिटल इंडिया तक पहुंचाने में सबसे ज्यादा मेहनत करके कामयाबी के परचम गाड़ने वाले अनिमेशन के खिलाड़ी बनकर उभरे।
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समय समय की बात होती है, समय समय में हर चीज बदलती रहती है।
उनका मन तो बस प्रिंटिंग बिज़नेस में ही लगता था सो उन्होने छपाई के काम पर ध्यान लगाया। जो शख्स अनडिवाइडेड इंडिया, लाहौर, पाकिस्तान में कैलेंडर छापा करते थे, वो अब वर्ष नाइनटीन सिक्स्टी नाइन से लेकर नाइनटीन सेवेंटी फोर तक कैलंडर का काम शुरू नहीं किया बल्कि उन्होने जॉब वर्क वाला काम शुरू किया, जैसे डाइरी छापना, नोट बुक छापना, यानी जो भी उन दिनों जॉब वर्क होता था, वो छापने लगे लेकिन उनको अपने काम से सैटीसफैक्शन नहीं मिलता था। उनको लगा कि ये कोई सही काम नहीं है क्योंकि जब काम आता था तो चौबिस- चौबिस घंटे काम होता था वर्ना हफ्तों महीनों तक काम नहीं मिलता था। लेकिन स्टाफ को तो हर महीने खाली बैठाकर सैलरी देना पड़ता था। उन्होने सोचा काम वो होना चाहिए जो रेगुलर चले। उनके दिमाग में कुछ ऐसा करने का ताना बाना बुनना शुरू हो चुका था जो उनका भविष्य उज्जवल कर सके और उनके ऊंची उड़ान के सपनों को पंख दे सके।
उन्ही दिनों ए पी बजाज के दिमाग में आया कि क्यों न कोई दिलचस्प मैगजीन शुरू करें या फिर कॉमिक्स क्यों ना शुरू किया जाय।
बड़ी हैरानी की बात थी जिसके बारे में उन्हे या उनके परिवार में से किसी को एबीसी भी नहीं मालूम था वो काम वे शुरू करना चाहते थे। सबने उन्हे इस तरह की रिस्क उठाने से मना किया लेकिन जब ए पी बजाज जी कुछ ठान लेते थे तो वो वे अपने आप की भी नहीं सुनते थे और कभी पीछे नहीं हटते थे।
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उन्होने 1969 में बच्चों के लिए लोट-पोट नाम की एक मजेदार कार्टून कहानियों की पत्रिका प्रकाशित करना शुरू किया, एक ऐसा कॉमिक्स बुक जो आज तक, पचास साल के बाद भी कामयाब है और धुआंधार चल रही है।
उन्होंने जब वह बच्चों की पत्रिका निकाली तब भी उनको बहुतों ने क्रिटिसाइज किया कि कौन पढ़ेगा कॉमिक्स? बच्चों के पास स्कूल की किताबें पढ़ने का भी वक्त नहीं होता है तो कहानी की किताबें क्या खाक पढ़ेंगे, अगर इतना खर्चा करने के बाद किताब ना बिकी तो क्या होगा?
तब बजाज जी बोले, "ठीक है मैं दिन के वक्त लोटपोट छापने का काम करूंगा लेकिन रात में जॉब वर्क करूंगा ताकि स्टाफ को सैलरी मिलती रहे।
लोटपोट के पात्र मोटू पतलू, शेखचिल्लि , नटखट नीटू, जो उस समय लोटपोट में बनाए गए थे, वो आज भी विश्व में डंका बजा रही है और अपना ग्लोबल पहचान बना चुकी है। मोटू पतलू की कार्टून एनिमेशन फिल्में आज दुनिया भर में धूम मचा रही है। उसपर टीवी श्रखलाएं बनी है और तो और मैडम तुसाद में भी मोटू पतलू के मोम के पुतले स्थापित है। इन सब सपनों के जन्मदाता और थिंकर थे बजाज साहब। (AP Bajaj inspirational publishing journey from ground to glory)
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ए पी बजाज साहब चाहते थे कि वे जब भी कोई ऐसी अच्छी- चीज लेकर आए तो वो इतनी सस्ती होनी चाहिए कि आम से आम लोग भी उसे अफोर्ड कर सके। उन्होने अपनी पत्रिका साठ पैसे या एक रुपए में उपलब्ध कराना शुरू किया। ऐसा करने की उन दिनों कोई सोच भी नहीं सकता था मगर उन्होंने ऐसा ही किया। काम चल निकला और लोटपोट की एक पुख्ता पहचान बन गई। उसकी सेल एक समय में लाखों पर पहुंच गई थी । हर सप्ताह निकलती थी लोटपोट। यह अपने आप में बहुत मायने रखता था कि हर हफ्ते में, नई नई कार्टून, कहानियों, पहेलियों के साथ एक नई कॉमिक इशू रेडी करके बाजार में उतारना। वो दिन और आज का दिन, उनके प्रयास के बीज, आज एक वट वृक्ष की तरह, विश्व भर में फैल गया है जो उनके बेटे प्रमोद कुमार बजाज और पोते श्री अमन बजाज ने प्रिंट से लेकर डिजिटल तक पहुंचा दिया और अब तो विश्व प्रसिद्ध लोटपोट के टून किरदार मोटू पतलू तुसाद म्युज़ियम में विराजमान है।
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1969 से अब 1974 का साल आ गया था।
उनके अंदर जो बचपन से बॉलीवुड के प्रति रुझान छुपा हुआ था, और उनके दिमाग में जो एक फ़िल्म का बीज पड़ा हुआ था, उस बीज ने उनको एक फिल्मी मैगजीन निकालने का आइडिया दिया। बजाज जी चाहते थे कि वे एक ऐसी फ़िल्म पत्रिका निकाले जिसमें बॉलीवुड की हर जानकारी मिले। जिस तरह हर शुक्रवार को फिल्म रिलीज होती है वैसी ही हर शुक्रवार को हमारी मैगजीन बाजार में आए और उसी समय बॉलीवुड की हर खबर, हर तस्वीर फ़िल्म प्रेमियों को मिले। क्योंकि उन दिनों इंस्टाग्राम, फेसबूक, अन्य कोई वेबसाइट होता नहीं था कि झटपट न्यूज़ मिल सके। तब उन्होने तय किया कि खुद हर सप्ताह दिल्ली से मुंबई जाकर, वहां के फ़िल्म पत्रकारों से मिलेंगे, उन्हे हाथोंहाथ उनकी मेहनत का पैसा देंगे और न्यूज़ तथा फोटोज़ लेकर गुरुवार तक दिल्ली लौटेंगे और रात भर प्रिंट का काम करके अगले दिन सुबह सुबह फिर मुंबई आकर शुक्रवार को मायापुरी रिलीज़ कर देंगे।
उनकी मेहनत रंग लाई। मायापुरी चल निकली और देखते ही देखते बॉलीवुड की सब से पसंदीदा सब से विश्वनिय पत्रिका बन गई जो आज भी कायम है । उन दिनों, सुबह पाँच बजे से दस बजे तक मायापुरी मैगजीन को लेने के लिए मैगज़ीन के डीलर के शॉप में , स्टॉल वाले और आम पब्लिक लोगों की लाइन लग जाती थी और मायापुरी के लिए छीना झपटी होती है और इस वजह से पुलिस का इंतजाम करना पड़ता था। क्या कोई सोच सकता है कि एक मैगजीन के लिए पुलिस का इंतजाम??
उसके बाद तो मायापुरी अपना एक इतिहास बना चुकी और यह ए. पी बजाज जी का ही बोया हुआ बीज था जो फलता फूलता रहा।
लेकिन अब बजाज साहब की उम्र होती जा रही थी। वो शख्स जो होम्योपैथी के ज्ञाता थे, जिन्होने अपनी धर्मपत्नी के रीढ़ की हड्डी का सफल इलाज अपनी होमियोपैथिक ज्ञान से कर दिखाया था, वो शख्स जिन्होने पाकिस्तान में अकेलेदम प्रेस चला कर खूब पैसा कमाया, बंगला बनाया, गाड़ी खरीदी लेकिन देश विभाग की त्रासदी ने जिनका सब कुछ लूट लिया, जो राजा से रंक बनकर खाली हाथ दंगाइयों से बचते बचाते, एक छत से दूसरे छत टापते हुए हिंदुस्तान पहुंचे और देहरादून से मसूरी पैदल आए और वहां से दिल्ली हाथिखाना आकर जिस ए पी बजाज ने फिर से तिनका तिनका जोड़ कर एक बार फिर अपना राज पाट खड़ा किया, बच्चों के अल्फाबेट की किताबें छापी, बुक्स छापे, दौलत और शोहरत से खूब नहाए, जिन्होने फ़िल्म बनाई, जिन्होने उस जमाने में हेलीकाप्टर से अपने फ़िल्म का प्रचार किया, जो फिल्म बनाने के बाद भारी नुकसान के चलते आकंठ कर्जे में डूब गए, और उससे उबरने के लिए पोल्ट्री फ़ार्म बेची, पेपर मिल बेची जो उस जमाने में टीवी के लिए शोज़ और सीरीज़ बनाते थे जब इसे मुश्किल काम माना जाता था, वो शख्स जिसने कैमरा और ऑडियो ट्रैक बनाए थे, जिन्होंने अपना स्टूडियो बनाया, जिन्होने मायापुरी पत्रिका को फर्श से अर्श पर पहुंचाया, वो शख्स धीरे धीरे उम्र के साथ इन सब मोह माया से अलिप्त हो गए और सब कुछ अपने बेटे श्री प्रमोद कुमार बजाज और पोते श्री अमन बजाज को सौंपकर वो मसीहा चिरकाल की गहरी निद्रा में सो गए परंतु जाते जाते वे अपने पोते अमन बजाज के कानों में एक गूढ़ मंत्र फूंक गए। उन्होने नई पीढ़ी के लिए अपने पोते अमन बजाज को आने वाले नए युग में नई सोच के साथ एनिमेशन और ए आई की दुनिया में मजबूत पकड़ बनाने के हुनर की तालीम लेने को कहा, जिसे अमन ने अक्षरश फॉलो किया और आज अमन ने लोटपोट को डिजिटल और एनिमेशन की दुनिया का सबसे चमकता सितारा बनाते हुए अपने दादाजी के नाम को रौशन कर रहे हैं।
वह मसीहा चले गए, लेकिन अपना नाम अमर कर गए और अपने साथ साथ एक पूरा शहर बसा कर गए जिसे आज मायापुरी कहा जाता है। वो शख्स जो मिट्टी से सोना बनाने का हुनर जानते थे वो शख्स सोने को कुंदन बनाना जानते थे, वो शख्स कुंदन को हीरा बनाना जानते थे, वो किसी से डरते नहीं थे, वो शख्स हर वक्त अपने साथ लाइसेंस युक्त हथियार लेकर चलते थे। वो काल पुरुष सिर्फ अपने लिए नहीं सोचते थे, वे समाज के लिए भी सोचते थे। उन्होने बच्चों के लिए एक विशाल स्कूल बनवाया और मैनेजमेंट द्वारा स्कूल का खर्च चलाने के लिए आस पास कई दुकानें लगवा दी, जिसके भाड़े से स्कूल का खर्चा आराम से चलने लगा था। उन्होंने उन इलाकों में जहां पानी की बेहद किल्लत थी, वहां हर दो पाँच किलोमीटर की दूरी पर बोरवेल खुदवा कर पंप लगवा दिए और पंप चोरी ना हो जाए इसलिए गश्त का भी इंतज़ाम करके हजारों प्यासों की प्यास बुझाई। और सबसे कमाल की बात तो यह है कि इन महान समाज सेवा के दौरान उन्होने यह सख्ती से हिदायत दी कि उनका नाम कहीं पर भी लाने की जरूरत नहीं क्योंकि वे मानते थे कि जब दान दिया जाय तो वो गुप्त दान ही होना चाहिए। ए पी बजाज वो शख्स थे जिन्होंने भारत में सबसे प्रथम आने वाले तीन जर्मन प्रेस मशीनों में से एक खरीदने की हिम्मत की जिसकी कीमत लाखों में थी
ऐसे शख्स बार बार जन्म नहीं लेते। एपी
बजाज नाम की कहानी से लोगों को यह सबक मिल सकता है कि अगर आप चाहो तो दुनिया की हर चीज आपके कदमों में गिर सकती है, बस ठानने की देर है। (Mayapuri magazine history and AP Bajaj achievements)
आज उनके नक्शे कदम पर चल रहे हैं ए पी बजाज जी के पुत्र श्री प्रमोद कुमार बजाज और उनके पोते श्री अमन कुमार बजाज, जिन्होने मायापुरी और लोटपोट को उस मुकाम तक पहुंचा दिया जहां ए पी बजाज साहब का सपना था।
यह है वो अमर कहानी उस युग पुरुष ए. पी. बजाज जी की जिन्हे मैं दादू पुकारा करती थी। आज 24 नवंबर को उनकी पुन्यतिथि पर उन्हे दुनिया के कोने कोने से लोग याद कर रहें हैं और नमन कर रहे हैं।
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