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Dev Anand के 101वें जन्म दिन पर क्यों नाचे सपेरा

हिंदी फिल्मों में कलाकार अपने जीवन में विभिन्न किरदारों को निभाते हुए न जाने कितनी ही जिंदगियां जी लेते हैं. कभी अवसाद में डूबे हुए तो कभी इसके विपरीत एक मसखरे का किरदार निभाना पड़ता है...

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Dev Anand के 101वें जन्म दिन पर क्यों नाचे सपेरा
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हिंदी फिल्मों में कलाकार अपने जीवन में विभिन्न किरदारों को निभाते हुए न जाने कितनी ही जिंदगियां जी लेते हैं. कभी अवसाद में डूबे हुए तो कभी इसके विपरीत एक मसखरे का किरदार निभाना पड़ता है. कभी अमीर की रईसी और शान शौकत से भरी जिंदगी को जीता है तो कभी किसी गरीब की मुफलिसी में बेबस और बेरौनक जिंदगी को जीता हुआ दिखाई देता है. किरदारों के हिसाब से ही उन्हें फिल्मों में गाने भी मिलते हैं. फिर वो गाने जब हम ग्रामोफोन, रेडियो, कैसेट्स टेप रिकॉर्डर, मोबाइल या पेनड्राइव आदि पर सुनते हैं तो सिनेमा के परदे पर फिल्माए गए उस गाने के अभिनेता अभिनेत्रियों का ख्याल दिमाग पर कौंध जाता है बल्कि हमारी स्मृतियों में उसकी फिल्म भी चलने लगती है. लेकिन किसी गीत की सर्जना में एक संगीतकार और उससे ज्यादा गीतकार और उससे भी ज्यादा गायक किस मनोदशा से होकर गुजरता है इस पर हमारा ध्यान नहीं जाता है.

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फिल्म की कहानी के अनुरूप पार्श्व संगीत की स्वर लहरियां छोड़ना, फिल्म के दृश्य और किरदार की मनोदशा के अनुरूप गीत की धुन बनाने में संगीतकार भी फिल्म की कहानी और किरदार की दुनियां में जा बसता है. लेकिन संगीतकार से भी ज्यादा कठिन काम मुझे गीतकार और गायक का लगता है. एक गीतकार और गायक जो हर तरह के एशो आराम से भरी एक खुशनुमा जिंदगी जी रहा है उसे अचानक एक ऐसे गीत की रचना करनी पड़ जाती है जिसकी जिंदगी में दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो. कहने का मतलब कि फिल्मों में सिर्फ अभिनेता,अभिनेत्रियों को ही नहीं संगीतकार, गीतकार और गायक को भी अपने भीतर उस किरदार को जीना पड़ता है. उसे भी निर्देशक की परिकल्पना के अनुरूप सृजन की प्रसव पीड़ा से होकर गुजरना पड़ता हैै ऐसा मैं एक रसिक फिल्म दर्शक के रूप में महसूस करता हूं.

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कल रात मैनें देव आनंद की कालजई फिल्म "गाइड" का वह गाना सुना जो बचपन से ही मेरा बेहद पसंदीदा गीत है. लेकिन इस बार मैंने ये सोचकर सुना कि ये गीत किसी मामूली गीतकार ने नहीं लिखा है. इसे लिखा है हिन्दी सिनेमा के श्रेष्ठतम गीतकार शैलेंद्र ने तो इसमें जरूर कोई गहरी और अपने दिल की बात कही होगी. बस इसी सोच को लेकर मैं इस गीत की गहराई में उतरता चला गया और मैंने महसूस किया कि उन्होंने इस गीत में न केवल "कहते हैं ज्ञानी, दुनियां है फानी" जैसी बात लिखकर एक तरफ हमें सूर, तुलसी और कबीर के रूहानी और आध्यात्मिक लेखन की दुनियां में ले जाते हैं तो इसी गीत के एक अंतरे में अपनी खुद की मनोव्यथा को भी उजागर करते दिखाई देते हैं. 

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सभी जानते हैं कि "गाइड" (1965) के निर्माण के दौर में वो खुद अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म "तीसरी कसम" के निर्माण की त्रासदी से गुजर रहे थे! इस फिल्म के निर्माण में न केवल उन्हें अपने सगे संबंधियों, मित्रों से धोखे मिले बल्कि काफी आर्थिक कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा था. इतनी विकट स्थितियों में भी उनकी रचना धर्मिता प्रभावित नहीं हुई थी . बल्कि मैं तो यहां कहूंगा कि भयंकर दुख तकलीफों के इस दौर में उनकी दूरवायी काव्य प्रतिभा को और भी ज्यादा धारदार बना दिया था. फिल्म की सिचुएशन और संगीतकार की बनाई धुन के मीटर जैसी तमाम बाध्यताओं के बीच अपने मन की बात को कहने के मौके को चीन्हना उन्हें खूब आता था बल्कि मुझे तो उनके भीतर ये दैविक कृपा का बोध कराता है. 

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जिस गीतकार ने हिंदी सिनेमा के महानतम फिल्मकारों राज कपूर, बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों के कथानक को अपने कालजई गीतों के जरिए पूर्णता प्रदान की, उस सपेरे को आज क्यों इस खुदगर्ज और मतलब परस्त दुनियां के सामने नाचना पड़ रहा है? इस गीत के बहाने वो किरदार राजू ( देव आनंद ) के साथ शैलेन्द्र उस दौर में झेली जा रहित अपने मन की पीड़ा, व्यथा और संताप का जैसे पूरा संसार यहां रचते दिखाई देते हैं. फिर उस पीड़ा को धार देने में इस गीत के गायक सचिन देव बर्मन दा भी मुझे पीछे दिखाई नहीं देते, जब वो " रुला देने वाली हंसी " के साथ एक जगह गाते हैं...

तूने तो सबको, राह बताई!
 तू अपनी मंजिल क्यूं भूला?
 सुलझा के राजा, औरों की उलझन
क्यों कच्चे धागों में झूला?
क्यों नाचे सपेरा?
मुसाफिर, जाएगा कहां?.....

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इस चर्चा का कुल लब्बोलुआब और मंतव्य यही है कि जब हम फिल्म "गाइड" का यह गीत सुने तो इसमें सिर्फ फिल्म के अहम किरदार राजू ( देव आनंद ) की पीड़ा को ही महसूस न करें इस गीत में इसे लिखने वाले शैलेंद्र जी की पीड़ा के संसार को भी अंतरमन से महसूस करें. सादर...

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वहाँ कौन है तेरा, मुसाफ़िर, जायेगा कहाँ
दम लेले घड़ी भर, ये छैयां, पायेगा कहाँ
वहां हौन है तेरा...

बीत गये दिन, प्यार के पलछिन
सपना बनी वो रातें
भूल गये वो, तू भी भुला दे
प्यार की वो मुलाक़ातें - २
सब दूर अन्धेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ...

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कोइ भी तेरी, राह न देखे
नैन बिछाये ना कोई 
दर्द से तेरे, कोई न तड़पा 
आँख किसी की ना रोयी - २
कहे किसको तू मेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ...

तूने तो सबको राह बताई 
तू अपनी मंज़िल क्यों भूला 
सुलझा के राजा औरों की उलझन 
क्यों कच्चे धागों में झूला 
क्यों नाचे सपेरा मुसाफ़िर, जाएगा कहाँ 

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कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फ़ानी
पानी पे लिखी लिखायी
है सबकी देखी, है सबकी जानी
हाथ किसीके न आयी - २
कुछ तेरा ना मेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ...

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-कृष्ण कुमार शर्मा  

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