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भारतीय संगीत में क्रांति लाने का श्रेय राहुल देव बर्मन को जाता है. 1960 से 1990 के दशक के बीच 331 फिल्मों को कर्णप्रिय और यादगार गीत-संगीत से संवारने वाले दिवंगत संगीतकार राहुल देव बर्मन उर्फ पंचम दा की 27 जून को 86वीं जयंती है. 27 जून 1939 को जन्मे राहुल देव बर्मन का निधन 4 जनवरी 1994 को हुआ था. आर. डी. बर्मन एक महान संगीतकार, गायक और अभिनेता थे, जिन्होंने हिंदी सिनेमा में अपनी अमिट छाप छोड़ी. उनके संगीत ने पीढ़ियों को प्रभावित किया और उनके गाने आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं. बहुमुखी प्रतिभा के धनी आर.डी. बर्मन अपनी उदार शैली के लिए जाने जाते थे, जिसमें विभिन्न संगीत शैलियों का मिश्रण था. वह बंगाली लोक संगीत से बहुत प्रभावित थे. फिर भी, उनके संगीत में पश्चिमी, लैटिन, ओरिएंटल और अरबी संगीत के तत्व भी शामिल थे. इस मिश्रण ने एक अनूठी और ताजा ध्वनि बनाई, जिसने उन्हें अपने समकालीनों से अलग कर दिया. उन्होंने बॉलीवुड में इलेक्ट्रॉनिक रॉक की शुरुआत की, खासकर युवा-केंद्रित प्रेम कहानियों में, जिसकी शुरुआत राजेश खन्ना जैसे अभिनेताओं से हुई.
राहुल देव बर्मन की परवरिश संगीत के माहौल में हुई. उनके पिता सचिन देव बर्मन हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार और गायक, तथा उनकी मां मीरा देव बर्मन गीतकार थीं. विरासत में मिली संगीत कला को उन्होंने बढ़ाने का पूरा प्रयास किया. तीन दशक के अपने करियर में उन्होंने लता मंगेशकर, आशा भोसले (जो उनकी दूसरी पत्नी बनीं) और किशोर कुमार जैसे दिग्गज गायकों के साथ काम किया. गीतकार गुलजार के साथ उनके सहयोग ने भारतीय सिनेमा के कुछ सबसे यादगार गीतों का निर्माण किया, जो उनकी बहुमुखी प्रतिभा और नवीनता को दर्शाता है. उन्होंने अकेले ही हिंदुस्तानी शास्त्रीय और पश्चिमी धुनों के बीच की खाई को पाटने में सफलता हासिल की, दोनों की बेहतरीन धुनों को मिलाकर अनूठी कृतियाँ बनाईं.
पंचम उपनाम से जाने जाने वाले राहुल देव बर्मन का नाम पंचम कैसे पड़ा, इसके पीछे कई कहानियाँ हैं. कुछ लोगों का कहना है कि बचपन में वह जब रोते थे, तो उनकी आवाज इंडियन म्यूजिकल स्केल के पांचवें सुर जैसी थी. वहीं कुछ का मानना है कि वह पांच अलग-अलग तरह की आवाज में रोते थे. जबकि कुछ लोगों का कहना है कि अशोक कुमार या मन्ना डे ने उनका नाम पंचम रखा था. पंचम दा ने बचपन में क्लासिकल म्यूजिक की तालीम नहीं ली. आखिर संगीत तो उनकी रग-रग में बसता था. पंचम दा ने अपना पहला संगीत 9 साल की उम्र में एक धुन ‘ए मेरी टोपी पलट के आजा’ बनाई थी, जिसे उनके पिता सचिन देव बर्मन ने फिल्म ‘फंटूस’ में उपयोग कर लिया था.
50 के दशक के अंत में वह अपने पिता के पूर्ण सहायक बन गए और उन्हें चलती का नाम गाड़ी (1958), कागज़ के फूल (1959), तेरे घर के सामने (1963), बंदिनी (1963), जिद्दी (1964), गाइड (1965) और तीन देवियाँ (1965) जैसी फिल्मों में सहायता की. अंततः 1961 में महमूद ने ही उन्हें फिल्म ‘छोटे नवाब’ में स्वतंत्र संगीतकार के रूप में पहला ब्रेक दिया. उनके बीच गहरी दोस्ती हो गई, और पंचम ने भूत बंगला (1965) में महमूद के साथ अभिनय भी किया.
आर. डी. बर्मन ने 1961 की फिल्म छोटे नवाब से संगीत निर्देशक के रूप में अपना करियर शुरू किया था, लेकिन इस फिल्म को खास सफलता नसीब नहीं हुई. इसके बाद उनकी अगली तीन फिल्में, भूत बंगला (1965), तीसरा कौन (1965) और पति पत्नी (1966) आईं. भूत बंगला में उन्होंने कैमियो भी किया, पर बात कुछ बनी नहीं. फिर 1966 में विजय आनंद की संगीतमय रहस्य फिल्म ‘तीसरी मंजिल’ के रिलीज के साथ ही पंचम दा बॉलीवुड में बतौर संगीतकार स्थापित हो गए. फिल्म ‘तीसरी मंजिल’ में शम्मी कपूर और आशा पारेख की मुख्य भूमिकाएँ थीं. इसे बॉक्स ऑफिस पर बड़ी सफलता मिली, जिसका श्रेय इसके सुपरहिट गानों, ‘ओ हसीना जुल्फों वाली जाने जहाँ’, ‘ओ मेरे सोना रे सोना’, ‘आजा आजा मैं हूँ प्यार तेरा’, ‘दीवाना मुझसा नहीं’ और ‘तुमने मुझे देखा होकर मेहरबान’ को दिया गया. इन सभी को बिनाका गीतमाला की साल के अंत की वार्षिक सूची में शामिल किया गया. इसके अलावा तीसरी मंजिल का साउंडट्रैक 1960 के दशक का सातवाँ सबसे अधिक बिकने वाला हिंदी फिल्म एल्बम साबित हुआ. 1968 दशक की राहुल देव बर्मन की अन्य उल्लेखनीय कृति संगीतमय कॉमेडी ‘पड़ोसन’ (1968) थी, जिसके ‘एक चतुर नार’, ‘मेरे सामने वाली खिड़की में’, ‘मेरे भोले बालम’ और ‘कहना है कहना है’ जैसे गाने आज तक लोकप्रिय हैं और उन्होंने फिल्म को व्यावसायिक रूप से सफल बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई. 1969 में, शक्ति सामंत की फिल्म ‘आराधना’ में अपने पिता सचिन देव बर्मन के सहायक के रूप में काम करते हुए पंचम दा ने किशोर कुमार को राजेश खन्ना की प्राश्रर्वआवाज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो फिल्म की ब्लॉकबस्टर सफलता के साथ सुपरस्टार बन गए और किशोर कुमार के गायन करियर को भी बढ़ावा मिला. इसी फिल्म के बाद किशोर कुमार हिंदी सिनेमा के अग्रणी प्राश्रर्व गायक बन गए और 1987 में अपनी मृत्यु तक वह ऊँचाई पर ही रहे.
‘कटी पतंग’ और ‘अमर प्रेम’ ने रचा इतिहास
‘आराधना’ की रिलीज होने के महज एक साल बाद ही 1970 में शक्ति सामंत की संगीतमय रोमांटिक ड्रामा फिल्म ‘कटी पतंग’ के साथ पंचम दा हिंदी सिनेमा के अग्रणी संगीत निर्देशक के रूप में उभरे, जिसमें राजेश खन्ना और आशा पारेख ने अभिनय किया था. बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म के ‘ये शाम मस्तानी’, ‘प्यार दीवाना होता है’, ‘ये जो मोहब्बत है’ इन तीनों किशोर कुमार द्वारा एकल और ‘जिस गली में तेरा घर’, मुकेश द्वारा एकल गीत चार्टबस्टर साबित हुए. इन गीतों ने फिल्म की बॉक्स ऑफिस सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इसके साउंडट्रैक को 1970 के दशक के सबसे अधिक बिकने वाले बॉलीवुड एल्बम में से एक बना दिया. उसी वर्ष, उन्होंने राजेश खन्ना की एक और हिट फिल्म द ट्रेन में भी संगीत दिया, जिसमें मोहम्मद रफी का एकल लोकप्रिय गीत ‘गुलाबी आँखें’ और लता मंगेशकर का एकल गीत ‘किस लिए मैंने प्यार किया’ शामिल थे.
1971 में पहली पत्नी रीता पटेल से तलाक होना उनके लिए लकी साबित हुआ. ऐसा लगा जैसे कि उनके करियर पर लगा हुआ ग्रहण समाप्त हो गया और उन्होंने सफलता की डगर पर बहुत तेज कदमों से चलना शुरू कर दिया. 1971 से 1974 के तीन वर्षों तक उन्होंने हरे रामा हरे कृष्णा (1971), कारवां (1971), अमर प्रेम (1972), मेरे जीवन साथी (1972), अपना देश (1972), जवानी दीवानी (1972), रामपुर का लक्ष्मण (1972), परिचय (1972), सीता और गीता (1972), समाधि (1972), हीरा पन्ना (1973), अनामिका (1973), आ गले लग जा (1973), यादों की बारात (1973) और नमक हराम (1973) जैसी बेहद सफल फिल्मों में काम किया. इन सभी में ‘चढ़ती जवानी मेरी चाल मस्तानी’, ‘पिया तू अब तो आजा’ और ‘कितना प्यारा वादा है’ (कारवां), ‘दम मारो दम’, ‘फूलों का तारों का’ और जैसे सुपरहिट गाने थे. ‘कांची रे कांची’ (हरे राम हरे कृष्णा), ‘रैरैना बीती जाए’, ‘चिंगारी कोई भड़के’, ‘कुछ तो लोग कहेंगे’ और ‘ये क्या हुआ’ (अमर प्रेम), ‘ओ मेरे दिल के चैन’, ‘चला जाता हूँ’ और ‘आओ ना, गले लगा लो ना’ (मेरे जीवन साथी), ‘दुनिया में लोगों को’, ‘कजरा लगाके गजरा सजाके’ और ‘रो ना कभी नहीं रोना’ (अपना देश), ‘सामने ये कौन आया’, ‘ये जवानी है दीवानी’ और ‘जान-ए-जान ढूंढता फिर रहा हूँ तुम्हें रात दिन’ (जवानी दीवानी), ‘गुम है किसी के प्यार में दिल सुबह शाम’ और ‘रामपुर का वासी हूँ’ (रामपुर का लक्ष्मण), ‘मुसाफिर हूँ यारों’ और ‘सा रे के सा रे’ (परिचय), ‘ओ साथी चल’ और ‘कोई लड़की मुझे कल रात’ (सीता और गीता), ‘कांटा लगा’, ‘जब तक रहें’ और ‘जान-ए-जाना जाओ’ (समाधि), ‘पन्ना की तमन्ना’ (हीरा पन्ना), ‘मेरी भीगी भीगी सी’ और ‘बाहों में चले आओ’ (अनामिका), ‘वादा करो’ और ‘तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई’, ‘यादों की बारात निकली है आज दिल के द्वारे’, ‘चुरा लिया है तुमने जो दिल को, नजर नहीं चुराना सनम’, ‘लेकर हम दीवाना दिल, फिर है मंजिल मंजिल’ और ‘मेरी सोनी, मेरी तमन्ना, झूठ नहीं है मेरा प्यार’ (यादों की बारात), ‘दिए जलते हैं फूल खिलते हैं’ और ‘मैं शायर बदनाम’ (नमक हराम).कारवां, अमर प्रेम और यादों की बारात के लिए राहुल देव बर्मन को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्मफेयर में लगातार तीन नामांकन मिले. 1974 में, उनकी उल्लेखनीय फिल्मों में ‘आप की कसम’, ‘अजनबी’, ‘फिर कब मिलोगी’ और ‘जहरीला इंसान’ शामिल थीं, जिनमें ‘करवटें बदलते रहे’, ‘जय जय शिव शंकर’, ‘सुनो कहो कहा सुना’, ‘जिंदगी के सफर में’, ‘एक अजनबी हसीना से’, ‘हम दोनों दो प्रेमी’, ‘भीगी भीगी रातें’ जैसे सदाबहार गाने शामिल थे.
1975 में एक साथ उनके संगीत से सजी ‘दीवार’, ‘खेल खेल में’, ‘वारंट’, ‘आंधी’, ‘खुशबू’, ‘धरम करम’ और ‘शोले’ फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर ऐसा हंगामा बरपाया कि हर जगह केवल पंचम दा का ही नाम गूंजने लगा. इनमें से ‘शोले’ जो ऑल टाइम ब्लॉकबस्टर बनकर उभरी और भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे बड़ी हिट बनी रही. इसके गाने ‘महबूबा महबूबा’, ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे’, ‘जब तक है जान’, ‘कोई हसीना’ ने बिनाका गीतमाला की साल के अंत की वार्षिक सूची में शीर्ष स्थान हासिल किया और इसके साउंडट्रैक को 1970 के दशक के सबसे अधिक बिकने वाले हिंदी फिल्म एल्बमों में से एक बना दिया. इतना ही नहीं, पंचम दा को फिल्मफेयर में सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक श्रेणी में एक और नामांकन भी मिला.
1975 में ही दीवार का गीत ‘कह दूं तुम्हें या चुप रहूँ’, खेल खेल में के ‘हमने तुमको देखा’, ‘एक मैं और एक तू, दोनों मिले इस तरह’, ‘खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों’ आदि गीतों ने भी हंगामा मचाया. तो वहीं फिल्म ‘आंधी’ के गीत ‘तेरे बिना जिंदगी से’, ‘तुम आ गए हो नूर आ गया’, ‘इस मोड़ से जाते हैं’, ‘खुशबू’ का गाना ‘ओ माझी रे अपना किनारा…’, ‘धरम करम’ के गाने ‘एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल’, ‘तेरे हमसफर गीत हैं तेरे’ भी काफी लोकप्रिय हुए.
लेकिन 1976 में ‘नहले पे दहला’, ‘बालिका बधू’ और ‘महबूबा’ को छोड़ दें, तो बाकी सभी उनकी फिल्में असफल रहीं. लेकिन एक साल बाद ही नासिर हुसैन की फिल्म ‘हम किसी से कम नहीं’ को मिली सफलता के साथ ही एक बार फिर पंचम दा का स्टारडम वापस आ गया.
80 का दशक अच्छा नहीं रहा
70 के दशक में संगीत के बादशाह बने रहे पंचम दा अस्सी के दशक में लोकप्रियता खो बैठे. इसके पीछे कई कारण थे. उस वक्त तेजी से उभरे अमिताभ बच्चन शुद्ध मसाला मनोरंजन वाली फिल्में कर रहे थे, जिसमें बढ़िया संगीत की जरूरत नहीं थी. फिर, आर.डी. ने 70 के दशक में जो प्रयोग किए, उन्हें 80 के दशक में दूसरों ने बेशर्मी से कॉपी किया और इस तरह उन्होंने अपनी विशिष्टता खो दी. उनके कट्टर समर्थक भी दूसरे संगीतकारों के पास चले गए. मसलन ‘यादों की बारात’ से नासिर हुसैन की हर फिल्म के संगीतकार पंचम दा ही हुआ करते थे. मगर 1987 में ‘कयामत से कयामत तक’ में पंचम दा की जगह नासिर हुसैन कैंप में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की एंट्री हो गई. उधर पंचम दा के संगीत से सजी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर दम नहीं दिखा पा रही थीं. वे उन फिल्मों के लिए जिम्मेदार नहीं थे, लेकिन किसी तरह लोगों ने उनसे दूरी बनानी शुरू कर दी. जबकि उसी दौर में खूबसूरत (1980), रॉकी (1981), ये वादा रहा (1982), मासूम (1983), सनी (1984) और सागर (1985) जैसी फिल्मों ने सफलता भी दर्ज कराई. लेकिन उन्हें हमेशा एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जाना जाता था जो हिट गाने नहीं, बल्कि हिट एल्बम देते थे और 80 का दशक ऐसा दौर था जब पूरे एल्बम की बजाय अलग-अलग गाने जैसे ‘तुमसे मिलने जिंदगी को यूं लगा’ (चोर पुलिस 1983), ‘रोज रोज आंखों तले’ (जीवा 1984) या ‘ममैया केरो मामा’ (अर्जुन 1985) खास तौर पर सामने आते थे.
90 का दशक: पंचम दा ने मान ली थी हार
नब्बे का दशक आते-आते पंचम दा चारों तरफ से मुसीबतों से घिर गए थे. एक तरफ उन्हें हार्ट अटैक आया, तो दूसरी तरफ लोगों ने उनसे दूरी बनानी शुरू कर दी. नब्बे के दशक में उनके खाते में सिर्फ ‘तू है मेरे दिल की रानी’ (इंद्रजीत 1991), ‘जयपुर से निकली गाड़ी’ (गुरुदेव 1993) और ‘सिली हवा छू गई’ (लिबास 1993) जैसी छिटपुट हिट फिल्में ही आईं.
सुभाष घई की हरकत से टूट गए पंचम दा
सुभाष घई ने अपनी फिल्म ‘राम लखन’ की घोषणा के साथ ही संगीतकार के रूप में पंचम दा का नाम घोषित किया. उसके बाद पंचम दा अपने हृदय की ‘बायपास सर्जरी’ कराने लंदन चले गए और जब वहाँ से वापस आए, तो पता चला कि सुभाष घई ने बिना पंचम दा को कोई सूचना दिए उनकी जगह लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को ‘रामलखन’ का संगीतकार बना दिया. हृदय की ‘बायपास सर्जरी’ कराकर जब पंचम दा वापस लौटे, तो उन्हें सच पता चला. इससे वे अंदर तक टूट गए. उन्होंने कई लोगों से कहा कि, “मैं अपने हृदय की बायपास सर्जरी कराने गया और यहाँ सुभाष घई ने मुझे ही ‘बायपास’ कर दिया और मुझे बताना भी जरूरी नहीं समझा.” फिर वे लगातार शराब और सिगरेट में डूबे रहने लगे. हालात इतने बदतर हो गए थे कि हर संगीत कंपनी ने पंचम दा से दूरी बना ली.
लेकिन हर इंसान की किस्मत बदलती है. विधु विनोद चोपड़ा ने उन्हें अपनी फिल्म ‘1942 ए लव स्टोरी’ के संगीत निर्देशन का ऑफर दिया. विधु विनोद चोपड़ा खुद पंचम दा के सिटिंग रूम में गए और उन्हें अपनी फिल्म का ऑफर देते हुए कहा, “पंचम दा, आप अपना हौसला न खोएं. आपके अंदर जो प्रतिभा है, वह किसी में नहीं है. मुझे यकीन है कि आप आज भी सर्वश्रेष्ठ संगीत दे सकते हैं.” विधु विनोद चोपड़ा की बातों से पंचम दा बेहद भावुक हो गए. उन्होंने इस फिल्म को बेहतरीन म्यूजिक देकर साबित कर दिया कि उनसे बेहतर संगीतकार न हुआ है और न होगा. बदकिस्मती देखिए कि पंचम दा अपनी आखिरी कामयाबी को देखने से पहले ही दुनिया से रुखसत कर गए. 4 जनवरी 1994 को दिल की बीमारी के चलते पंचम दा का निधन हो गया. जबकि ‘1942 ए लव स्टोरी’ 15 जुलाई 1994 को रिलीज हुई. और इस फिल्म के ‘कुछ ना कहो’, ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा…’ सहित सभी गीत सुपर डुपर हिट हुए. उन्हें मरणोपरांत 40वें फिल्मफेयर पुरस्कारों में उनके तीसरे सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक से सम्मानित किया गया.
राहुल देव बर्मन ने कुल 331 फिल्मों को संगीत से संवारा, जिसमें से 292 हिंदी, 31 बंगाली, 3 तेलुगु, 2 तमिल और उड़िया, और 1 मराठी थी. बर्मन ने हिंदी और मराठी में 5 टीवी धारावाहिकों के लिए भी संगीत रचना की.
पंचम के गैर-फिल्मी संगीत में कुछ एल्बम शामिल हैं, जिनमें पैनटेरा (1987) शामिल है, जो पीट गवनकर (जेनिना गवनकर के पिता) द्वारा निर्मित एक लैटिन रॉक एल्बम है. यह एल्बम एक अंतरराष्ट्रीय सहयोग था, जिसके लिए बर्मन ने सैन फ्रांसिस्को में जोस फ्लोरेस के साथ भागीदारी की. 1987 में, बर्मन, गुलजार और आशा भोसले ने दिल पड़ोसी है नामक एक एल्बम पर काम किया, जिसे 8 सितंबर 1987 को आशा भोसले के जन्मदिन पर रिलीज़ किया गया. बर्मन और आशा भोसले ने बॉय जॉर्ज के साथ ‘बो डाउन मिस्टर’ गीत भी रिकॉर्ड किया. इसके अलावा, उन्होंने बंगाली में बड़ी संख्या में गैर-फिल्मी गाने भी लिखे, जो विभिन्न एल्बमों में उपलब्ध हैं और जिनमें से कई को बाद में हिंदी फिल्मों में रूपांतरित किया गया.
राहुल देव बर्मन को हिंदी फिल्म संगीत में क्रांति लाने का श्रेय दिया जाता है. उन्होंने अपने संगीत में कई शैलियों से कई तरह के प्रभावों को शामिल किया, हालाँकि उनकी प्राथमिक प्रेरणा बंगाली लोकगीत थे. बर्मन का करियर राजेश खन्ना अभिनीत युवा प्रेम कहानियों के उदय के साथ मेल खाता था. उन्होंने इन लोकप्रिय प्रेम कहानियों में इलेक्ट्रॉनिक रॉक को लोकप्रिय बनाया. उन्होंने अक्सर बंगाली लोक संगीत के साथ डिस्को और रॉक तत्वों को मिलाया. उन्होंने जैज़ तत्वों का भी इस्तेमाल किया, जो उन्हें स्टूडियो पियानोवादक केरसी लॉर्ड द्वारा पेश किए गए थे.
उनकी एक खासियत यह थी कि वे अपरंपरागत ध्वनियों के साथ प्रयोग करने में माहिर थे. उन्होंने शोले (1975) के ‘महबूबा’ गाने की शुरुआती धुनों को बनाने के लिए बीयर की बोतलों का इस्तेमाल किया और फिल्म ‘यादों की बारात’ (1973) के गीत ‘चुरा लिया है’ गाने की खनक के लिए कप और तश्तरी की आवाज का इस्तेमाल किया. उनकी अभिनव तकनीकों ने फिल्म संगीत में एक नया आयाम जोड़ा, जिससे उनकी रचनाएँ कालातीत हो गईं.
अपनी सफलता के बावजूद, आर.डी. बर्मन को साहित्यिक चोरी के आरोपों का सामना करना पड़ा. फिल्म निर्माता अक्सर उन पर अपने संगीत से प्रभावित मशहूर विदेशियों को अपनाने का दबाव डालते थे. फिर भी, उनका मूल योगदान और रूपांतरण प्रतिष्ठित हो गया, और ‘जहाँ तेरी ये नजर है’ जैसे गाने लगातार क्लासिक सिद्ध हुए.
पंचम दा का संगीत यानी कि कदम खुद ब खुद थिरकने पर मजबूर हो जाएँ. लय और ताल ऐसी, जो बरसों-बरस संगीत की दुनिया को रोशन करती रहे. धुन ऐसी कि संगीत की दुनिया से जुड़े तमाम कलाकार उसे ही पर्वत मान लें. पंचम दा के हाथों का जादू था, जिसने भारतीय संगीत की दुनिया को नई बुलंदियों तक पहुँचाया. आज भी उनकी बनाई धुनें फिल्मी गानों में बेधड़क इस्तेमाल की जा रही हैं. उनके गाए गीत आज भी म्यूजिक क्लबों और पार्टियों की शान बने हुए हैं.
निजी जीवन
आर.डी. बर्मन की पहली पत्नी रीता पटेल थीं, जिनसे उनकी मुलाकात दार्जिलिंग में हुई थी. रीता, जो उनकी प्रशंसक थीं, ने अपने दोस्तों से शर्त लगाई थी कि वह बर्मन के साथ फिल्म-डेट पा सकेंगी. पंचम दा, रीता पटेल संग फिल्म देखने गए. इस तरह रीता पटेल ने अपनी सहेलियों से लगाई हुई शर्त जीत ली, पर फिर दोनों के बीच नजदीकियाँ बढ़ती गईं. अंततः उन्होंने 1966 में शादी की और 1971 में तलाक ले लिया. हम यहाँ याद दिला दें कि 1972 में रिलीज हुई फिल्म ‘परिचय’ का गीत ‘मुसाफिर हूँ यारों…’ का संगीत उस समय रचा गया था, जब पंचम दा अलग होने के बाद एक होटल में अकेले थे.
पहली पत्नी रीता पटेल से तलाक के नौ साल बाद पंचम दा ने अपनी माँ के सख्त विरोध के बावजूद 1980 में आशा भोसले से शादी कर ली, जिनके साथ उनका लंबे समय से रोमांस चला आ रहा था. पंचम दा की मां इस विवाह के खिलाफ थीं, जिसकी तीन मूल वजहें थीं. पहली, आशा भोसले तलाकशुदा थीं. दूसरी वजह यह कि वह तीन बच्चों की माँ थी. तीसरी वजह यह थी कि वह पंचम दा से छह साल बड़ी थीं. शादी से पहले और शादी के बाद भी आशा भोसले तथा पंचम दा ने कई हिट गाने रिकॉर्ड किए. दोनों ने कुछ डुएट भी गाए. कई लाइव शो भी किए. हालाँकि, अपने जीवन के अंत में, वे साथ नहीं रहे. बर्मन को वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, खासकर उनके जीवन के बाद के वर्षों में.
राहुल देव बर्मन: संगीत आज भी जिंदा है
राहुल देव बर्मन के कालजयी संगीत को इसी बात से समझा जा सकता है कि उनकी मृत्यु के बाद बनी कई हिंदी फिल्मों में उनके मूल गाने या उनके रीमिक्स संस्करण हैं. दिल विल प्यार व्यार (2002), जिसमें बर्मन के कई पुनः व्यवस्थित हिट गाने हैं, उन्हें श्रद्धांजलि के रूप में बनाया गया था. ‘झंकार बीट्स’ (2003), जिसने संगीत निर्देशक जोड़ी विशाल-शेखर को सुर्खियों में ला दिया, भी उन्हें एक श्रद्धांजलि है. ‘ख्वाहिश’ (2003) में, मल्लिका शेरावत का किरदार एक बर्मन प्रशंसक है; फिल्म में उनका बार-बार उल्लेख किया गया है. 2010 में ब्रह्मानंद सिंह ने ‘पंचम अनमिक्स्ड: मुझे चलते जाना है’ नामक 113 मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री जारी की, जिसे आलोचकों की प्रशंसा मिली. ‘पंचम अनमिक्स्ड’ ने 2 राष्ट्रीय पुरस्कार जीते.
1995 में, फिल्मफेयर पुरस्कारों ने उनकी स्मृति में नई संगीत प्रतिभा के लिए फिल्मफेयर आर.डी. बर्मन पुरस्कार की स्थापना की. यह पुरस्कार हिंदी सिनेमा में उभरते संगीत प्रतिभाओं को दिया जाता है. 2009 में, बृहन्मुंबई नगर निगम ने सांताक्रूज में एक सार्वजनिक चेक का नाम राहुल देव बर्मन के नाम पर किया.
भारत में, पुणे का पंचम मैजिक और कोलकाता का यूफोनी हर साल 4 जनवरी और 27 जून को बर्मन के साथ काम करने वाले संगीतकारों, कलाकारों या अन्य लोगों के साथ शो आयोजित करता है. इसके अलावा, भारत के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर नई प्रतिभाओं या बर्मन के साथ काम करने वाले लोगों के साथ कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं.
एक ही धुन दो-दो फिल्मों में
राहुल देव बर्मन की आदत रही है कि कोई धुन उन्हें पसंद आ जाए, तो उसे बार-बार दोहराते थे. क्या आपको पता है कि 1985 की फिल्म ‘सागर’ के गाने की धुन 1981 की फिल्म ‘नरम गरम’ के गीत ‘हमें रास्तों की जरूरत नहीं’ में पहले आ चुकी थी? इस गीत को आशा भोसले ने गाया था. इसे स्वरूप संपत पर फिल्माया गया था. फिल्म ‘नरम गरम’ का यह गाना असफल था, पर आर.डी. बर्मन को यह धुन बहुत पसंद थी. ‘सागर’ का गीत ‘सागर किनारे दिल यह पुकारे…’ डुएट था, जिसे लता मंगेशकर और किशोर कुमार ने गाया था. और यह गाना ऋषि कपूर तथा डिंपल पर फिल्माया गया था. इसी तरह 1985 की फिल्म ‘सागर’ के गीत ‘जलपरी’ की धुन को उन्होंने 1993 में आई फिल्म ‘आजा मेरी जान’ के शीर्ष गीत में उपयोग किया था, जिसे एस.पी. बालासुब्रमण्यम ने गाया था.
खराब गले से गाया गाना हुआ हिट
पंचम दा ने कई फिल्मों में पाश्र्व गायन करने के साथ ही बैकग्राउंड के लिए आवाजें दी हैं. उनके द्वारा स्वरबद्ध ज्यादातर हिट रहे हैं. पंचम दा का कमाल यह था कि वे खराब गले में भी गाना गा दें, तो सुपरहिट हो जाए. बात रमेश सिप्पी निर्देशित फिल्म ‘शान’ की है, जिसमें अमिताभ बच्चन, शशि कपूर और कुलभूषण खरबंदा हैं. इस फिल्म की शूटिंग चल रही थी. मोहम्मद रफी साहब ने पंचम दा को ‘यम्मा…यम्मा’ गाना गाने के लिए बुलाया. इस पर पंचम दा ने कहा, "मेरा गला खराब है." रफी साहब ने कहा, "कोई बात नहीं, तुम अभी गाना गा दो, बाद में हम इसे फिर से रिकॉर्ड कर लेंगे." पंचम दा ने खराब गले में वह गाना गाया. लेकिन बदकिस्मती से रफी साहब का इंतकाल हो गया और वह गाना आज भी पंचम दा के खराब गले वाली आवाज में सुना जाता है. पंचम दा ने अमिताभ की दो और फिल्मों ‘महान’ और ‘पुकार’ में भी पाश्रर्व गायन किया, पर इन फिल्मों को सफलता नहीं मिली.
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