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BERLIN Review : रोमांच की बनिस्बत केवल नीरसता ही नीरसता...

'औरंगजेब' तथा 'क्लास ऑफ 83' फिल्मों के बाद अब अतुल सभरवाल बतौर लेखक व निर्देशक अब नब्बे के दशक की प्रष्टभूमि पर तीसरी फिल्म ''बर्लिन'' लेकर आए हैं, जो कि हत्या व सूक्ष्म जासूसी फिल्म है...

BERLIN Review  रोमांच की बनिस्बत केवल नीरसता ही नीरसता...
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निर्माता: जी स्टूडियो
लेखक: अतुल सभरवाल
निर्देशक: अतुल सभरवाल
कलाकार: इश्वाक सिंह, अपर्शक्ति खुराना, राहुल बोस, कबीर बेदी, दीपक काजिर, अनुप्रिया गोयनका, कबीर बेदी, जिगर मेहता, नितेश पंड्या, जॉय सेन गुप्ता व अन्य.
अवधि: दो घंटे चार मिनट
ओटीटी प्लेटफार्म: जी 5
रेटिंग: दो स्टार

'औरंगजेब' तथा 'क्लास ऑफ 83' फिल्मों के बाद अब अतुल सभरवाल बतौर लेखक व निर्देशक अब नब्बे के दशक की प्रष्टभूमि पर तीसरी फिल्म ''बर्लिन'' लेकर आए हैं, जो कि हत्या व सूक्ष्म जासूसी फिल्म है. फिल्म में 'बर्लिन' किसी देश का शहर नहीं बल्कि भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित एक काल्पनिक काफी शॉप है. सिगरेट के धुएं और साज़िश में डूबा हुआ, यह शहर के राजनयिक एन्क्लेव में एक साधारण प्लाजा पर छिपा हुआ है. 1993 के नवंबर माह में रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन की भारत की ऐतिहासिक यात्रा के वक्त उनकी हत्या की साजिश की जांच की प्रष्टभूमि में देश की दो एजंसियो के बीच आपसी प्रतिद्वंदिता की कहानी के साथ 'ब्यूरो' और 'विंग' का अपने अपने को सुरक्षित रखने के लिए एक दूसरे के एजंटो को फंसाने की कहानी भी है.

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स्टोरी:

सुरक्षा ब्यूरो के अफसर जगदीश सोंधी (राहुल बोस) ने बर्लिन कैफे में काम करने वाले मूक बधिर वेटर अशोक (इश्वाक सिंह)  को एक हत्या की साजिश के सिलसिले में गिरफ्तार किया है. क्योंकि दिल्ली रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन की यात्रा के लिए तैयार हो रही है. अशोक पर विदेशी एजंसियों के लिए जासूसी करने का आरोप लगाकर 'ब्यूरो' के रूप में मशहूर एक भव्य सरकारी भवन के अंदर रखा गया है. एक स्थानीय स्कूल के सांकेतिक भाषा प्रशिक्षक पुश्किन (अपारशक्ति खुराना) को उससे पूछताछ करने की जिम्मेदारी दी जाती है. उनकी हर हरकत पर बिना पलक झपकाए नज़र जगदीश सोंधी खुद रखते हैं. जगदीश एक धूर्त, चालाक बुद्धि वाला व्यक्ति है. अशोक से जुड़ी रहस्यमय परिस्थितियाँ दिल्ली के बर्लिन कैफे से जुड़ी हैं. बहरा और बोलने में असमर्थ अशोक खुद को साबित करने की कोशिश कर रहा है कि वह प्रशिक्षित जासूसों की तरह बुद्धिमान और तेज हो सकता है. जबकि पुश्किन का मकसद अशोक की सच्चाई जानना और उसकी मदद करना है. उधर जगदीश सोंधी पर दो तलवारे लटक रही हैं. एक तलवार यह है कि उन्हे डर है कि कहीं एक महिला के साथ अंतरंग संबंधों वाली तस्वीरें जगजाहिर न हो जाएं. तो दूसरी तरफ जगदीश के बॉस ने कह रखा है कि रूसी राष्ट्पति की हत्या की साजिश रचने वाली महिला को सात दिन के अंदर ही गिरफतार किया जाए. फिल्म में सरकारी स्कूल शिक्षक पुष्किन वर्मा की निजी जिंदगी की भी कहानी है. फिल्म जैसे जैसे आगे बढ़ती है, वैसे वैसे पता चलता है कि यहां जासूसों की कमी नही है. विंग और व्यूरो (संभवतः रॉ और सीबीआई ) के जासूस एक दूसरे से जुड़े जासूसो की ही जासूसी करते नजर आते हैं. जो कि सरकारी कॉलोनियों में पॉकी फ्लैटों में तिजोरियां तोड़ रहे हैं, और बर्लिन नामक कैफे में रहस्यों का आदान -प्रदान कर रहे हैं, जो सभी विचारधाराओं के जासूसों के लिए क्लीयरिंग हाउस और सुनने की चैकी के रूप में कार्य करता है.  

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रिव्यू:

रूस के राष्ट्पति के भारत आगमन पर उनकी जिंदगी के खतरे की प्रष्टभूमि में काल्वनिक कहानी रची गयी है. पर अफसोस फिल्म की पटकथा कमजोर होने के साथ ही फिल्म की गति काफी धीमी है. इंटरवल के बाद फिल्म काफी कमजोर हो जाती है. इसमें जासूसी के कोई उतार चढ़ाव नहीं है. रहस्य व रोमांच दोनों का घोर अभाव है. दो जांच एजंसियों की आपसी कलह को ही केंद्र में ज्यादा रखा गया है. इस फिल्म से पहले किसी भी फिल्म में दिल्ली इतनी अधिक नीरस या धूमिल कभी नजर नही आयी. पुष्किन के किरदार को ठीक से गढ़ा नहीं गया, जो शिक्षक छुट्टी चाहता हो उसे किस तरह एक आरोपी से सांकेतिक भाषा में पूछताछ के लिए चुना गया, इस पर फिल्म मौन रहती है. लेखन की कमजोरी के चलते स्थानीय एजेंसियों ब्यूरो व विंग के बीच प्रतिद्वंद्विता मनगढ़ंत और बेरंग लगती है. यह एक स्पाई थ्रिलर फिल्म है, मगर इसमें रहस्य व रोमांच दोनो गायब है. फिल्म में बधिर और बोलने में असमर्थ व्यक्तियों द्वारा अनुभव किए गए दर्द और अकेलेपन का चित्रण है. माना कि अतुल सभरवाल रूसी राष्ट्रपति के कत्ल की साजिश के बहाने देश की खुफिया एजेंसियों में फैले मकड़जाल और अंदरूनी राजनीति को अपनी काल्पनिक कहानी का आधार बनाया है. इस हिसाब से  कहानी में नयापन है. कहानी का मजेदार पहलू यह भी है कि कैसे दिल्ली के बर्लिन नामक कॉफी हाउस में खुफिया बातचीत को राज बनाए रखने के लिए मूक-बधिर लोगों का इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन कमजोर पटकथा ने नीरसता के अलावा कुछ नही परोसा.

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एक्टिंग:

सांकेतिक भाषा से दिल्ली के सरकारी स्कूल में मूक व बधिर बच्चे को शिक्षित करने वाले पुष्किन वर्मा के किरदार में अपर्शक्ति खुराना कुछ खास कमाल नही कर पाए. मूक बधिर अशोक के किरदार में इश्वाक सिंह ने जानदार अभिनय किया है. वह अपने चेहरे के भावो से रहस्य को पैदा करने में सफल रहे हैं. इश्वाक सिंह अपनी आँखों से बहुत कुछ कह जते हैं. जगदीश सोंधी के किरदार में राहुल बोस ने एक बार फिर साबित कर दिखाया कि वह एक बेहतरीन संजीदा कलाकार है. अनुप्रिया गोयंका ने इस फिल्म में इतना छोटा किरदार क्यों निभाया, यह तो वही जानें. पर वह अभिनय की छाप छोड़ने में सफल रही हैं. पूरी फिल्म में कबीर बेदी के दो तीन द्रश्य ही हैं, यदि यह कहा जाए कि कबीर बेदी की प्रतिभा को जाया किया गया है, तो गलत नहीं होगा. महज एक सीन के छोटे किरदार में भी जॉय सेन गुप्ता अपनी छाप छोड़ जाते हैं.

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