क्या आपा बता सकते हैं कि निम्न खूबसूरत नगमें किस सुरीली गायिका ने गाये हैं, किसके कंठ का माधुर्य छलकता है ऐसे हजारों गीतों में जैसे कि बियावान में बांसुरी बज रही हो कि बसंत ऋतु में कोयल कुहुक रही हो.
न तुम हमें जानों, न हम तुम्हें जाने मगर लगता है कुछ ऐसा, मेरा हमदम मिल गया, बात एक रात की,
शराबी-शराबी ये सावन का मौसम ....'नूरजहां'
पानी में जले मेरा गोरा बदन,
पानी में ..... नई 'मुनीम जी'
मेरे महबूब न जा, आज की रात
न जा ....' नूर महल'
जूही की कली मेरी लाडली, नाजों में पली मेरी लाडली 'दिल एक मंदिर'
नहीं, नहीं, लता मंगेश्कर नहीं. यह स्वर्णिम, सुरभित, रसभीगी आवाज है सुमन कल्याणपुर की. अगर उनका नाम अनाउंस न किया जाय तो लोगों को वहम हो कि लता की आवाज है. वैसा ही 'औज, वैसा की माधुर्य, वैसा ही लोच...' क्या आपको भी कभी ऐसा महसूस होता है?'
'नहीं, कदापि नहीं. मैंने जब भी कोई गीत गाया है और जब भी अपने गीत सुने हैं मुझे हर पल यही अहसास हुआ है कि यह आवाज सुमन की है, इनकी हर विशेषता, हर कमी मेरी अपनी है. मैं अपनी ही आवाज में गाती रही हूं सदा'
'लेकिन मैं श्रोताओं की बात पर रहा हूं, वे यही बात मानते रहे हैं. एक बात और लोगों का कहना है कि आपको. आपकी आवाज में तब्दीली लानी चाहिए थी-अगर ऐसा कर पाती हो...'
'आप भी कैसी बात करते हैं. मुझे आवाज ईश्वर ने दी है अगर आपके कथनानुसार ही अगर वाकई मेरी आवाज लताजी की आवाज जैसी है तो भी उसमें बदलाव कैसे आ पाएगा. जैसी उसने बख्शदी; बख्श दी... उसकी कृपा है. उसे बदला कैसे जा सकता है, काॅमेड़ी पैदा करके अथवा और कोई तरीके से?'
'लेकिन स्टायल यानि कि शैली तो चेंज कर सकती थी?'
'वह काम मेरा नहीं है. संगीतकार का है. संगीतकार जैसी धुनें तैयार करते आए हैं, मैंने उसी अंदाज, उसी माफिक पूरे श्रम, लगन और मेहनत से गाया है...
'लेकिन आम चर्चाएं हैं कि आप इन दिनों कम गा रही हैं और इसका कारण माना जा रहा है, फिल्मी राजनीति, गायन न क्षेत्र का एकाधिकार...'
'पहली बात यह है कि मैं कम नहीं गा रही हूं. अगर कुछ कम गा पा रही हूं तो वह है निजी कारण, पहले मैं गृहिणी हूं उसके बाद में हूं गायिका घर-परिवार, पति,बच्चों, अतिथियों, पारिवारिक जनों, मित्रों आदि के बारे सोचना, उनमें रमे रहना मेरी पहली आवश्यकता है. गायन के क्षेत्र में मैं न धन कमाने की लालसा से आई, न प्रतिस्पर्धा के लिए गायन मेरा जीवन है, सरस्वती का पूजा-अर्जन, उसके साथ ख्याति तो अपने आप जुड़ जाती है. ख्याति मिलती है तो धन भी प्राप्त होता ही है, इज्जत भी मिलती है लेकिन ये सब सेकंडरी चीजें हैं. पहली चीज है आराधना और साधना
दूसरी बात कि मैंने आज तक ऐसी कोई बात महसूस नहीं की कि एकाधिकार या राजनीति नाम की किसी चीज से मेरा वास्ता पड़ा हो अगर ऐसा होता तो मैं 22 वर्षो में करीब पौने पांच हजार गाने न गा पाती. सन् 1958 से मैंने गाना शुरू किया था कल्याणजी-आनंदजी के संगीत निर्देशन से सजी फिल्म 'सट्टा बाजार' से और तब से अब तक निरंतर गा रही हूं.'
'पहली बात यह कि 22 वर्षो के हिसाब से आपने कम ही गानें गाये हैं, कम इसलिए गाएं हैं कि मैं क्वांलिटी में जरा भी विश्वास नहीं करती. क्वालिटी में करती हूं. हर तरह के गाने मैंने कभी नहीं गाए, स्वीकार तक नहीं किए. क्या आप बता सकते हैं कि मैंने सस्ते गानें, मुजरे, कैबरे आदि गाए हों तो? मैंने सदा से अपने गीत सेलेक्ट करके गाएं हैं. मुझे नहीं जचे तो मैंने 'ना' कह दिया. काम के लिए कभी भी तूफान नहीं उठे. मैं भाग्य में बिलीव करती हूं. जितना भाग्य में लिखा होता है उतना मिलता है, बंध कर, बंदिश में मैंने कभी काम नहीं किया. यह मैं पहले की कह चुकी हूं कि कैरियर को कभी मैंने अपनी पारिवारिक जिंदगी पर हावी नहीं होने दिया. अपने दायित्व पूरे होने के बाद ही मैंने काम की ओर ध्यान दिया. उतना ही काम किया जितने काम को मैं अधिक से अधिक खूबसूरती से अंजाम दे सकती थी. हर समय मेरे पास काम का अंबार रहा लेकिन उस अंबार में से मैंने अच्छे और उम्दा काम को ही चुना.'
'आपके इंटरव्यू, चर्चाएं आदि भी तो कम ही आते हैं.'
'हां, आपको भी तो इंटरव्यू मैं पूरे डेढ़ वर्ष के बाद देने बैठी हूं, इस डेढ़ वर्ष के दरमियान मैंने एक भी इंटरव्यू नहीं दिया'
'क्यों?'
'प्रोपेगेंडा से क्या फायदा ? ये सारे काम पब्लिसिटी के लिए करते हैं लोग, लेकिन मेरा मानना है कि मनुष्य की सबसे बड़ी पब्लिसिटी होती है उनका लगन और निष्ठा से किया गया काम.'
'खैर, आज के फिल्मी-संगीत के बारे में आपके क्या विचार हैं?'
'बहुत तरक्की की है हमारे फिल्मी संगीत ने, दिन-ब-दिन वह महासागर की तरह विकसित होता जा रहा है. बहुत ही अच्छा लग रहा है मुझे आज का संगीत टेक्नीकली तो यह इंफ्रूव हुआ ही है विश्व भर की विविधताएं भी पैदा हुई हैं इसमें. मैं अपने ही बारे में व्यक्तिगत रूप से कहूं तो पहले मेरे गीत बहुत फास्ट हुआ करते थे. मैं सोचा करती थी काश ठहराव वाले थोड़ी धीमी स्पीड के गाने, गाने को मिले ताकि बोल के हिसाब से गाने के एक्सप्रेशंस अधिक विस्तृत कर पाऊं. इन दिनों मैं ऐसे ही गाने गा रही हूं. सिचुएशंस का तकाजा तो यही होता है और मुझे आजकल यह बात महसूस भी हो रही है कि सिचुएशंस के हिसाब से पुख्तगी आ गई है. आज के गीतोें में. फिल्म में देखें तो नेचुरल महसूस होता है. पहले रिहम पर बहुत जोर दिया जाता था आज हर पहलू पर ध्यान दिया जाता है.'
'लेकिन लोगों की धारणा तो यह है कि आज का संगीत वाद्य-यंत्रों का शोर मात्र रह गया है.'
'लोगों के क्या विचार हैं. जो मैं अनुभव कर रही हूं वह मैंने व्यक्त किया है ....'
'तो फिर क्या कारण है कि आजकल जब चलती हुई फिल्म में गीत आते हैं तो लोग उठकर सिगरेट पीने पान खाने अथवा युरिनल आदि के लिए चले जाते हैं?'
'पहले भी जाते थे. जिन लोगों के समझ की या आनंद की जो चीज नहीं होगी वे अक्सर ऐसा करेंगे ही. उन्हें संगीत में रस नहीं मिलता होगा.'
'और आज की युवा-पीढी जो पुराने गीतों की शौकीन है, कलेक्शन्स में मात्र पुराने गीतों की रिकार्डस ही होती है, बड़ा फक्र महसूस होता है उन्हें और इसे वे सुरूचि का प्रतीक मानते हैं .... '
ज्यादा रिकार्डस् होने या पुराने गीतों के इतने कलेक्शंस है उनके पास इससे अनके मन को संतुष्टि मिलती होगी लेकिन आम आदमी तो ऐसा नहीं करता? अगर आम आदमी आधुनिक गीतों में इतना रस नहीं लेत तो गीत-संगीत का इतना विकास ही न हो पाता हर वक्त आदमी की चाह, नया पाने, नया तलाशने मे ही होती है.'
आप सब सहमत हैं या नहीं सुमन की इन बातों से लेकिन मैं काफी अंशों में सहमत हूं वे एक प्रतिभावान और मौलिक गायिका हैं, दंभ, बनावट दिखावट से अलग-थलग सी न उन्हें राजनीति से मतलब न निरर्थक बातों से आश्चर्य की बात तो यह है कि वे न फिल्में देखती हैं, न समारोह में जाती हैं. बहुत ही सादगीपूर्ण प्रकृति की हैं. हां, विश्व के हर भाग में उनके चाहक हैं और विश्व के हर कोने में उन्होंने गायन के प्रोग्राम दिए है. इस समय भी वे ढेरों फिल्मों के लिए अनुबंधित हैं और प्राइवेट भजन गजलें, गीतों के उनके रिकार्डस् भी बने हैं और उन्होंने भी उतनी ही लोकप्रियता अर्जित की हैं.
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