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दादा साहब फाल्के अवाॅर्ड से सम्मानित एल.वी.प्रसाद उन चुनिन्दे फिल्मकारों में से एक थे, जिनकी फिल्में अर्थपूर्ण, पारिवारिक और मनोरंजक हुआ करती थी. उनके जन्मदिन पर प्रस्तुत है श्रद्धांजलि स्वरूप फिल्म इंडस्ट्री के जाने माने कलाकारों के श्रद्धा सुमन.
दिलीप कुमार:
मेरी उनसे पहचान बरसों की थी. उस जमाने में भी वे फिल्म मेकिंग के प्रति काफी आधुनिक विचार रखते थे. वे समय से आगे सोचते थे. ‘राजा और रंक‘ उनके इन्हीं विचारों की एक मिसाल सी है. समय के साथ हमारी मुलाकातें कम होती गई, पर मुझे उनकी हर बात याद है.
सुनील दृत्त:
प्रसादजी के निधन से फिल्म संसार का महत्त्वपूर्ण अंग टूट सा गया. क्या नहीं किया उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री के लिए, ‘प्रसाद प्रोडक्शन के बैनर तले दक्षिण और हिन्दी भाषाओं में कितनी आदर्श फिल्में दी, आधुनिक सुविधाओं से युक्त ‘प्रसाद स्टूडियो‘ का निर्माण किया. निडरता से कितने नये चेहरों को लाॅन्च किया. खुद एक संघर्ष भरे कठिन दौर से आगे आये थे, छोटे मोटे रोल करते करते धीरे-धीरे प्रसिद्धी की चोटी पर बतौर फिल्मकार चढ़े, जाहिर है उनमें भरपूर संवेदनायें थी. फिल्म ‘मिलन‘ के दौरान मेरी उनसे घनिष्टता बढ़ी थी. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.
राजेन्द्र कुमार:
एल.वी. प्रसाद जी के साथ काम करते हुए किसी भी कलाकार को संपूर्णता-का एहसास हो जाता था . उनकी फिल्में कुछ सोचने पर मजबूर करती रही, वे दर्शकों के मन के नाजुक कोनों को पहचानते थे. उनके जीवित रहने से इंडस्ट्री को काफी सहारा मिल रहा था, आज वह सहारा टूट गया. सब ऊपर वाले की मर्जी .
महमूद:
मेरे उनसे काफी अच्छे संबंध थे . वे सिर्फ एक फिल्मकार ही नहीं बल्कि दक्षिण भारत के गणमान्य समाज सुधारकों और समाज सेवकों में से एक थे. ‘प्रसाद नेत्र चिकित्सा केन्द्र‘ की स्थापना में उनका योगदान बहुत था. मैंने उनके साथ काम करते हुए महसूस किया कि वे जितने उदार थे, “उतने ही सख्त भी थे. स्टार नखरे वे बिल्कुल पसंद नहीं करते थे और इस मामले में वे कोई समझौता नहीं करते थे. काश उनकी तरह कुछ और फिल्म मेकर होते. प्रभु उन्हें जन्नत में जगह दें.
जीतेन्द्र:
करियर के शुरूआती दौर में ही मुझे उनके साथ का मौका मिला था. वे स्वयं जितने अनुशासित थे उतने ही वे कलाकारों से अनुशासन चाहते थे. चूंकि मैं डिसिप्लिन के मामले में बेहद चुस्त था. (आज भी हूं) इसलिए वे मुझे बहुत पसन्द करते थे. हिन्दी फिल्मों में काम करते हुए जब अचानक मैं साउथ की फिल्मों की तरफ मुड़ गया तो वहां मुझे उनके भव्य स्वरूप का सही नजारा मिला. वे तमिल, तेलुगु की फिल्मों में भी चोटी के निर्देशक थे. भगवान उनकी आत्मा को शांति दें.
नंदा:
मौत कीं खबरों से दिल मेरा डूबने लगता है. एल.वी. प्रसाद जी के निधन के समाचार से दिल दुःख से भर उठा. एक के बाद एक सारे कीर्तिमान और अच्छे फिल्म मेकर संसार छोड़ते जा रहे हैं. मन बेचैन है. प्रसाद जी के साथ मैंने ‘छोटी बहन‘ में काम किया. उस वक्त मैं वाकई छोटी-सी बाला थी, प्यार से प्रसाद जी मुझे ‘बेबी‘ बुलाया करते थे . मैं उनके लिए हमेशा ‘बेब्ी‘ रही. पुरानी सारी वो यादें दिल को दर्द से भर देती हैं. सारी भगवान की लीला है, हम मनुष्य क्या कर सकते हैं ?
श्री देवी:
साऊथ में हो या हिन्दी फिल्म जगत में, एल.वी. प्रसाद जी का एक विशेष स्थान था जो शायद भरना अब मुश्किल है. उनमें यह बात थी कि कम फिल्में बनाते थे, पर जो फिल्में बनातें थे वे ‘बेस्ट‘ होती थी. सुना है वे भारत की प्रथम फिल्म ‘आलम- आरा’ में एक जूनियर आर्टिस्ट के तौर पर काम करते हुए फिल्म जगत में आये थे . वहां से यहां तक, वे चोटी तक पहुंचे और दादा साहेब फाल्के अवाॅर्ड के हकदार बन गये. कमाल के शख्स थे.
जयाप्रदा:
जिस तरह से मैं स्व. सत्यजीत राय से प्रभावित थी. वैसे ही स्व. एल.वी. प्रसाद जी के निर्देशन की कायल थी. अपने कैरियर जीवन में उन्होंने जो साठ उल्लेखनीय फिल्में बनाई. वे फिल्म इतिहास को गर्व से भरने के लिए काफी है. उनकी साऊथ की फिल्में ‘मामादेसम‘, ‘संसारम‘, ‘साहूकार‘ वगैरह यादगार हैं. हिन्दी फिल्मों में उनकी उल्लेखनीय फिल्में हैं ‘ससुराल‘, ‘हम राही‘, ‘दादी माँ‘, ‘खिलौना‘.
रति अग्निहोत्री:
एक दम नये चेहरों को इन्ट्रोड्यूस करने की नई शुरूआत एक तरह से ‘एल.वी. प्रसाद जी से ही शुरू हुई थी. जब उन्होंने ‘एक दूजे के लिए‘ में एक दम नई जोड़ी ली थी. मैंने उनकी प्रत्येक फिल्म में यह देखा कि वे सामाजिक समस्याओं को मनोरंजक ढंग से कुरेदते थे. उनकी कोई भी फिल्म देख लीजिए. ‘बेटा बेटी‘, ‘शादी के बाद‘, ‘जीने की राह‘, ‘छोटी बहन’, ‘मिलन‘, ‘राजा और रंक‘, ‘जय विजय‘, ‘एक दूजे के लिए.....! क्या ऐसी फिल्में अब कभी बने सकेगी.
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