Shyam Benegal को अभिनेता Anand Mishra की विनम्र श्रद्धांजलि मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल का 23 दिसंबर 2024 की शाम मुंबई में नब्बे वर्ष की उम्र में निधन हो गया. श्याम बेनेगल ने एड फिल्म, डॉक्यूमेंट्री व फीचर फिल्मों... By Shanti Swaroop Tripathi 09 Jan 2025 in एंटरटेनमेंट New Update Listen to this article 0.75x 1x 1.5x 00:00 / 00:00 Follow Us शेयर मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल का 23 दिसंबर 2024 की शाम मुंबई में नब्बे वर्ष की उम्र में निधन हो गया. श्याम बेनेगल ने एड फिल्म, डॉक्यूमेंट्री व फीचर फिल्मों को निर्माण कर अपना एक अलग मुकाम बनाया था. उनके उस मुकाम को छूना सभी के वष की बात नही है. श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों के माध्यम से इस देश को नसिरूद्दीन शाह, अमरीश पुरी, शबाना आजमी, सलीम आरिफ, आनंद मिश्रा सहित सैकड़ों प्रतिभाएं दी. श्याम बेनेगल के निर्देशन में सीरियल ‘‘भारत एक खोज’’ के अलावा फिल्म ‘‘अंतर्नाद’’ में अभिनय कर चुके अभिनेता आनंद मिश्रा ने उन्हे अपनी भावभीनी श्रृद्धांजलि देते हुए अपने उद्गार व्यक्त कए, जिन्हे हम यहां उन्ही की जुबानी ज्यों का त्यों पेष कर रहे हैं... आज मैं श्याम बेनेगल जी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए आपसे मुखातिब हूं. जिस दौर में सिनेमा बहुत कमर्शियल हो गया था. हर फिल्मकार लव स्टोरी, हॉरर व एक्शन फिल्में बना राह था, जिन्हे भरपूर दर्शक भी मिल रहे थे. उस वक्त श्याम बेनेगल की वजह से अंकुर, निशांत, भूमिका, मंथन जैसी फिल्में देखने का मुझे सौभाग्य मिला. जब मैं मुंबई आया, तब वह सीरियल ‘‘भारत एक खोज’’ बना रहे थे. मेेरे मित्र रवि केमू साहब मुझे उनसे मिलाने ले गए और इस सीरियल में मुझे नसिरूद्दीन शाह व अनंग देसाई सहित कई बड़े बड़े कलाकारों के साथ अभिनय करने का अवसर मिल गया. उसके पश्चात मैंने स्वामी विवेकानंद स्वामी के गुरू का किरदार निभाया. फिर मैने तकरीबन बीस एपीसोड में अभिनय किया था. उस दौरान श्याम बाबू से मेरी जो करीबी बनी, उनका कलाकारों के प्रति जो प्रेम सम्मान देखने का मौका मिला, क्रिएटिव बहुत शांत अपने काम के प्रति बहुत समर्पित और सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने हजारों कलाकारों को एक मंच दिया. सिनेमा में काम करने का अवसर दिया. श्याम बाबू ने बाॅलीवुड को बड़े-बड़े कलाकार मसलन-अमरीश पुरी साहब स्मिता पाटिल शबाना आज़मी अन्नू कपूर सतीश कौशिक सहित सैकड़ों कलाकार दिए, जिनके बारे में काफी कुछ कहा जा सकता है. इस देश के अंदर जो आज मुंबई में नहीं है, वह तमाम लोग भी उनके साथ जुड़े रहे. एकदम साधारण बहुत सिंपल और सबसे बड़ी बात जो उनमें थी वह यह कि उनके सिनेमा में किसी कलाकार में मतभेद नहीं होता था. ओम पुरी सहित हर कलाकार के एक ही टेबल लगता था और उसी टेबल पर नाश्ता भी साथ में लंच भी साथ में और डिनर भी साथ में करते थे. मुझे उनकेे साथ बहुत व्यवस्थित ढंग से काम करने का सौभाग्य मिला. बाद में मैने उनके निर्देशन में फिल्म ‘अंतर्नाद’ भी की. इस फिल्म की शूटिंग के ही दिनों में मेरी जिंदगी की एक अद्भुत घटना घटी थी. मेरा जन्मदिन पड़ा, तो श्याम जी ने हमारे साथ कुलभूषण खरबंदा, पवन मल्होत्रा, वीरेंद्र सक्सेना सहित कई बड़े-बड़े कलाकारों के साथ मेरे जन्मदिन की पार्टी दी. डांडिया नृत्य भी हुआ था. मुझे बहुत खुशी हुई थी. मुझे ऐसा लगा था, जैसे कि मेरा भी कुछ वजूद है. श्याम बाबू की फिल्म में काम करना, श्याम बेनेगल के साथ काम करना कभी ऐसा लगता ही नहीं था कि हम एक करेक्टर हैं. उस पूरे माहौल में हम जैसे किरदार ही हो जाते था. इस फिल्म में हमारे साथ शबाना आजमी जी भी थी. इस फिल्म की शूटिंग के दौरान हम लोगों को ऐसा लगता है कि कमाल है, हम एक्टिंग करने नहीं, बल्कि पिकनिक बनाने के लिए आए हैं. और श्याम जी हमें एक दिन पहले उस लोकेशन पर हम सभी को ले जाकर कहते थे कि, ‘यह वह जगह है, जहां पर हमें कल शूटिंग करना है. जाओ उन उन चीजों के साथ एक अपनापन बनाओ.’ जो बहुत बड़ी बात होती है. एक कलाकार के लिए कि किसी लोकेशन, जहां पर आप जाकर शूट करते हैं और उसे जगह के साथ आपके तालुक एक दिन पहले बन जाता है. अन्यथा कमर्शियल सिनेमा के सेट पर जब हम कलाकार जाते हैं, तो कुछ पता ही नहीं होता है कि वहां क्या होगा? श्याम जी के साथ बहुत ही अंतरंग तार जुड़े हुए थे. कहते हैं कि ‘पिता पुत्र’ का, ‘छोटे व बड़े भाई’ का संबंध,जैसा सभी के साथ अपनापन रहता. यह मेरा अपना ख्याल है. हमें लगता है कि इस बात से सभी लोग सहमत होंगे. वह सभी लोग,जिन कलाकारों ने श्याम बाबू के साथ कभी भी काम किया हो, चाहे वह एक दिन काम किया हो या पूरा वक्त गुजारा हो सिनेमा का. लेकिन वह आज भी श्याम बाबू को भुला नहीं सकता. भूल ही नहीं सकता. मुझे तो श्याम बाबू के साथ फिल्म ‘सरदार पटेल’ करने का अवसर मिला. मैने इस फिल्म में राज गोपालाचारी का किरदार निभाया था. इस फिल्म का निर्देशन केतन मेहता जी ने किया था, मगर इसके क्रएटिब निर्देशक श्याम बेनेगल ही थे. श्याम बबाू के साथ काम करते हुए हमें कभी ऐसा नहीं लगता था कि यह हम किसी कंपनी के लिए काम कर रहे हैं बल्कि ऐसा लगता था कि हमारा घर है. हमारा अपना प्रोजेक्ट है. हम इसमें काम कर रहे हैं पुरी शिद्दत के साथ पूरी लगन के साथ. मैने श्याम बाबू के साथ लंबा वक्त गुजारा है,पर मैंने कभी नहीं देखा कि किसी भी कलाकार या अन्य कर्मी को थोड़ा सा भी हीन महसूस हुआ हो. श्याम बेनेगल जी अपने हर कलाकार को अपने परिवार का सदस्य ही समझते थे. आप सेट पर हैं और आपका सीन नही फिल्माया जा रहा हे, तो उस वक्त आप फ्री हैं तो भी आप कैरम, बैडमिंटन, फुटबॉल से लेकर क्रिकेट तक कुद भी सकते है. सेट पर सारा सामान मौजूद रहता था. श्याम बाबू का इस संसार को अलविदा कहना मतलब ऐसा लगता है कि जैसे अपने ही परिवार की एक क्षति हो गई. सिनेमा ने एक ऐसा शख्स खो दिया, जिन्होंने इतनी फिल्में बनाई, जो दूसरे नहीं कर पाते हैं. इतने पुरस्कार इतना सम्मान इतना सब कुछ उन्हें मिला, अद्भुत है. मेरा ख्याल है कि कोई भी शख्स जो उनका दर्शक रहा है यह कलाकार हा, कैमरामैन हो, स्पाॅट ब्वाम्य हो, कोई भी, सभी को लगता है कि हमने कुछ बड़ा खो दिया. यह सिने जगत के लिए अपूर्णीय क्षति है. सिनेमा की संगोष्ठियों में श्याम बाबू पर जब चर्चा होती थी, तो विचार विमर्श होता था कि उनकी फिल्मों का नजरिया क्या है? तब कुछ लोग कहते थे कि वह सामंतवाद की कुरीतियों के खिलाफ बात करते रहे है. आप उनकी फिल्म ‘अंकुर’ को लीजिए. सामंतवाद के खिलाफ एक मिशन था. इसी वजह से कुछ लोगों का मानना था कि शायद वह कम्युनिस्ट विचारधारा के हैं? पर वहीं आप फिल्म ‘मंथन’ को लीजिए. दूध जैसी समस्या पर किस तरह से एक आंदोलन खड़ा होता है और उसे आंदोलन को लेकर समाज में सामंतवाद तथा जातिवाद आदि को हटाकर एक ऐसी विचारधारा की बात की जो ‘सबका साथ’ की बात करती है. सबका साथ मिलकर एक दिशा बनाते हैं. प्रयास करते हैं. फिर ‘सरदार पटेल’ फिल्म भी बनाई. सरदार पटेल कहां कम्युनिस्ट थे? सरदार पटेल इस देश के लिए एक प्रमुख व्यक्ति थे. वह कभी किसी एक विचारधारा का पोषक या एक सत्ता का पोषक न होकर सर्वहारा की बात करते रहे. समाज के अंदर विचारधारा को लेकर जो बहस होती है, उसमें अगर आप किसी फिल्म फिल्म निर्देशक की बात करते हैं, तो उसे किसी खास तमगे में नही बांधना चाहिए. उस दौर में तो एक कमर्शियल सिनेमा था और दूसरा पैरलल सिनेमा या समानांतर सिनेमा था, जिसमें यथार्थवादी समस्याओं को उठाया जाता रहा. उन्होंने अपनी फिल्मों में राजनीतिक दृष्टिकोण को बहुत गहराई से समझते हुए अपने विचार फिल्म के माध्यम से जन मानस तक रखें. सरदार पटेल आज की तारीख में इतिहास के प्रमुख किरदार रहे हैं, तो वहीं श्याम बेनेगल ने ही देश की सभ्यता व सस्कृति की बात करने वाला 54 एपीसोड का सीरियल ‘‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’’ यानी कि ‘भारत एक खोज’ बनाया. भारत एक खोज में भारत की संस्कृति भारत का इतिहास को पंडित नेहरु जी की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के माध्यम से समाज में रखा गया. इसमें उन सारी चीजों का समावेश है हमारा नजरिया हमारी संस्कृति. हमारी संस्कृति को जीवित रखने की जो लालसा है, आधुनिकरण और संस्कृति. हम अपनी संस्कृति पर अगर आघात होने देते हैं और हम आयातित संस्कृति की राह पर चल पड़ते हैं, तो आप यकीन मानिए के किसी मुल्क को अगर बर्बाद करना हो तो सबसे पहले उसकी संस्कृति पर प्रहार करना चाहिए. अयातित संस्कृति में विज्ञान बिल्कुल जरूरी है. विज्ञान में जो चीजें दुनिया में हो रही है, वह हमारे पास भी आनी चाहिए और हमारे देश का भी विकास होना चाहिए. मगर हमारी अपनी संस्कृति को नष्ट करने वाली आयातित संस्कृति का फिल्मों के माध्यम ये विरोध भी जरुरी है. अब आप देखिए कि जहां एक गांव की वेशभूषा, वहां के किरदार, वहां की समस्याएं हैं, उन समस्याओं का निदान कैसे हो सकता है? अगर इस बात पर हम विचार करते हैं और फिल्म के माध्यम से यह बात बताते हैं, तो क्या गलत है? सिनेमा मनोरंजन का माध्यम है, लेकिन उसके भीतर एक शिक्षा भी होती है. लोग उससे प्रभावित भी होते हैं. तो अगर श्याम बाबू ने किसी फिल्म में एक प्रहार किया है तो उन्होंने कहीं ना कहीं व्यवस्था के खिलाफ भी बात की. आप उन्हें किसी बॉक्स में किसी खाते में, किसी दर्जे में नहीं बांधा जा सकता. सिनेमा में एक कहानी होती है और उसे कहानी के माध्यम से निर्देशक अपनी बात कहता है. जैसे आप श्याम बाबू की हाल फिलहाल की फिल्म ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ को ही लीजिए. यह कहानी एक मिथ है कि दुल्हे पर पंडितों के हिसाब से कह दिया गया कि इस पर कोई दोष है,तो उसकी कुत्ते से शादी कर दो या झाड से शादी कर दो. बहुत से लोग समाज में झाड से पहले अपनी होने वाली पत्नी की शादी करा देते हैं, उसके बाद उस पत्नी के साथ खुद विवाह करते हैं. बहुत से लोग कुत्तों के साथ विवाह कर देते हैं. उसके बाद अपनी होने वाली पत्नी से विवाह करते हैं. तो वहीं समाज में एक व्यवस्था है जहां सरकारी फंड दिया जाता है. गांव में एक आदमी कुआं खुदवान चाहता है. जिसके लिए वह सरकारी कार्यालय में जाकर अपनी फाइल देता है कि भाई मुझे कुआं खुदवाना है. इसके लिए साथ में उसे टेबल पर रिश्वत देनी पड़ती है और रिश्वत देते देते जो मूलधन उसे कुआं बनवाने के लिए मिलना है, वह पूरा का पूरा रिश्वत में चला जाता है. फिर उसकी सारी फाइलों में लिख दिया जाता है कि कुआं खुद गया और सब कुछ हो गया. और मैं वैसे भी शहर में प्रतिदिन इसी तरह के कारनामे देखता रहता हॅूं. कुछ समय पहले की बात है. एक कॉलोनी में एक रोड़ बना. जिसका उद्घाटन भी हो गया. फोटो छप गए. दूसरे दिन दूसरे सरकारी कार्यालय का आदमी आया उसने अपना विरोध जताकर रोड खुदवा दिया. तो हमारी जो व्यवस्था है उस व्यवस्था की खामियों को अगर श्याम बाबू ने समाज के सामने रखा, तो इसे किसी विचारधारा का नाम दिया जाना सही नही है. यह कोई विचार धरा नहीं बल्कि समाज का यथार्थ है. दोष है. पूरे शहर में सड़क पर किसी न किसी बहाने सड़क की खुदाई हो रही है,तो इसके राजनीतिक फायदे भी हैं और आर्थिक फायदे भी हैं. जब हम फिल्म बनाते हैं, तो हमें समाज में यह देखना पड़ेगा कि अगर हमने कॉलोनी बना दी और कॉलोनी बन गई लोगों ने वहां घर ले लिए और उसके बाद में वहां पीने का पानी नहीं है लोग टैंकर मांगते हैं टैंकर का पानी पीते हैं वह खड़ी का गंदा कुए का पानी लाकर सप्लाई करते हैं लोग बीमार होते हैं उसके बारे में अगर कोई बात करता है तो वह खामियां नहीं है वह समाज की खामियों को दर्शाता है. तो जब हम श्याम बाबू पर चर्चा करते हैं तो कई बार मेरे साथ के लोगों ने कहा, तब मेने उन्हे जवाब दिया कि भाई ऐसी बात नहीं है. समाज हमारा देश है, उसका कल्चर है. उसकी जो समस्याएं हैं. पानी की समस्या, सड़क की समस्या, बिजली की समस्या. जाति भेद की कुरातीया आदि. डाॅक्टर अंबेडकर साहब ने भी इन समस्याओ पर बात की. उन्ही पर बात करते हुए सरदार पटेल ने देश को जोड़ने का काम किया. तो कहीं ना कहीं चीजों को बैलेंस करते हुए एक वैचारिक फिल्म बनाना कम्यूनीजम नहीं है. मेरे हिसाब से एक निर्देशक समस्या पर उंगली रखकर आपको एहसास दिला रहा है, तो इसका अर्थ यह है कि समस्या का निदान किया जाना आवष्यक है. मेरा मानना है कि सिनेमा समाज का आईना है. एक कहानी के माध्यम से हम समाज को जागरुक करते हैं. कमर्शियल फिल्में तो बहुत सी बनती है. हीरो आया उसने बहुत सी चीज की बड़ा आदमी बन गया. दर्शक के तौर पर हम एक फैंटसी में, काल्पनिक संसार में चले जाते हैं. और फिल्म देख कर खुश होकर घर चले आते हैं और कल्पना करते हैं कि कल बूट पॉलिश कर रहा था आज मैं कार में बड़े-बड़े रेस्टोरेंट होटल और फ्लाइट में घूम रहा हूं. यह एक काल्पनिक दुनिया है. सिनेमा कल्पना का व्यवसाय है. लेकिन कभी- कभी ऐसे निर्देशक भी हैं, जो यथार्थ को छूते हैं. मसलन श्याम बाबू की फिल्म ‘‘सरदार पटेल’’, जिसमें मैंने भी अभिनय किया. अति महत्वपूर्ण व्यक्ति,हमारे देश की आजादी के लिए हमारे देश के निर्माण के लिए बहुत बड़ा योगदान है. तो राजनीतिक विरोध, राजनीतिक सोच, इनका अपना एक हिस्सा सिनेमा में होना स्वाभाविक है. अगर कोई इंसान सिनेमा देखकर बाहर निकलता है और वह सोचता है कि उसे यह बात सीखने या समझने का अवसर मिला, जो समाज की समस्या है. तो यह एक बड़ी बात है. मैं श्याम बाबू के अंतिम संस्कार में भी गया था. वहां बड़े-बड़े कलाकार लेखक सब लोग मौजूद थे. सभी की आंखें नम थी. श्याम बाबू का जाना हर किसी को खल रहा था. नासिर भाई थे, कुलभूषण खरबंदा थे. सभी लोग वहां मौजूद थे और सब की आंखों में एक बिछड़ने का गम था. हिंदी सिनेमा के लिए श्याम बाबू एक मील का पत्थर के थे. उनके जैसा निर्देशक,जो नए कलाकारों को ऐसा मौका दें,जिससे वह अपनी काबिलियत को साबित कर पाए,बहुत मुश्किल बहुत मुश्किल है. श्याम बाबू ने कभी किसी कलाकार का चयन उसका ऑडिशन लेकर नहीं किया श्याम बाबू कलाकार से मिलते थे, 5 मिनट बात करते थे. उससे उसके बारे मे बात करते थे और फिर उसकी योगयता समझकर उसे अपनी फिल्म में किरदार निभाने का अवसर दे देते थे. कभी मना नहीं करते थे. उनका मानना था कि आदमी देख सकता है, बोल सकता है, सुन सकता है, चल सकता है, अपने हाथ पैर हिला सकता है, तो उसेस काम करवाया जा सकता है. वह पारखी नजर वाले निर्देशक थे. पता नही कैसे सिर्फ पांच मिनट की बात कर वह समझ जाते थे कि यह इंसान इस किरदार को निभा पाएगा या नहीं.संवाद बोल पाएगा या नहीं... इतना विश्वास था उन्हें कलाकारों पर. वरना आप सोचिए स्मिता पाटिल जी, अमरीश पुरी जी, ओम पुर, शबाना आज़मी जी सहित कितने बड़े-बड़े कलाकार,उन्ही की देन हैं. मैंने कहा ना हजारों हजार कलाकार श्याम बाबू की देन है. मैं तो चाहता हूं कि फिर कोई श्याम बाबू आए और फिर आने वाली पीढ़ी को मौका दे. यही मेरे श्रद्धा सुमन हैं. मेरी श्रद्धांजलि है. मैं तो उनको साधु सन्यासी, बाबा, एक कलाकार, एक चित्रकार, एक मूर्तिकार, एक फकीर, साधारण सा विद्वान व्यक्ति, सिनेमा के बूंद बूंद को जानने वाला, पूरा एक दरिया हमें छोड़ कर चला गया. बस इसके साथ ही मैं श्याम बाबू की आत्मा को नमन करता हूं. वह जहां रहें खुश रहे और फिर इस संसार में जन्म ले और फिर आने वाली पीढ़ी को आने वाले नए कलाकारों को एक बार फिर मौका दे. 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