नशा तो नशा है मुझे सिनेमा देखने का नशा था.एक सुकून भरा नशा...फिल्म देखने के वाद मन आहलादित रहता था कि किसी से अपनी खुशी शेयर करें. यह उनदिनों की बात है जब मैं भारतीय नौ सेना की सर्विस छोड़ दिया था सिर्फ सिनेमा देखने के लिए बंक मारने की वजह से. परिवार में पिताजी और दो चाचा के अलावा फूफा जी भी नेवी से जुड़े थे. जब मैं नेवल अपरेंटिस से जुड़ा, मुझ पर सिनेमा देखने का नशा था और यह शौक स्कूल के दिनों में ही लग गया था. नवीं कक्षा में पढ़ता था जब पहली बार सिनेमा देखा था, फिल्म थी "समाज को बदल डालो". यह फिल्म देखने के बाद लगा देश मे क्रांतिकारी बदलाव लाने का साधन सिनेमा है और सिनेमा मेरी सोच का आदर्श बन गया सिनेमा मेरी सोच का आदर्श बन गया नौ सेना की नौकरी से पहले जब अपने गांव के खुले खेतों में थोड़ी थोड़ी दूर मेड़ पर बैठकर हम दोस्त शौच करते थे. हम सिनेमा की चर्चा करते थे. मैंने 'समाज को बदल डालो' फिल्म की कहानी दोस्तों को खेत मे पैखाना करते हुए ही सुनाया था. तब मैं यह भी नही जानता था कि उस फिल्म के हीरो थे अजय साहनी ( जो बादमें नाम बदलकर परीक्षित साहनी हो गए) थे. एक रोचक अनुभव होता था सिनेमा की चर्चा करने का. मेड़ पर शौच चर्चा में ही एक दोस्त ने सुनाया था फिल्म 'बैंक रॉबरी' की कहानी, मैं घरवालों की चोरी से स्कूल से भागकर फिल्म देखने गया था. यही मेरी देखी दुसरी फिल्म रही. इन दोनों फिल्मों से ही समझ में आगया था कि अच्छा और बुरा खेला क्या होता है. वैसे ही जैसे गांव में 'सुल्ताना डाकू' नाटक देखने के बाद बाबाजी ने कहा था 'जो लड़के पढ़ते नहीं ऐसे ही डाकू बनते हैं.' याद आते हैं नौसेना डॉकयार्ड, मुंबई के वे दिन, जब डॉक पर खड़ी आईएनएस विक्रांत के बेसमेन्ट में तीन मंजिल नीचे इंजिन रूम में बैठकर मैंने 'मुकद्दर का सिकंदर' का रिव्यू लिखा था. यह भी रोचक प्रसंग है. थियरेटर कर्मी स्नेहलता वर्मा का एक नाटक देखा था 'पंछी ऐसे आते हैं'. लेखिका-अभिनेत्री वर्मा ने बताया था कि उनका बेटा मास्टर मयूर फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' में अमिताभ बच्चन का बचपन का रोल किया है. तबतक मुझे लिखने का शौक लग चुका था.मैं, मानसिंह दीप (तब पत्रकार अब फिल्म निर्माता हैं) और मास्टर मयूर साथ मे ग्लैक्सी टाकीज में फिल्म देखे. यही मयूर वर्मा आगे चलकर अमिताभ बच्चन की फिल्म प्रोडक्शन कंम्पनी 'एबीसीएल' में मैनेजर बने थे. मेरा लिखा फिल्म "मुकद्दर का सिकंदर" का रिव्यू बनारस के आज अखबार में छपा था. फिर तो मैं नाम बदल कर 'सोनी' नामसे कई अखबारों में फिल्मों के बारे में लिखने लगा. एकदिन मेरा लिखा एक फिल्म लेख मेरे अधिकारी लेफ्टिनेंट कमांडर टी आर मल्होत्रा ने देख लिया. पता चला मल्होत्रा साहब को भी लिखने का शौक था. वह एक फिल्म की कहानी पटकथा के रूप में लिखकर रखे थे. मुझे अपने घर बुलाए कहानी दिखाकर बोले- "किसी निर्माता के यहां इस कहानी को लगवाओ." मैंने फिल्म निर्देशक कनक मिश्रा के घर मे उन्ही दिनों नेवी कैंटीन से कम दाम में 3 सीलिंग पंखे लगवाया था. उनके घर मेरा आना जाना मानसिंह के रिश्ते के चलते हुए था. कनक मिश्रा उनदिनों अभिनेता अरुण गोविल को लेकर राजश्री प्रोडक्शन की फिल्में 'सावन को आने दो', सांच को आंच नहीं' बनाए थे. बादमे, अरुण गोविल 'राम' बने और आजकल वह सांसद भी हैं.उनकी भाभी तबस्सुम मजाक लेती थी उनका. मैं राजश्री प्रोडक्शन के फिल्म ऑफिस में लेफ्टिनेंट मल्होत्रा को कहानी सुनाने के लिए ले गया. वहां निर्देशक कनक मिश्रा ने मुझे और लेफ्टिनेंट कमांडर साहब को खूब वेलकम दिया, राजश्री के प्रमुख स्व. ताराचंद बड़जात्या से भी मिलवाया था. उसके बाद तो मुझे सिनेमा की दुनिया बड़ी लुभावनी लगने लगी. नेवल डॉकयार्ड की नौकरी से बंक मारने लगा... और अंततः जॉब से अलग हो गया और पूरी तरह फिल्म पत्रकार बन गया. यह सब हुआ सिनेमा देखने के शौक के चलते. मेरी तरह ही तमाम युवा सिनेमा के लुभावने मायाजाल से प्रभावित होकर बॉलीवुड में आए हैं. Read More रवि किशन ने किया कास्टिंग काउच का अनुभव, कहा- मेरे पर कई बार हुआ हमला सलमान खान की फिल्म सिकंदर का टीजर फिर हुआ पोस्टपोन, इस समय होगा रिलीज Salman Khan Birthday: 75 रुपये से की थी सलमान ने करियर की शुरुआत Malaika Arora ने Arjun Kapoor की 'मैं सिंगल हूं' कमेंट पर तोड़ी चुप्पी