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एक तरफ बड़े बजट की स्टार कलाकारों वाली फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धूल चाट रही हैं, तो दूसरी तरफ प्रांतीय सिनेमा के वाहक जमीन से जुड़ी कहानियाँ पेश कर रहे हैं। ये प्रांतीय फिल्मकार उन तबकों की कहानियों पर फिल्में बना रहे हैं, जो लम्बे समय से हाशिए पर रही हैं। ऐसे ही फिल्मकार हैं गजेंद्र शंकर श्रोत्रिय, जो ग्रामीण परिवेश, राजनीतिक परिवेश और आदिवासी पृष्ठभूमि पर इंसानी जटिल रिश्तों को उकेरने वाली फिल्में बहुत अच्छे स्तर पर बना रहे हैं और इंटरनेशनल स्तर पर पुरस्कार भी बटोर रहे हैं। (Gajendra Shankar Shrotriya regional cinema filmmaker profile)
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फिल्मकार गजेंद्र शंकर श्रोत्रिय ने अपनी पहली राजस्थानी फीचर फिल्म ‘‘भोभर’’ से ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी। उसके बाद उन्होंने अपनी हिंदी फिल्म ‘कसाई’ के जरिए कई ऐसे सवाल उठाए, जो आज समाज और समय की जरूरत हैं। राजस्थान के कुछ गाँवों में प्रेतात्मा, भूत आदि को गजेंद्र ने ‘कसाई’ के माध्यम से संबोधित किया। इसके बाद उन्होंने नारी सशक्तिकरण के मुद्दे पर वेब सीरीज ‘‘वकील साहिबा’’ बनाई। फिर ग्रामीण परिवेश में इंसान के बंदूक उठाने की वजहों को रेखांकित करने वाली फिल्म ‘‘भवानी’’ बनाई। और अब आरक्षण आंदोलन के बैकड्रॉप पर प्रेम कहानी वाली फिल्म ‘‘चक्का जाम’’ बनाई, जो 28 नवंबर से ओटीटी प्लेटफॉर्म ‘‘स्टेज’’ पर स्ट्रीम होगी।
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पेश हैं गजेंद्र शंकर श्रोत्रिय से हुई बातचीत के खास अंश
अब तक की अपनी फिल्मी यात्रा को किस तरह देखते हैं? मुझे फिल्में बनाते हुए 18 वर्ष हो गए। मैं खुद को स्व-प्रशिक्षित फिल्म निर्देशक मानता हूँ। मैंने बतौर सहायक निर्देशक भी किसी के साथ काम नहीं किया। फिल्म मेकिंग की कोई ट्रेनिंग नहीं ली। मैंने जो कुछ सीखा, वह सब भारतीय व विश्व सिनेमा को देखकर ही सीखा। सच कहूँ तो साठ व सत्तर के दशक का सिनेमा देखकर मेरे अंदर सिनेमा के प्रति रुझान पैदा हुआ। मैंने सबसे पहले सीखा कि फिल्म की स्क्रिप्ट कैसे लिखी जाती है। इसके लिए कुछ स्क्रिप्ट पढ़ीं। मतलब फिल्म मेकिंग की मेरी प्रक्रिया काफी रोचक रही है। सीखने का क्रम तो आज भी जारी है। अभी भी बहुत कुछ सीखना बाकी है। हर फिल्म के बाद अहसास होता है कि कुछ कमी है। 18 वर्षों बाद मुझे लगता है कि अब मैं बेहतरीन विद्यार्थी हो गया हूँ। पहले मुझे पता नहीं था कि मुझे क्या सीखना है, पर अब पता है कि मुझे क्या सीखना है। अपने अंदर की कमियों का अब मुझे अहसास है। जब मेरे पास नई फिल्म आती है, तो मेरी कोशिश होती है कि मैं पुरानी कमियाँ न रहने दूँ। (Indian provincial filmmakers focusing on marginalized communities)
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Kartik Aaryan Romantic Hero: कार्तिक आर्यन: न्यू-जेनेरेशन रोमांटिक हीरो
18 वर्षों के अंतराल में आपने कई फिल्में निर्देशित कीं। पर किस फिल्म ने आपको संतुष्टि प्रदान की? यह बहुत टेढ़ा सवाल है। मैंने ओटीटी प्लेटफॉर्म ‘स्टेज’ के अलावा दो फिल्में बनाईं, जो सिनेमाघरों में रिलीज हुईं। इनमें से ‘‘भोभर’’ काफी लोकप्रिय हुई। ‘‘भोभर’’ इस मामले में संतुष्टि देती है कि वह मेरा लेखक और निर्देशक के तौर पर पहला प्रयास था। जिसे मैंने बहुत ही सीमित संसाधनों में बनाया था। उस लिहाज से इस फिल्म ने अच्छी संतुष्टि दी थी। मगर क्राफ्ट के स्तर पर काफी कमियाँ थीं। उस वक्त मैं उतना परिपक्व नहीं था, जितना आज हूँ। उसके बाद कुछ कमर्शियल काम किया, तो संसाधन बेहतर थे। एक अच्छी टीम साथ में थी। जब फिल्म ‘‘कसाई’’ बनाई, तब भी अच्छी टीम थी। फिल्म में मीता वशिष्ठ, वी. के. शर्मा, अशोक बांठिया, रवि झांकल जैसे अनुभवी कलाकार थे। इस तरह के अनुभवी कलाकारों से फायदा ही हुआ। पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट की प्रशिक्षित टीम के साथ काम करने से आनंद आ गया था। और मुझे सिनेमैटोग्राफी व साउंड सहित फिल्म मेकिंग के कई पहलुओं को सीखने का अवसर मिला। अभी मेरी एक फिल्म ‘‘चक्का जाम’’ है, जो 28 नवंबर को ओटीटी प्लेटफॉर्म ‘स्टेज’ पर स्ट्रीम होगी। इस फिल्म की शूटिंग के दौरान मुझे साउंड डिजाइनिंग की कुछ ऐसी बातें पता चलीं जो मुझे नहीं पता थीं। तो हर फिल्म बनाते समय मैंने कुछ न कुछ नई बात सीखी। यदि मैंने फॉर्मल ट्रेनिंग ली होती, तो पहले से पता होता। काम करते हुए जब भी कोई समस्या आती है तो मुझे किसी न किसी से उसके बारे में पूछना पड़ता है। इसीलिए मुझे फिल्म बनाने में मजा आता है। (Films based on rural political and tribal background India)
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फिल्म ‘चक्का जाम’ क्या है और इसका बीज कहाँ से आया? मशहूर लेखक चरण सिंह पथिक की एक लघु कहानी पर यह फिल्म आधारित है। ओटीटी प्लेटफॉर्म ‘स्टेज’ ने पथिक जी से यह कहानी ली थी। उन दिनों मैं फिल्म ‘‘भवानी’’ बना रहा था, इसलिए मैं ‘‘चक्का जाम’’ करने में असमर्थ था। तब ‘स्टेज’ ने इस फिल्म का निर्देशन किसी दूसरे निर्देशक को सौंपा था, पर फिर फिल्म बनी नहीं। जब मैं फ्री हुआ, तो स्टेज ने बुलाकर यह फिल्म मुझे दी। चरण सिंह पथिक के साथ मैं पहले भी काम कर चुका हूँ। ‘‘कसाई’’ और ‘‘भवानी’’ भी चरण सिंह पथिक की ही कहानी पर मैंने बनाई थीं। तो वह मेरी संजीदगी से परिचित थे। जिस माहौल की ‘‘चक्का जाम’’ कहानी है, उस माहौल को भी मैं समझता हूँ। यह कहानी पूर्वी राजस्थान की है। आरक्षण को लेकर जो विवाद रहा है, गुर्जर आंदोलन काफी चर्चा में रहा था। हालांकि अब यह आंदोलन ठंडा पड़ चुका है। लेकिन उसी विवाद को केंद्र में रखकर पथिक जी ने एक कहानी लिखी थी, जिस पर फिल्म ‘‘चक्का जाम’’ बनी है। जब यह फिल्म मेरे पास आई, तो मैंने अपनी समझ के अनुसार स्क्रिप्ट में कुछ बदलाव किए और फिर फिल्म को शूट किया। अब 28 नवंबर को रिलीज होने वाली है।
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जहाँ तक फिल्म ‘‘चक्का जाम’’ की कहानी का सवाल है, तो यह फिल्म आरक्षण विवाद पर ही आधारित है। कहानी में एक फौजी है जो ट्रेनिंग से अपने गाँव आया है। उसकी शादी तो होती है, पर पत्नी के साथ उसका गौना नहीं हो पाता। और उसे ट्रेनिंग के लिए जाना पड़ता है। अब वह वापस आ रहा है तो अपनी पत्नी से मिलने को लेकर काफी उत्सुक है। उसकी पत्नी के अंदर भी पति से मिलने की एक आग है। जब फौजी अपनी पत्नी को लेने के लिए निकलता है, तभी आरक्षण आंदोलन की घोषणा हो जाती है। पूरे राज्य का माहौल खराब हो जाता है। दंगे-फसाद के बीच चक्का जाम हो जाता है। हाईवे बंद कर दिया जाता है। वाहनों की आवाजाही रोक दी जाती है। अब इस माहौल में यह फौजी अपने घर से निकलता है, कुछ माहौल ऐसा बनता है कि लड़की भी अपने घर से निकलती है। अब इस बिगड़े माहौल में किस तरह ये दोनों, दो समुदायों के बीच फँसते रहते हैं, और ये दोनों मिल पाते हैं या नहीं... यही कहानी है। वैसे कहानी का आरक्षण आंदोलन से कोई संबंध नहीं है। केवल कहानी का पॉलिटिकल बैकग्राउंड है। असली कहानी फौजी और उसकी पत्नी के मिलने या न मिलने की है। मैंने इस रोमांटिक प्रेम कहानी की ही तरह बनाया है।
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आरक्षण विवाद को बैकग्राउंड में रखने से कहानी पर क्या असर हुआ? हमारी कहानी में दो प्रेमियों या यूँ कहें कि शादीशुदा लोगों के मिलन का विलेन आरक्षण आंदोलन है।
‘Perfect Family’ ट्रेलर लॉन्च: नेहा धूपिया–गुलशन देवैया की ड्रामेडी 27 नवंबर से YouTube पर
फिल्म के लिए कलाकारों का चयन किस तरह से किया गया? फिल्म की कास्टिंग हमने स्टेज के साथ मिलकर ही की है। कास्टिंग के लिए ऑडिशन प्रक्रिया उपयोग की गई। मगर हमारा मकसद बड़े कलाकारों को ढूँढना कदापि नहीं रहा। हम तो नए मगर प्रतिभाशाली कलाकारों की ही तलाश में थे। इस फिल्म की हीरोइन प्रियांशी राठौड़ इससे पहले भी स्टेज के साथ काम कर चुकी हैं, तो उनके नाम का सुझाव स्टेज की ही तरफ से आया। मैंने उनका काम देखा, तो मुझे सही लगा। हीरो के लिए हमने करीबन आठ-दस कलाकारों का ऑडिशन लिया था, जिसमें से महिपाल सिंह को हमने चुना। यह मूलतः सीकर के रहने वाले राजस्थानी हैं, मगर मुंबई फिल्म उद्योग में सक्रिय हैं। उस वक्त वह श्रीराम राघवन की एक फिल्म कर रहे थे। उस फिल्म में भी वह फौजी के ही किरदार में थे। राजस्थानी भाषा पर उनकी पकड़ भी अच्छी है। बाकी कलाकार जयपुर थिएटर से हैं। मुंबई में ही कार्यरत निर्मल चिनानिया को भी एक भूमिका के लिए चुना। (Regional cinema vs big-budget Bollywood box office performance)
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फिल्म को कहाँ फिल्माया गया है? यह कहानी पूर्वी राजस्थान की है। लेकिन स्टेज की जरूरत के अनुसार राजस्थान के शेखावटी का पुट रखा है और इसे नागौर जिले के तीन-चार गाँवों में फिल्माया है।
आपकी कहानी का बैकड्रॉप आरक्षण आंदोलन है, जो पिछले छह-सात वर्ष से ठंडा पड़ा हुआ है। तो इससे नई पीढ़ी कैसे रिलेट करेगी? दर्शक तो प्रेम कहानी से जुड़ेंगे। क्योंकि हमने फिल्म तो प्रेम कहानी बनाई है, पर इसमें एक अलग तरह की प्रेम कहानी है। खासियत यह है कि हमारे जो नायक व नायिका हैं, इन्होंने अभी तक एक-दूसरे को देखा ही नहीं है, फिर भी एक-दूसरे से मिलने के लिए कई बाधाओं के बावजूद निकल पड़ते हैं। तो हमने आरक्षण आंदोलन का जो कन्फ्लिक्ट रचा है, उसकी वजह से ये मिल पाते हैं या नहीं, यही रहस्य भी है। दर्शक के लिए यही मुख्य आकर्षण है। जो राजनीति व आरक्षण आंदोलन के इतिहास को समझना चाहता है, वह उसे भी समझ सकता है।
आपने ओटीटी प्लेटफॉर्म स्टेज के साथ काफी काम किया है। फिल्म ‘‘भवानी’’ और ‘‘चक्का जाम’’ के अलावा वेब सीरीज भी बनाई। आपके क्या अनुभव रहे? ओटीटी प्लेटफॉर्म के साथ काम करने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि हमारी फिल्म दर्शकों तक पहुँच गई। अन्यथा स्वतंत्र रूप से फिल्म बनाने पर उसे रिलीज करना और दर्शकों तक पहुँचाना बहुत मुश्किल होता है। स्टेज के साथ काम करते समय हमें दर्शकों तक कैसे पहुँचेगी से लेकर मार्केटिंग के बारे में नहीं सोचना होता है। बजट की समस्या भी ज्यादा नहीं रहती। क्योंकि विचार-विमर्श कर सब कुछ तय हो जाता है। हाँ! नुकसान यही है कि स्वायत्तता कम हो जाती है। ओटीटी प्लेटफॉर्म अपना इनपुट देता ही है। यहाँ सेंसिबिलिटी का ही कन्फ्लिक्ट होता है।
अब क्या योजनाएँ हैं? कुछ कहानियों और स्क्रिप्ट पर काम चल रहा है। इस बार मैं अपनी सेंसिबिलिटी की तरफ वापस लौटना चाहता हूँ। एक फिल्म ग्लोबल और फेस्टिवल के दर्शकों को ध्यान में रखकर काम कर रहा हूँ। एक कमर्शियल फिल्म पर भी काम हो रहा है। (Indian independent filmmakers telling grassroots stories)
फिल्में बॉक्स ऑफिस पर क्यों नहीं चल रही हैं? बॉक्स ऑफिस से अभी तक मेरा वास्ता नहीं पड़ा। लेकिन मैं देख रहा हूँ कि कई बड़े बजट की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर नहीं चल पाईं। इसका असर यह हो रहा है कि कलाकारों के स्टारडम को नुकसान हो रहा है। इससे निर्माता की तकलीफें बढ़ रही हैं।
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FAQ
1. गजेंद्र शंकर श्रोत्रिय कौन हैं?
गजेंद्र शंकर श्रोत्रिय एक प्रांतीय फिल्मकार हैं, जो ग्रामीण, राजनीतिक और आदिवासी पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्मों के लिए जाने जाते हैं।
2. उनकी फिल्मों की खासियत क्या है?
उनकी फिल्मों में जमीन से जुड़ी कहानियों, हाशिए पर मौजूद समुदायों की समस्याओं और इंसानी रिश्तों की जटिलताओं को गहराई से दिखाया जाता है।
3. क्या उनकी फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है?
हाँ, गजेंद्र शंकर श्रोत्रिय की कई फिल्मों को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स में पुरस्कार और सराहना मिली है।
4. प्रांतीय सिनेमा की बढ़ती लोकप्रियता का कारण क्या है?
जमीन से जुड़ी कहानियाँ, वास्तविक सामाजिक मुद्दों पर फोकस और प्रामाणिकता प्रांतीय सिनेमा को आज दर्शकों के बीच बेहद लोकप्रिय बना रही हैं।
5. बड़े बजट वाली फिल्मों की तुलना में प्रांतीय सिनेमा क्यों सफल हो रहा है?
क्योंकि प्रांतीय फिल्में असल ज़िंदगी से जुड़ी कहानियाँ और दर्शकों के अनुभवों को स्क्रीन पर ईमानदारी से पेश करती हैं, वहीं कई बड़े बजट की फिल्में सिर्फ स्टार पावर पर निर्भर रहती हैं।
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