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महिला किरदार तब ज़्यादा गहरे थे, आज विकल्प ज़्यादा हैं– Padmini Kolhapure

‘प्रेम रोग’, ‘इंसाफ का तराज़ू’, ‘वो सात दिन’, ‘विधाता’, ‘स्वर्ग से सुंदर’ और ‘सौतन’ जैसी यादगार फिल्मों में अपनी अदाकारी से दर्शकों के दिलों में खास जगह बनाने वाली सशक्त अभिनेत्री पद्मिनी कोल्हापुरे...

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Padmini Kolhapure
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‘प्रेम रोग’, ‘इंसाफ का तराज़ू’, ‘वो सात दिन’, ‘विधाता’, ‘स्वर्ग से सुंदर’ और ‘सौतन’ जैसी यादगार फिल्मों में अपनी अदाकारी से दर्शकों के दिलों में खास जगह बनाने वाली सशक्त अभिनेत्री पद्मिनी कोल्हापुरे (Padmini Kolhapure) करीब 11 साल बाद ऐतिहासिक शो ‘चक्रवर्ती सम्राट पृथ्वीराज चौहान’ (Chakravarti Samrat Prithviraj Chauhan) से टेलीविज़न पर वापसी कर रही हैं. बचपन में ही अभिनय की दुनिया में कदम रखने वाली पद्मिनी ने न सिर्फ़ कम उम्र में गंभीर और संवेदनशील भूमिकाएं निभाईं, बल्कि 80 और 90 के दशक में महिला-प्रधान फिल्मों को नई ऊँचाई भी दी. उन्होंने अपने अभिनय करियर में राज कपूर (Raj Kapoor), बी.आर. चोपड़ा (B. R. Chopra) और वी. शांताराम (V. Shantaram) जैसे दिग्गज निर्देशकों के साथ काम किया है. 

हाल ही में उन्होंने इंटरव्यू दिया जिसमें उन्होंने अपने फिल्मी सफर, उस दौर के सिनेमा, महिला कलाकारों की स्थिति और आज के समय में आए बदलावों को लेकर खुलकर बात की. आइये जाने उन्होंने क्या कुछ कहा...

करीब 11 साल बाद आप टेलीविज़न पर वापसी कर रही हैं और वो भी ‘चक्रवर्ती सम्राट पृथ्वीराज चौहान’ जैसे भव्य ऐतिहासिक शो के ज़रिए. क्या खास वजह रही कि आपने अपनी कमबैक के लिए इसी प्रोजेक्ट को चुना?

पृथ्वीराज चौहान की दुनिया में कदम रखना ही मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी. ऐसी भूमिका मिलना दुर्लभ है जिसमें इतनी गहराई और शांत शक्ति हो. ‘पानीपत’ मेरी पहली ऐतिहासिक फिल्म थी जिसे करने में बहुत मजा आया था. मगर फिल्म में आपको 3 घंटे में सब दिखाना पड़ता है जबकि टीवी पर आप किरदार की गहराई को विस्तार से दिखा सकते हैं. अभी मैंने ‘छावा’ (विक्की कौशल की फिल्म) देखी और लगा कि इन नायकों की कहानी कहना बहुत जरूरी है.

कम उम्र में ही आपने ‘इंसाफ का तराज़ू’ और ‘प्रेम रोग’ जैसी फिल्मों में बहुत ही साहसी और गंभीर किरदार निभाए. इन फिल्मों में कई बार इमोशनली और फिजिकली डिमांडिंग सीन भी थे. एक युवा कलाकार के तौर पर उन किरदारों को निभाना आपके लिए कैसा अनुभव था?

देखिए, ये तो डायरेक्टर के हाथ में होता है कि वे ऐसे सीन को कैसे फिल्माते हैं. उस समय में इतने बड़े-बड़े डायरेक्टर्स थे, राज कपूर, बीआर चोपड़ा, वी शांताराम, वे एक जुनून के साथ फिल्म बनाते थे. उनको सिनेमा से मोहब्बत थी जिसको मैंने खुद देखा है. वे यह सोचकर फिल्म नहीं बनाते थे कि वह चलेगी या नहीं. उन्हें स्क्रिप्ट पसंद आती थी, तो वे उसमें बिल्कुल डूब जाते थे. वे इस नीयत से सिनेमा बनाते थे. दूसरे, चूंकि मैं बचपन से ही काम करती आ रही हूँ तो मुझे उसमें ऐसा कुछ अलग या असहज नहीं लगा. मैं तो नर्वस तब हुई थी, जब पहली बार ऋषि कपूर (Rishi Kapoor) जी के साथ (प्रेम रोग) काम करना था. मैं ऋषि जी की बहुत बड़ी फैन थी. हमने गाने से शूटिंग शुरू की थी और मुझे उनकी बाहों मे गिरना था. आप सोचिए, मैं उनकी फैन थी और मेरा पहला शॉट हो रहा है, तो मैं थोड़ी नर्वस थी. चूंकि वे इतने सीनियर कलाकार है, तो वे मेरी नर्वसनेस समझ गए और मुझे बिल्कुल सहज कर दिया.

बचपन में आपने एक्टिंग की दुनिया में कदम रखा और काफी काम भी किया. क्या आप उस वक्त इसे एंजॉय करती थीं? क्योंकि कुछ कलाकार जैसे नीतू कपूर का कहना है कि बचपन में एक्टिंग उन्हें बोझ लगती थी, इसलिए शादी के बाद उन्होंने इससे दूरी बना ली. .क्या आपका नजरिया अलग था?

मैंने भी 21 साल की उम्र में एक्टिंग छोड़ दी थी, जब मेरी शादी हुई क्योंकि तब मैं सुबह से लेकर रात तक बिजी रहती थी. उस समय तो हफ्ते में सातों दिन, साल में 365 दिन नॉनस्टॉप शूटिंग हुआ करती थी. आप सोचिए, मैं बच्ची ही थी न. बच्ची छोड़िए, कोई बड़ा भी हो तो सुबह 7 बजे से रात के 11-12 बजे तक बाहर ही रहे. आज कल, परसों, 10 दिन, 15 दिन, महीना, एक साल, तो इंसान थक ही जाता है न, तो ये सब हुआ मेरे साथ. इसलिए, मैंने भी जब शादी की तो खुद ही तय कर लिया था कि शादी के बाद मैं काम छोड़ दूंगी. बहुत हो गया और मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है. अभी लोग सोचते हैं कि अब फिर से काम क्यों कर रही हूँ, तो वह इसलिए क्योंकि मैं यही एक काम जानती हूँ.

अक्सर कहा जाता है कि अब फिल्में सिर्फ हीरो के इर्द-गिर्द नहीं घूमतीं, बल्कि महिलाओं के लिए भी सशक्त किरदार लिखे जा रहे हैं. एक महिला कलाकार होने के नाते आप इस बदलाव को कैसे देखती हैं?

ये मुझे उल्टी बात लगती है. अभी मैं किसी से बात कर रही थी, तो उनका कहना था कि उस जमाने में जिस तरह से महिला प्रधान फिल्में हुआ करती थी, वह अभी नहीं बन रही है, तो ये नजरिए की बात है. अपने जमाने में मैंने ढेरों अच्छी फिल्में और बहुत बढ़िया किरदार किए हैं जैसे- प्रेम रोग, इंसाफ का तराजू, वो सात दिन और सौतन, जिनके बारे में आज भी चर्चा होती है. यही नहीं, उस जमाने में हम 5 या 6 ही लड़कियां थीं. जबकि आज 50 से 100 लड़कियां है तो प्रतियोगिता बहुत ज्यादा हो गई है. आप देखेंगे तो 8-10 लड़कियां ही टॉप पर हैं जो राज कर रही हैं. मगर मेकर्स के पास विकल्प बहुत हैं कि अच्छा, ये नहीं तो वह सही. उस वक्त ऐसा नहीं था. तब कहानी लिखी जाती थी, फिर सोचते थे कि इस रोल के लिए कौन सही रहेगा और उसके पास जाते थे, जबकि अब ऐसा कुछ भी नहीं है आपके पास हजारों विकल्प है.

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करीना कपूर, आलिया भट्ट और दीपिका पादुकोण जैसी अभिनेत्रियां शादी और मां बनने के बाद भी एक्टिव हैं और 8 घंटे के वर्क कल्चर की मांग कर रही हैं. क्या आप इसे इंडस्ट्री में एक सकारात्मक बदलाव मानती हैं?

काम के घंटे निश्चित तौर पर कम होने चाहिए. ऐसा नहीं कि 12-14 घंटे की शिफ्ट हो. मैं ‘सिने एंड टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन’ (CINTAA) की सीनियर वाइस प्रेजिडेंट भी हूँ तो हम इसके लिए बहुत समय से लड़ रहे है, आग्रह भी कर रहे हैं कि प्लीज! थोड़ी- सी सहूलियत करें. मुझे लगता है कि कुछ बड़े कलाकार भी इसमें जुड़ जाएं और तो सभी कलाकारों के लिए काम करना आसान हो जाएगा, क्योंकि अभिनय में शारीरिक और मानसिक दोनों स्तर पर बहुत मेहनत होती है. 

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