Ghulam Mohammed Death Anniversary

एंटरटेनमेंट: भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग में कई ऐसे संगीतकार हुए, जिन्होंने अपने मधुर सुरों से फिल्मी संगीत को नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया. ऐसे ही महान संगीतकारों में से एक थे गुलाम मोहम्मद. उनकी संगीत रचनाएँ आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में जीवित हैं. विशेष रूप से फिल्म पाकीज़ा (1972) में दिए गए उनके अमर संगीत ने उन्हें भारतीय फिल्म संगीत के इतिहास में अमर बना दिया.आइए, इस लेख में हम गुलाम मोहम्मद के जीवन, उनके संगीत सफर और उनके योगदान पर विस्तार से चर्चा करें.

संगीत की यात्रा

Music Composer - Ghulam Mohammad

गुलाम मोहम्मद का जन्म 1903 में लखनऊ, उत्तर प्रदेश में हुआ था. उनका संगीत से गहरा नाता बचपन से ही जुड़ गया था. वे हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में पारंगत थे और संगीत की बारीकियों को गहराई से समझते थे.शुरुआती दौर में उन्होंने नौटंकी और थिएटर में संगीत देना शुरू किया, जिससे उन्हें संगीत की विविधता और उसकी गहराइयों को समझने का अवसर मिला.

singer ghulam muhammad

मनोरंजन की दुनिया में उनका सफ़र छह साल की उम्र में ही शुरू हो गया था, जब उन्होंने पंजाब में न्यू अल्बर्ट थियेट्रिकल कंपनी के साथ एक बाल कलाकार के रूप में काम करना शुरू किया, जहाँ उन्होंने बीकानेर के स्थानीय अल्बर्ट थिएटर में प्रदर्शन किया.1924 में, वे बॉम्बे चले गए, जहाँ आठ साल की मेहनत के बाद, उन्हें 1932 में सरोज मूवीटोन के प्रोडक्शंस की "राजा भरथरी" में तबला बजाने का अवसर मिला. जल्द ही वे इस क्षेत्र में अपनी विशेषज्ञता के लिए प्रसिद्ध हो गए.

संगीत करियर की शुरुआत

music director Ghulam Mohammed

गुलाम मोहम्मद ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में बतौर पर्कशनिस्ट (ढोलक वादक) अपने करियर की शुरुआत की. वे प्रसिद्ध संगीतकार नईम सेन के शिष्य रहे और धीरे-धीरे फिल्मों में संगीत देने लगे.उन्होंने पहले कई प्रसिद्ध संगीतकारों के साथ सहायक के रूप में काम किया, जिनमें आर. सी. बोराल, नौशाद और अनिल बिस्वास जैसे दिग्गज शामिल थे.

स्वतंत्र संगीतकार के रूप में करियर

Ghulam MohammedSongs

.स्वतंत्र संगीतकार के रूप में उनकी पहली कुछ फ़िल्में टाइगर क्वीन (1947), डोली (1947), पराई आग (1948), गृहस्थी (1948), काजल (1948), पगड़ी (1948), पारस (1948), दिल की बस्ती (1949) और शायर (1949) थीं. गुलाम मुहम्मद के काम की विशेषता इसकी मधुर समृद्धि और भावनात्मक गहराई है, जो अक्सर शास्त्रीय भारतीय संगीत परंपराओं से ली गई है

मोहम्मद को मिर्ज़ा ग़ालिब (1954) के लिए 1955 में "सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार" मिला. फिल्म की कुछ सबसे पसंदीदा ग़ज़लों में सुरैया और तलत महमूद द्वारा गाया गया "दिल - ए - नादान तुझे", सुरैया द्वारा "ये ना थी हमारी किस्मत", तलत महमूद द्वारा 'फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया..', तलत महमूद द्वारा 'इश्क मुझको नहीं वहशत ही सही..' और "है बस के हर एक' शामिल हैं

उनकी प्रमुख फिल्मों में शामिल हैं:

1. मिर्ज़ा ग़ालिब (1954)

Mirza Ghalib

यह फिल्म मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़िंदगी पर आधारित थी और इसके गाने आज भी ग़ज़ल प्रेमियों के बीच लोकप्रिय हैं."नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल", "दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है" जैसे गीत गुलाम मोहम्मद की अमर धरोहर हैं.इस फिल्म के संगीत के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला.

2. शमा (1961)

Shama 1961

इस फिल्म में भी उन्होंने शानदार संगीत दिया और शास्त्रीय संगीत प्रेमियों को बेहतरीन धुनें दीं.

3. पाकीज़ा (1972)

Pakeezah

गुलाम मोहम्मद की सबसे प्रसिद्ध और सबसे यादगार फिल्म पाकीज़ा रही.हालांकि वे इस फिल्म के रिलीज़ होने से पहले ही इस दुनिया से चले गए थे, लेकिन उनका संगीत हमेशा के लिए अमर हो गया.इस फिल्म के गीत:"चलिए सजना, जहां तक घटा चले","ठाड़े रहियो","इन आँखों की मस्ती","आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे".इन गानों को लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ ने और भी खास बना दिया.

1956 में जब कमाल अमरोही ने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट "पाकीज़ा" पर काम करना शुरू किया तो उन्होंने इसके संगीत के लिए गुलाम मुहम्मद से संपर्क किया, अमरोही ने गाने लिखने के लिए कैफी आज़मी, कैफ भोपाली और मजरूह सुल्तानपुरी जैसी साहित्यिक प्रतिभाओं की एक टीम बनाई.गुलाम मोहम्मद ने फिल्म के लिए कुल 15 गाने बनाए, जिनमें से केवल छह का इस्तेमाल किया गया, बाकी नौ गाने एल्बम "पाकेजाह रंग बरंग" के रूप में रिलीज़ किए गए. लता जी द्वारा खूबसूरती से गाया गया पहला गाना एक लोकगीत "इन्हीं लोगों ने" था, जो एक चंचल मुजरा था, जिसमें युवा साहिबजान के लापरवाह रवैये को दर्शाया गया था.

गुलाम मोहम्मद और नौशाद का रिश्ता

Ghulam Mohammed Death Anniversary

गुलाम मोहम्मद ने कई वर्षों तक नौशाद के सहायक के रूप में काम किया और उनके कई प्रसिद्ध गानों में योगदान दिया. यह कहना गलत नहीं होगा कि नौशाद की सफलता में गुलाम मोहम्मद का भी अहम योगदान था.बाद में जब पाकीज़ा रिलीज़ होनी थी और गुलाम मोहम्मद इस दुनिया में नहीं रहे, तो नौशाद ने उनके अधूरे संगीत को पूरा किया.

Naushad Ali

गुलाम मोहम्मद का निधन 17 मार्च 1968 को हुआ, जब वे 65 वर्ष के थे.वे अपने जीवनकाल में उतनी पहचान नहीं पा सके, जितनी अन्य संगीतकारों को मिली.पाकीज़ा की सफलता के बाद ही लोग उनके संगीत की सच्ची गहराई को पहचान पाए.उनका संगीत अमर है, लेकिन उन्हें वह सम्मान उनके जीवनकाल में नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे.

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