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'आंगन की तुलसी' से 'लिव-इन रिश्तों' तक: समाज, कानून और महिलाओं की बदलती तस्वीर

एक समय, समाज में एक शब्द का बहुत महत्व था - शब्द था "रखना (कीप)". जब यह शब्द किसी पुरुष द्वारा किसी स्त्री के लिए इस्तमाल होता था तो इस सरल शब्द का कठोर और अपमान जनक अर्थ निकलता था...

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By Sulena Majumdar Arora
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'आंगन की तुलसी' से 'लिव-इन रिश्तों' तक समाज, कानून और महिलाओं की बदलती तस्वीर
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एक समय, समाज में एक शब्द का बहुत महत्व था- शब्द था "रखना (कीप)". जब यह शब्द किसी पुरुष द्वारा किसी स्त्री के लिए इस्तमाल होता था तो इस सरल शब्द का कठोर और अपमान जनक अर्थ निकलता था. इस शब्द का उपयोग उस महिला का वर्णन करने के लिए किया जाता था जो किसी पुरुष के साथ अवैध रूप से अर्थात बिना शादी किए रहती है. उस स्त्री को रखैल कहा जाता था, (जिसे आज एक वर्जित शब्द माना जाता है) और उस रिश्ते को दबा कर छिपा कर रखा जाता था.

समाज के स्पष्ट नियम थे: पत्नी का सम्मान और रखैल का नहीं. कानून के भी स्पष्ट नियम थे: पत्नी के पास अधिकार थे, दूसरी स्त्री के पास कोई अधिकार नहीं था. यदि कोई पुरुष मर जाता है, तो उसकी संपत्ति पर वो दूसरी औरत कोई दावा नहीं कर सकती. यदि पुरुष उससे उकता कर उसे छोड़ भी देता है, तो वह अकेली रह जाती है, बिना कोई कॉमपेंसेसन, बिना किसी सुरक्षा और सम्मान के.

इस विषय पर चलिए बॉलीवुड से शुरू करते हैं, क्योंकि बॉलीवुड हमारे समाज का आईना है. पुराने दिनों में, बॉलीवुड की फ़िल्मों में "रखैल" या "दूसरी स्त्री" को एक दुखद व्यक्ति के रूप में दिखाया जाता था.

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ऐसी ही बोल्ड विषय पर बनी फ़िल्म 'अमर' (1954) एक सम्मानित वकील की कहानी है जो अंजू से प्रेम विवाह करने वाला है लेकिन एक दिन एक अकेली महिला सोनिया से भावावेश में शारीरिक संबंध बना लेता है लेकिन उसे अपना नहीं पाता. सोनिया गर्भवती हो जाती है, और दुनिया उसे प्रताड़ित करती है. यह इस बात पर प्रकाश डालती है कि कैसे समाज ऐसी परिस्थितियों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक कठोरता से आंकता है.

mughal e azam

मुगल-ए-आज़म' (1960) में, अनारकली एक तवायफ नर्तकी है जो राजकुमार सलीम से प्यार करती है. उनकी प्रेम कहानी को सम्राट अकबर से कड़ा विरोध झेलना पड़ता है, क्योंकि अनारकली शाही पृष्ठभूमि से नहीं है. लेकिन सलीम उसे छुप कर प्यार करता रहता है और दुनिया की नज़रों से दूर दोनों एक दूसरे में समा जाते हैं.

sahub biwi aur gulam

1962 की फ़िल्म "साहिब बीबी और ग़ुलाम" को ही लीजिए. नायक के घर में एक पत्नी है, लेकिन वह एक तवायफ से भी प्यार करता है,, एक ऐसी महिला जो पैसे के लिए उस पुरुष के आगे नाचती-गाती है, देह लुटा देती हैं . वो नर्तकी रखैल काफी सुंदर, दयालु और प्यार से भरी हुई है, लेकिन उसे समाज नचनिया ही पुकारते हैं अक्सर ऐसी औरत को देह व्यापारी का दर्जा दिया जाता है. 

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एक और मशहूर फ़िल्म है 1972 की "पाकीज़ा". एक तवायफ़ है, जिसे एक अमीर आदमी प्यार करता है. लेकिन वह कभी उसकी पत्नी नहीं बन सकती. उसे एक खूबसूरत घर में रखा जाता है, गहने और प्यार दिया जाता है, लेकिन उसे उस अमीर आदमी के असल ज़िंदगी में आने की इजाज़त नहीं है. अंत में, वह दिल टूटकर, अकेली और भुला दी जाती है और वो एक अवैध संतान को जन्म देकर मर जाती है. फिर उस बेटी साहिबजान का जीवन तूफानों की चपेट में डूबता उतराता है. साहिबजान भी अपनी मां के कारण कोठे में पली-बढ़ी है. वह एक बेहतर जीवन का सपना देखती है और किसी भद्र व्यक्ति के प्यार में पड़ जाती है, लेकिन समाज उसे कभी भी उसकी पृष्ठभूमि को भूलने नहीं देता. फिल्म उसके दर्द, बलिदान और दिल टूटने पर खत्म होती है. फ़िल्म खूबसूरत गानों और नृत्यों से भरी हुई है, लेकिन संदेश स्पष्ट है: "दूसरी महिला" सही मायने में स्वीकार किए जाना आसान नहीं. फिल्मों में हैप्पी एँडिंग हो सकता है लेकिन असल जीवन में मुश्किल है.

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फ़िल्म "अमर प्रेम" में भी नायक के जीवन में दूसरी स्त्री की कहानी है. नायक आनंद बाबू अपनी शादी से खुश नहीं है. वह पुष्पा नाम की गाने वाली तवायफ के साथ प्रेम करने लगता है. पुष्पा को समाज में 'रखैल' कहा जाता है, लेकिन जब आनंद बाबू अकेला महसूस करता है तो वह उसे प्यार और देखभाल देती है. लेकिन वो जीवन में अकेली रहती है.

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"मैं तुलसी तेरे आंगन की" ठाकुर राजनाथ सिंह नाम के एक व्यक्ति की कहानी है, जिसकी पत्नी संजुक्ता है, लेकिन वह एक अन्य महिला तुलसी से भी प्यार करता है. तुलसी उसके घर के एक कोने में पड़ी रहती है, लेकिन उसे उसकी पत्नी के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया जाता है.

अस्सी का दशक बीतते बीतते, स्त्री पुरुष के संबंधों और स्थितियों में भी बदलाव होने लगा. "रखैल" शब्द फीका पड़ने लगा, इसकी जगह एक नया, अधिक आधुनिक, अंग्रेजी शब्द आ गया: "लिव-इन पार्टनर" यह नया शब्द क्रूर या कठोर नहीं बल्कि सॉफ्ट और अधिक खुला था. बिना शादी किए किसी पुरुष के साथ रहना अब गुप्त नहीं रखा जाता था, चाहे वो मर्द शादीशुदा ही क्यों न हो. लिव-इन पार्टनर को छिपा कर रखने की जरूरत नहीं थी. वह खुलेआम किसी पुरुष के साथ रह रही थी, कभी प्यार के लिए, कभी साथ के लिए, कभी पैसों के लिए, कभी रहने की जगह ना होने के कारण या सिर्फ़ इसलिए क्योंकि ज़िंदगी जटिल है.

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और यह नया परिचय फ़िल्म जगत में इज़्ज़त के साथ देखी जाने लगी. सच पूछिए तो फिल्में वाकई असली जीवन का दर्पण होता है तो जैसे-जैसे समय बीतता गया, बॉलीवुड बदलने लगा. 1980 के दशक में, "अर्थ" और "सिलसिला" जैसी फिल्मों ने पुरुष के जीवन में दूसरी औरत की एक और उलझी हुई तस्वीर पेश की. महेश भट्ट द्वारा निर्देशित "अर्थ" में पति अपनी पत्नी को छोड़कर दूसरी महिला के पास चला जाता है. शबाना आज़मी द्वारा अभिनीत पत्नी पीड़ित होती है, लेकिन वो अपनी ताकत भी तलाशती है. आश्चर्यजनक बात यह है कि स्मिता पाटिल द्वारा अभिनीत दूसरी स्त्री को बुरी या चारित्रहीन के रूप में नहीं दिखाया गया है. वह सिर्फ़ एक प्रेम में पीड़ित महिला दर्शित की गई, जो मुश्किल हालात में फंसी हुई है. फिल्म उसे दोषी नहीं ठहराती, लेकिन वो दूसरे के पति को भी नहीं छोड़ती. यह दिखाती है कि प्यार जटिल है, और हर कोई अपने तरीके से पीड़ित होता है.

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सावन कुमार टाक कृत फ़िल्म "सौतन" श्याम नाम के एक व्यक्ति की कहानी है, जिसकी शादी रुक्मिणी से हुई है. लेकिन रुक्मिणी अपनी सौतेली मां और सौतेली मामा के वश में अपने पति को इतना तंग करती है कि वो अपनी पत्नी से दूर हो जाता है और छिपकर राधा को अपनाता है. तब लोग राधा को रखैल करार देते हैं. फिल्म उस दर्द और ईर्ष्या को दिखाती है जो तब होती है जब एक आदमी के जीवन में दूसरी महिला आ जाती है.

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यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित "सिलसिला" प्रेम त्रिकोण के बारे में एक और प्रसिद्ध फिल्म है. अमिताभ बच्चन एक ऐसे व्यक्ति की भूमिका निभाते हैं, जो जया बच्चन से विवाहित है, लेकिन रेखा से प्यार करता है, उसके पास छिप कर मिलन करता है. फिल्म खूबसूरत दृश्यों और गानों से भरी हुई है, लेकिन यह तीनों किरदारों के दर्द को भी दिखाती है. पत्नी सिर्फ़ पीड़ित नहीं है, दूसरी महिला सिर्फ़ खलनायिका नहीं है, और पुरुष सिर्फ़ नायक नहीं है. हर कोई इंसान है, जिसमें भावनाएँ और खामियाँ हैं.

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महेश भट्ट की फिल्म 'ज़ख्म' की कहानी, हीरो अजय की माँ के बारे में है, जिसका एक हिंदू व्यक्ति रमन देसाई के साथ गुप्त अवैध' संबंध हो जाता है. अलग धर्मों के कारण वे खुले तौर पर मिल नहीं सकते थे. रमन की कहीं और शादी हो जाती है. लेकिन फिर भी वो छुप कर उसे अलग घर में रखता है और उसके साथ सप्ताह में कुछ दिन मिलने आता है. उनके बच्चे भी पैदा होते हैं. लोग उसे अवैध अविवाहित माँ के रूप में अपमानित करते हैं.

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'उमराव जान', 'बाज़ार' और 'निकाह' जैसी अन्य फ़िल्मों में भी महिलाओं को गौण भूमिकाओं में दिखाया गया है, अक्सर रखैल या तवायफ के रूप में, उनकी कहानियाँ पीड़ा, बलिदान और समाज द्वारा उन्हें दिए जाने वाले सम्मान की कमी पर केंद्रित हैं.

इन फ़िल्मों में, 'कीप' को लगभग हमेशा परिस्थितियों का शिकार दिखाया जाता था, जिसका अपने जीवन पर बहुत कम नियंत्रण होता था. हाल के वर्षों में, बॉलीवुड ने लिव-इन रिलेशनशिप को ज़्यादा खुले तौर पर दिखाना शुरू कर दिया है. 

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अब 'कीप' यानी रखैल की अवधारणा लगभग गायब हो गई है और इसकी जगह लिव-इन रिलेशनशिप के विचार ने ले ली है. आज, 'सलाम नमस्ते', 'प्यार का पंचनामा', 'शुद्ध देसी रोमांस', 'ओके जानू' और 'लुका छुपी' जैसी फ़िल्में बिना शादी के साथ रहने वाले जोड़ों को दिखाती हैं. ये फ़िल्में साथ रहने की चुनौतियों, पारिवारिक प्रतिक्रियाओं और बदलते सामाजिक मूल्यों पर प्रश्न उठाती है.

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'सलाम नमस्ते' पहली बड़ी फ़िल्मों में से एक थी, जिसमें लिव-इन रिलेशनशिप को खुले तौर पर दिखाया गया था, जिसमें जोड़े को गर्भावस्था और प्रतिबद्धता जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. 'शुद्ध देसी रोमांस' और 'लुका छुपी' दिखाती है कि कैसे आज के युवा अपने रिश्ते चुनने की आज़ादी चाहते हैं, लेकिन फिर भी उन्हें पारंपरिक परिवारों और समाज से दबाव का सामना करना पड़ता है .

अतः पुरानी बॉलीवुड फ़िल्मों ने 'कीप' को एक दुखद व्यक्ति के रूप में दिखाया, जबकि आधुनिक फ़िल्में लिव-इन रिलेशनशिप को जीवन के एक सामान्य हिस्से के रूप में दिखाने की ओर आगे बढ़ी हैं, जो प्यार और रिश्तों के बारे में समाज की सोच में बदलाव को दर्शाती हैं.

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होमी अदजानिया द्वारा निर्देशित "कॉकटेल" में दो महिलाएँ - दीपिका पादुकोण और डायना पेंटी - दोनों एक ही आदमी से प्यार करती हैं. फ़िल्म दिखाती है कि प्यार में गड़बड़ होती है और कभी-कभी लोग गलतियाँ कर देते हैं. यह महिलाओं को जज नहीं करती, लेकिन यह उनकी पसंद के परिणामों को दिखाती है.

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इस विषय में असल ज़िंदगी पर आधारित फ़िल्में भी हैं. शेखर कपूर द्वारा निर्देशित "बैंडिट क्वीन" फूलन देवी की कहानी है, एक ऐसी महिला जिसकी बचपन में शादी कर दी गई थी, फिर वह डाकू बन गई और शादी के बाहर उसके कई रिश्ते बनने लगे . फ़िल्म उसके दर्द, उसकी ताकत और समाज का उसके प्रति व्यवहार को दिखाती है. मिलन लुथरिया द्वारा निर्देशित फ़िल्म "द डर्टी पिक्चर" सिल्क स्मिता के जीवन पर आधारित है, जो एक मशहूर अभिनेत्री थीं और अपनी बोल्ड भूमिकाओं और अपने छिपे हुए रिश्तों के लिए जानी जाती थीं. वह शादीशुदा नहीं थीं, लेकिन वह अपनी खूबसूरती और अपने अफेयर्स के लिए मशहूर थीं. फिल्म में दिखाया गया है कि उन्हें कैसे आंका गया और उन्होंने कैसे कष्ट झेले, लेकिन यह भी कि वह कितनी मजबूत और स्वतंत्र थीं.

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अब, आइए असल जिंदगी के बॉलीवुड सितारों पर भी नज़र डालते हैं. पुराने दिनों में, 1930 से 1970 के दशक तक, लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में सुनना दुर्लभ था. ज़्यादातर अभिनेता शादीशुदा थे और अगर उनके अफेयर्स होते भी थे, तो वे इसे एकदम गुप्त रखते थे. उन दिनों सोशल मीडिया ना होने से ऐसे संबंध उजागर नहीं होते थे. मशहूर अभिनेत्री शोभना समर्थ अपने पति से अलग रहती थी लेकिन उनकी दोस्ती अभिनेता मोतीलाल से प्रगाढ़ बताई जाती रही. हालाँकि दोनों ने एक दूसरे से शादी नहीं की लेकिन सोशल मीडिया में दोनों को एक दूसरे का पार्टनर बताया गया. प्रसिध्द फ़िल्म मेकर चेतन आनंद के साथ अभिनेत्री प्रिया राजवंश की शादी नहीं हुई लेकिन दोनों के साथ रहने की कहानियां है. परवीन बाबी, सुशांत सिंह जैसे ना जाने और कितने ऐक्टर्स है जो जीवन भर लिव इन में रहे और आखिर में अकेले ही रह गए.

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वैसे तो आजकल की यह चलन बन गई है की लगभग सभी अभिनेत्रियां और अभिनेता बरसों से लिव इन में रहने और एक दूसरे को परखने के बाद ही शादी करते हैं. यानी जैसे-जैसे समाज बदला, वैसे-वैसे बॉलीवुड भी बदला.

लेकिन क्या समाज कानून की तरह तेज़ी से बदला? क्या लोगों ने लिव-इन पार्टनर का उतना ही सम्मान करना शुरू कर दिया जितना वे पत्नी का करते हैं? इसका जवाब जटिल है.

लेकिन कानून का क्या? पहले, "रखैल" या "दूसरी महिला" के पास कोई अधिकार नहीं था. अगर कोई पुरुष मर जाता है, तो वह उसकी संपत्ति पर दावा नहीं कर सकती. अगर वह उसे छोड़ देता है, तो उसका कोई सहारा नहीं होता. समाज और कानून ने उसे नज़रअंदाज़ किया और उल्टा महिला को दोषी ठहराया. लेकिन अब, कानून बदल गया है.

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समाचारों में लिव-इन रिलेशनशिप और "दूसरी महिला" के अधिकारों के बारे में कई कहानियाँ हैं. 2010 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि जो महिला लंबे समय तक किसी पुरुष के साथ रहती है, वह पत्नी की तरह ही भरण-पोषण पाने की हकदार है. 2013 में न्यायालय ने कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप में पैदा हुए बच्चों को भी विवाह में पैदा हुए बच्चों के समान अधिकार हैं. ये बड़े बदलाव हैं और ये दिखाते हैं कि कानून आगे बढ़ रहा है.

लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि समाज भी बदल गया है? नहीं. आज भी, "दूसरी महिला" को अक्सर गलत नज़रों से जज किया जाता है. लोग कहते हैं कि वह लालची है, घर तोड़ रही है. शब्द "कीप या रखैल अब" पुराना हो सकता है, लेकिन भावनाएँ अभी भी वही हैं. शब्द "लिव-इन पार्टनर" नया है, लेकिन दर्द और संघर्ष वही है. महिला को अभी भी दोषी ठहराया जाता है, अभी भी उसका न्याय किया जाता है, और अभी भी उसे शर्मिंदा महसूस कराया जाता है.

"रखैल" से "लिव-इन पार्टनर" तक का सफ़र बदलाव का सफ़र है, लेकिन यह अभी खत्म नहीं हुआ है. और शायद कभी नहीं होगा.

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