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बॉलीवुड की दुनिया में कुछ फ़िल्में सिर्फ फ़िल्म नहीं रहतीं, बल्कि यादों में दर्ज एक किस्सा बन जाती हैं। 1983 में रिलीज़ हुई मनमोहन देसाई की ‘कूली’ ऐसी ही फ़िल्म है। उस दौर में अमिताभ बच्चन अपने करियर की ऊँचाई पर थे और जनता उन्हें सुपरस्टार नहीं बल्कि अपने दिल का हीरो मानती थी। ‘कूली’ उनकी उसी झिलमिलाहट और उसी जज़्बे की मिसाल है, लेकिन इस फ़िल्म के साथ जो हादसा जुड़ा, उसने इसे एक सुपरहिट फ़िल्म से आगे बढ़ाकर एक जज़्बाती सफ़र बना दिया।
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फ़िल्म की कहानी, उस दौर के हिसाब से दिल को छू जाने वाली है। फ़िल्म का हीरो इक़बाल, जो स्टेशन पर क़ूली का काम करता है, खुशदिल, मज़ाकिया और सीधा-सादा इंसान है। उसकी दुनिया अपनी माँ सलमा, अपनी गर्लफ्रेंड जुली डी कॉस्टा और सनी ’और स्टेशन के अपने साथियों के इर्द-गिर्द घूमती है। इक़बाल बचपन में अपनी माँ से बिछड़ जाता है और सालों बाद किस्मत उसे फिर उसी मोड़ पर ले आती है जहां वो अपने दिल के खोए हिस्से को दुबारा मिल सकता है। दूसरी तरफ़ विलेन ज़फर, जो ताक़त और पैसे के दम पर लोगों की ज़िंदगी को, रेलवे स्टेशन तक को, अपना खेल समझता है। कहानी आगे बढ़ते-बढ़ते ड्रामा, मारधाड़, इमोशन और रूह छू लेने वाले सीन्स के साथ एक खूबसूरत मिलन तक पहुँचती है। (Coolie 1983 movie story)
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कास्ट की बात करें तो अमिताभ बच्चन ने इक़बाल का रोल दिल से निभाया था। वही मशहूर कोट, वही लाल पट्टी वाला बैज और कंधे या सर पर पर लगेज लिए उनकी स्टाइल उस दौर में आइकॉनिक बन गई थी। रति अग्निहोत्री जूली के रोल में परफेक्ट थीं। ऋषि कपूर ने भी फ़िल्म में सनी खान नाम का मज़ेदार किरदार निभाया, जो फ़िल्म में हल्की-फुल्की मस्ती का रंग घोलता है। वहीदा रहमान, प्रेम चोपड़ा, कादर ख़ान, गोगा कपूर, शोमा आनंद,अमरीश पुरी, पुनीत इस्सर, सुरेश ओबेरॉय जैसे दिग्गज कलाकारों ने फ़िल्म को और दिलचस्प बनाया।
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फ़िल्म का संगीत भी कमाल का था जिसे आज भी याद किया जाता है।
सभी गीतों के बोल आनंद बक्षाी ने लिखे हैं;
संगीत लक्ष्मीकांत–प्यारेलाल ने तैयार किया है।
"मुझे पीने का शौक नहीं" — शब्बीर कुमार, अलका याज्ञनिक"
जवानी की रेल कहीं" — शब्बीर कुमार, अनुराधा पौडवाल ", लम्बूजी, टिंगू जी" — शब्बीर कुमार, शैलेंद्र सिंह —"सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं" — शब्बीर कुमार, "हमका इश्क हुआ" — शब्बीर कुमार, आशा भोसले, सुरेश वाडकर ऐक्सीडेंट हो गया" शब्बीर कुमार, आशा भोसले, मुबारक हो तुमको हज का महीना" — शब्बीर कुमार,"ये गए वो गए। "
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लक्ष्मीकांत–प्यारेलाल की जोड़ी ने वह दौर जैसे थाम लिया हो। ‘ गाने आज भी पुराने रेडियो चैनलों पर बजते हैं तो दिल 80s में पहुँच जाता है। (Amitabh Bachchan iconic films)
अब आते हैं फ़िल्म की सबसे बड़ी और सच्ची कहानी पर—वह हादसा जिसने हिंदुस्तान की साँसें रोक दी थीं। शूटिंग के दौरान यूनिवर्सिटी कैंपस में एक फाइट सीन फिल्माया जा रहा था, जहां पुनीत इस्सर को अमिताभ बच्चन को घूंसा मारना था। प्लान यह था कि घूंसा हवा में लगे, अमिताभ पीछे हटें और कैमरा एंगल से लगे कि वार ज़ोर का पड़ा है। लेकिन शूटिंग के दौरान टाइमिंग बिगड़ गई और पंच सीधा अमिताभ के पेट में जाकर लगा। अमिताभ धड़ाम से गिरे लेकिन पहले लगा कि आम चोट है। कुछ देर बाद दर्द तेज़ होने लगा और उन्हें हॉस्पिटल ले जाया गया। पता चला कि उनकी आँत फट गई है और हालत नाज़ुक है। उस वक्त पूरा देश मंदिरों-मस्जिदों में दुआ कर रहा था। लोग अस्पताल के बाहर जागकर रातें गुज़ारते थे। बच्चन परिवार टूट चुका था और डॉक्टर्स ने भी हाथ खड़े कर दिए थे, लेकिन अमिताभ ने कहा था—"मेरा अभी वक़्त नहीं आया है।" उनकी हिम्मत , उनकी पत्नी, सुप्रसिद्ध सुपर स्टार अभिनेत्री जया बच्चन की देखभाल और जनता की दुआओं ने उन्हें मौत के मुँह से वापस खींच लाया। (Manmohan Desai Coolie film)
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इस हादसे का असर फ़िल्म पर भी पड़ा। मनमोहन देसाई ने स्क्रिप्ट का काफी हिस्सा बदल दिया। जो सीन दुर्घटना वाले दिन शूट हो रहा था, उसे फ़िल्म में जस का तस रखा गया और उस जगह लाल पट्टी के नीचे ‘जुलाई 26, 1982’ की तारीख लिखी गई ताकि दर्शक याद रखें कि इस फ़िल्म में हीरो ने सचमुच मौत से लड़ाई लड़ी थी। यह शायद पहली बार था जब किसी फ़िल्म में एक रोचक ट्रिविया को कहानी का हिस्सा बनाया गया।
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कई लोग नहीं जानते कि हादसे के बाद मनमोहन देसाई ने फ़िल्म के क्लाइमेक्स को भी बदल दिया था। पहले इक़बाल को फ़िल्म में मरना था, लेकिन अब जनता अमिताभ को फिर से मरते नहीं देख सकती थी। दुआओं से लौटे हीरो को पर्दे पर मौत देना ‘गुनाह’ जैसा लगता, इसलिए एंडिंग बदल दी गई और फ़िल्म खुशहाल अंदाज़ में खत्म हुई। (Coolie film accident story)
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फ़िल्म के सेट पर अमिताभ बच्चन एकदम लो-की के साथ रहते थे। वे काफी मज़ाक करने वाले इंसान माने जाते थे। वे सबके साथ बैठकर चाय पीते, कूली यूनियन के असली लोगों से बात करते और उनके काम को समझते थे। कई असली कूलीज़ फ़िल्म में जूनियर आर्टि
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स्ट बने थे। एक और दिलचस्प बात—फ़िल्म में प्रयुक्त तकरीबन सारे स्टेशन वाले सेट असली रेलवे प्लेटफॉर्म पर बनाए गए थे, ताकि शूटिंग रियल लगे और भीड़ का माहौल वैसा ही लगे जैसा रोज़मर्रा की जिंदगी में होता है। मनमोहन देसाई को ‘ स्टारी नखरे’ पसंद नहीं था, इसलिए वह कलाकारों को बोले—"स्टेशन की मिट्टी में मिलकर काम करना है, स्टार जैसी दूरी नहीं रखनी।"
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एक छोटी सी कम-ज्ञात सच्चाई यह भी है कि ऋषि कपूर का सनी वाला किरदार असल में छोटा रखना था, लेकिन उनकी एनर्जी देखकर मनमोहन देसाई ने कई सीन्स ऑन-द-सेट लिखकर जोड़ दिए। वही ऋषि कपूर के और अमिताभ के गाने की शूटिंग भी असली ट्रेन वाले लोकेशन में की थी। (Amitabh Bachchan legendary performance)
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‘कूली’ रिलीज़ हुई तो बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुई। जनता ने न सिर्फ कहानी को पसंद किया बल्कि उस पूरी हिम्मत और इंसानी जज़्बे को सलाम किया जिसने इस फ़िल्म के पीछे अपनी जान लगा दी थी। यह फ़िल्म सिर्फ एक मसाला एंटरटेनर नहीं, बल्कि उस दौर की याद है जब जनता और हीरो एक-दूसरे के लिए दुआ करते थे। (1980s Bollywood hits)
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‘कूली’ आज भी सिर्फ एक मूवी नहीं, बल्कि एक एहसास है। एक स्टार, एक हादसे, एक दुआ और एक फ़िल्म की अनोखी यात्रा, जो हर बार स्क्रीन पर आते ही वही पुराना दौर वापस ले आती है
FAQ
Q1. ‘कूली’ फिल्म कब रिलीज़ हुई थी?
A1. ‘कूली’ फिल्म 1983 में रिलीज़ हुई थी।
Q2. ‘कूली’ फिल्म के डायरेक्टर कौन थे?
A2. इस फिल्म के डायरेक्टर मनमोहन देसाई थे।
Q3. इस फिल्म में मुख्य अभिनेता कौन थे?
A3. फिल्म में मुख्य अभिनेता अमिताभ बच्चन थे।
Q4. ‘कूली’ फिल्म खास क्यों मानी जाती है?
A4. यह फिल्म सिर्फ सुपरहिट नहीं रही, बल्कि इसके साथ जुड़े हादसे और अमिताभ बच्चन की झिलमिलाती परफॉर्मेंस ने इसे यादगार बना दिया।
Q5. ‘कूली’ फिल्म से जुड़ा कौन सा हादसा हुआ था?
A5. फिल्म की शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन गंभीर रूप से घायल हुए थे, जो फिल्म को और जज़्बाती और यादगार बना गया।
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