Remembering Rajendra Krishan: ने कहा अपनी बीन मैंने आप कभी नहीं बजायी 6 जून 1919 को पाकिस्तान के जलाल पुर जट्टां गांव में जन्में हिन्दी फिल्म उद्योग के सुपरिचत गीतकार और संवाद लेखक राजेंद्र कृष्ण ने अब तक ढ़ाई सौ से अधिक फिल्मों में गीत और संवाद लिखकर जो यश और प्रतिष्ठा अर्जित की है... By Mayapuri Desk 06 Jun 2024 | एडिट 23 Sep 2024 12:56 IST in गपशप New Update Listen to this article 0.75x 1x 1.5x 00:00 / 00:00 Follow Us शेयर 6 जून 1919 को पाकिस्तान के जलाल पुर जट्टां गांव में जन्में हिन्दी फिल्म उद्योग के सुपरिचत गीतकार और संवाद लेखक राजेंद्र कृष्ण ने अब तक ढ़ाई सौ से अधिक फिल्मों में गीत और संवाद लिखकर जो यश और प्रतिष्ठा अर्जित की है उसका अपना एक दिलचस्प इतिहास है अक्सर देखा यह जाता है कि लेखक और संधर्ष का एक अटूट रिश्ता होता है लेकिन शुरू से ही राजेंद्र कृष्ण के साथ परिस्थितियां अनुकूल रहीं और फिल्म-उद्योग में स्थापित होने के लिए जो 'धक्केबाजी' का सिलसिला होता में उसके वे शिकार कभी नहीं हुए. ऐसा लगता है जैसे असफलता शब्द इनके लिए बना ही नहीं-चाहें घुड़-दौड़ का मैदान हो अथवा फिल्म-उद्योग की जटिलतम स्थितियां हर जगह इनकी कीर्ति समान रूप से फैलती रही राह में बाधाएं कभी आयी ही नहीं जैसे. Rajendra Krishan Songs घर में पढ़ने लिखने का माहौल शुरू से ही था दादा, पिता और बड़े भाई सभी साहित्य प्रेमी व्यक्ति थे और उर्दू-फारसी के साहित्य में सबों की रूचि थी. बल्कि बड़े भाई तो कहानी भी लिखा करते और उनका एक उपन्यास भी प्रकाशित हुआ था इस पारिवारिक पृष्ठ भूमि के कारण सातवीं-आठवीं जमात से ही इन्हें कवितायें लिखने की आदत लग गई वैसे हिन्दी-संस्कृत के विद्यार्थी थे, लेकिन उर्दू में अच्छी पकड़ थी. 35 में मैंट्रिक करने के बाद शिमला में कल्र्क बन गये. 'तेज' 'मिलाप' और 'प्रताप' जैसे अखबारों में रचनाएं हमेंशा प्रकाशित होतीं. इसके अतिरिक्त असर मुलतानी हैरत शिवनवी और फिराक गोरखपूरी जैसे मशहूर शायरों का सानिघ्य हमेशा मिला करता. लाहौर में एहशान दानिश के साथ भी घनिष्ट संपर्क में रहे. यानी तत्कालीन -90ः से ज्यादा चोटी के अदबी रचनाकारों के साथ परिचय का सिलसिला था. किसी को भी साहित्यकार अथवा लेखक बनने के लिए इतनी बातें बहुत ज्यादा होती हैं. इन्हीं दिनों शिमले से अंग्रेजी में 'लिडल वीकली' के नाम से एक अखबार निकला करता और राजेंद्र कृष्ण उसमें अंग्रेजी फिल्मों की समीक्षा लिखा करते. यह अखबार बड़े-बड़े अंग्रेज अधिकारियों का अखबार था और इस पर्चे में लिखना एक शान की बात भी थी. इधर 55 रूपये महीना की नौकरी चल ही रही थी कि 41 में राजेंद्र कृष्ण की शादी हुई और जीवन में नयें मोड़ के लक्षण दिखाई पड़े. इन्होंने सोचा यह नौकरी ज्यादा दिनों तक नहीं हो पायेगी मुझसे क्यों न फिल्मों में लिखने के लिये प्रयास किया जाये ?' इस विचार ने ही 43 की जनवरी में इन्हें बंम्बई आने के लिए बाध्य किया. फिल्म के किसी भी क्षेत्र में घुसने के लिए एक अथक परिश्रम और संघर्ष का लम्बा दौर प्राय सभी लोगोें के साथ हुआ है लेकिन राजेंद्र कृष्ण इसके अपवाद ही माने जायेगे. बम्बई आये तो जेब में सिर्फ दस रूपये की पूंजी ही साथ में थी. तब सस्ती का जमाना था दो-तीन दिन फिर भी चले. पैसे खर्च हो गये और अब सवाल यह था कि कुछ होना चाहिए लेकिन क्या हो और कैसे हो यह सोच ही रहे थे कि शिमला के ही एक बेहद परिचित व्यक्ति आर. राय चरनी स्टेशन रोड पर मिल गये. ये काफी पैसा लेकर बम्बई में फिल्म बनाने आये थे. दोनों एक-दूसरे के विचारों से परिचित हुए. राजेंद्र कृष्ण ने कहा- 'मैं फिल्मों में लिखने आया हूं.' राय को एक माकूल आदमी मिला था और उनके पास एक कहानी भी थी. राजेंद्र कृष्ण ने कहानी देखी और वह इतनी घटिया थी कि जिसकी कोई हद नहीं. इस कहानी पर काम करने से इन्होंने इनकार कर दिया लेकिन राय पिक्चर्स में प्रचारक की हैसियत से फिल्म कैरियर शुरू हो गया. तब की बात यह है कि स्टूडियो में अंदर आने के लिए बड़े-बड़े तिकड़म अपनाने पड़ते थे. फिल्म के लोगों के बीच पहुंचने का इस प्रचारक की नौकरी के बदले एक मौका मिला था इसी कारण सहगल जे. के नंदा और लीला चिटनिस जैसे चोटी के सितारों से परिचय बढ़ा. दो साल तक यह नौकरी चली और इस अवधि में लोगों को इनकी प्रतिभा का अच्छा परिचय मिला. अब साल में दो-तीन गीत लिखने का अवसर मिल जाया करता. इसी बीच जनक पिक्चर्स की दो अधूरी फिल्में-'जनता' और 'संतान' के लिए आधे गीत और आधे संवाद लिखने का काम मिला इनके काम की खूब प्रशंसा हुई और लोगों को यह पता चला कि राजेंद्र कृष्ण नाम का एक नया लेखक भी फिल्म उद्योग में पैदा हो गया है. प्रभात कंपनी के बाबू राय पाई ने बम्बई में फेमस पिक्चर्स की स्थापना की और स्वतंत्र रूप से इन्हें इस कम्पनी के लिए संवाद और गीत लिखने का प्रस्ताव मिला. राजेन्द्र कृष्ण से पूछा गया 'आप क्या लेते हैं ? आपकी जरूरते क्या हैं?' इन्होंने जवाब दिया-'मैं शाही तबियत का आमदी हूं और मेरे खर्चे भी बड़े हैं. सिगरेट पीता हूं और रेस खेलने का भी शौक है.' बाबू राव इस जवाब से बड़े खुश हुए और उन्होंने एक हजार रूपये महीने तनख्वाह तय की फेमस पिक्चर्स कृत पहली फिल्म 'आज की रात' बनी और प्रदर्शित हुई. मिनर्वा में यह फिल्म 15 सप्ताह चली. फिल्म में संगीत हुस्न लाल-भगत राम का था और मोती लाल, सुरैया याकूब और शाहनवाज उसके मुख्य कलाकार थे. जनवरी 47 को इस फिल्म के लिए अनुबंधित होते समय राजेंन्द्र कृष्ण को अपने उज्जवल भविष्य की सूचना मिल गई थी. इस फिल्म के प्रदर्शन के बाद 'फिल्म इंडिया' और ढेर सारे अखबारों में फिल्म के संवाद और गीतों की तारीफ हुई. यह सफलता प्रथम चर्ण था. फेमस पिक्चर्स ही की अगली फिल्म 'प्यार की जीत' और 'बड़ी बहन' में भी इनके संवाद और गीतों की खूब सराहना हुई. 'प्यार की जीत' का एक गीत 'चुप चुप खड़े हो जरूर कोई बात है' आज भी उतना ही लोकप्रिय है जितना तब था. समय का चक्र इस तरह उनके पक्ष में चलने लगा. एक दिन बाबू राव पाई ने कहा कि अगर बाहर की फिल्में मिलती हैं तो उनमें लिखने से उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी. इस तरह जैमिनी दीवान कृत 'लाहौर' और वर्मा फिल्म्स कृत 'पंतगा' में गीतकार के रूप में अनुबंधित हुए. 'लौहार' का एक गीत 'बहारें फिर भी आयेंगी'-'मगर हम तुम जुदा होंगे' बेहद लोकप्रिय हुआ. और आज भी उसकी ताजगी ज्यों की त्यों बनी है. इसके बाद फिल्मिस्तान के राय बहादुर चुन्नी लाल और सुबोध मुखर्जी की तरफ से बुलावा आया और इस फिल्म कम्पनी में 'समाधि' 'नागिन' और 'अनार कली' के लिए राजेन्द्र कृष्ण ने जो गीत लिखे उसकी ताजगी शायद कभी नहीं खत्म होगी. यह बात सभी को मालूम हैं कि मद्रास के निर्माताओं के लिए राजेन्द्र कृष्ण का नाम ही एक कमजोरी है. मद्रास की फिल्मों में राजेन्द्र कृष्ण की मौजूदगी की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं. '50 में 'पंतगा' मद्रास में प्रदर्शित हुई और लगातार सोलह सप्ताह तक चली. यह किसी भी हिंदी फिल्म के साथ पहली घटना थी. इस घटना की प्रतिक्रिया यह हुई कि ए. बी. एम. के साथ बंबई आए और राजेन्द्र कृष्ण को ढूंढ कर अपनी फिल्मों के लिए अनुबंधित किया. ए. बी. एम. की फिल्म 'बहार' वैजयन्ती माला की भी पहली हिंदी फिल्म थी और राजेन्द्र कृष्ण की भी पहली मद्रासी हिंदी फिल्म. यह फिल्म सिलवर जुबली हुई और राजेन्द्र कृष्ण के नाम की धूम मच गयी. इस तरह 'बहार' से 'लड़की' 'भाई भाई' 'बरखा' 'भाभी' 'मेहरबान' और 'गोपी' तक आते-आते आपने सैकड़ों फिल्मों में गीत और संवाद लिखें. जिनमें अनेकों फिल्में रजत जयन्ती फिल्में थीं. किंतु इसका मतलब यह नहीं कि बंबई की फिल्मों में आपका योगदान नहीं रहा. 'कहानी किस्मत की' 'ज्वार भाटा' 'ब्लैक मेल' 'लौफर' और 'दो ठग' जैसी फिल्में इस बात का सबूत है कि मद्रास की तरह बंबई फिल्म-उद्योग में भी उनकी लोकप्रियता ज्यों की त्यों कायम रही. फिल्म-उद्योग में राजेन्द्र कृष्ण की सफलता के पीछे की कहानी यह है कि इन्होंने हिंदी-उर्दू के साहित्यकारों की रचनाओं से अच्छा परिचय प्राप्त किया था. प्रेमचन्द्र, पंत, निराला, फिराक, किशन चन्दर, अली सरदार जाफरी और पं. सुदर्शन की साहित्यक कृतियों के अध्ययन से इन्हें फिल्म की भाषा में परिष्कार लाने का श्रेय प्राप्त हुआ. अपनी फिल्म की भाषा के संबंध में ये इस बात को लेकर पूरी तरह सचेत होते हैं कि आम बोलचाल की भाषा से अलग नहीं हुआ जाय इसलिए ये कहते हैं-'अगर मैं फिल्मों में न आया होता तो बहुत बड़ा अदबी शायर होता. वैसे भी मैं ने सिर्फ फिल्म के लिए लेखन-कार्य किया है. लेकिन जहां भी फिल्म-लेखन में ऊंची चीजों का जिक्र होता है मेरा नाम अवश्य ही लिया जाता है.' आज जब अपनी तरफ से फिल्म-लेखक अपने प्रचार में दिलचस्पी ले रहे हैं राजेन्द्र कृष्ण उससे दूर हैं. आत्म प्रचार पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं-' मैंने अपनी बीन आप कभी नहीं बजायी और यह उचित नहीं. जो चीज हम लिखते हैं. उसमें अगर कोई बात है तो स्वयं बात बोलेगीं. सूरज अथवा चांद को अपनी रोशनी की खबर दुनिया को नहीं देनी पड़ती और लोग उनकी रोशनी में अपनी सांस लेते हैं. इससे कौर इनकार कर सकता है. बल्कि आज तो हिंदी फिल्म की कहानी जेम्स हेडलीचेज लिखते हैं और फिल्म लेखक अपना नाम देते हैं, अपना प्रचार कराते हैं.' राजेन्द्र कृष्ण जिन दिनों फिल्मों में आये थे उन दिनों फिल्म लेखक एक मुंशी से ज्यादा कुछ नहीं था और वह निर्माता के सामने कुर्सी पर नहीं बैठा करता था. इस परंपरा को तोड़ने का साहस राजेन्द्र कृष्ण ने किया और वे निर्माताओं के साथ बैठकर सिगरेट के कश लेते. इन्होंने उनसे कहा कि- 'अगर उनके पास पैसा है तो हमारे पास भी कलम है.' शुरू-शुरू में कहानी लेखकों के होटलों में बैठकर कहानी लिखने की परंपरा इन्होंने ने ही शुरू की. मद्रास जाने पर निर्माता जिस होटल और सूट में फिल्म के नायक अथवा नायिका के ठहरने का प्रबंध करते राजेन्द्र कृष्ण भी वहीं होते. यह प्रतिष्ठा की बात थी और इसका निर्वाह बाकायदा होता रहा. पिछले वर्षो में जो गीतों की स्थिति थी आज उसमें एक मौलिक अंतर हुआ है. इस बारे में राजेन्द्र कृष्ण जी का कहना है 'आज गीतों में शोर ज्याद है, पश्चिमी प्रभाव ज्यादा है और शब्दों तथा भावों को ये शोर उभरने का मौका देता ही नहीं. आज तो फिल्म देखकर आने के बाद गीत के बोल भी याद नहीं आते. मेरी अपनी फिल्मों के साथ यह नहीं हुआ ज्यादातर 'ब्लक मास्टर' का एक गीत 'गोविंदा आला रे आला रे' हर वर्ष जन्माष्टमी को बंबई में लाखों लोग गाते हैं या फिर 'खानदान' का भजन 'बड़ी देर भई नंदलाला' भी खूब लोक प्रिय हुए. मैं यह मानता हूं कि फिल्म लिखने के लिए लोक जीवन की रस्मरिवाजों को समझना ज्यादा जरूरी है और जो यह समझते हैं फिल्म-दर्शक उन्हें ही अपनाते हैं ' फिल्मों के अलावा अच्छे दोस्तों और पारीवारिक वातावरण में बैठना राजेन्द्र कृष्ण ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि फिल्म की गुटबन्दी इन्हें अच्छी नहीं महसूस होती. सरकार द्वारा फिल्मों में सुधार के लिए उठाये गये कदम के पक्ष में हैं और इनका कहना है.'इसका पालन अगर ठोस रूप से हुआ तो अच्छी सामाजिक फिल्मों के निर्माण को मार्ग प्रशस्त होगा.' रेस खेलना राजेंन्द्र कृष्ण का विरोष शौक रहा और इस शौक ने इत्तफाक से '71 में जैकपाॅट के द्वारा इन्हें 48 लाख रूपये की आमदनी भी हुई और एकाएक राजेन्द्र कृष्ण पूरे देश में अचानक आये इस धन के कारण बेहद लोकप्रिय हुए. यों इस रकम के तीन भागीदार थे उनकी पत्नी उनके सुपुत्र और स्वयं राजेन्द्र कृष्ण. इसी रकम में से एक लाख रूपया श्रीमती गांधी को प्रधानमंत्री कोष में जरूरत मन्द बच्चों और स्त्रियों के नाम पर दिया गया. एक लाख रूपये इन्होंने ध्यानपुर के बाबा लाल जी की गद्दी पर भी दान स्वरूप दिये तथा छोटी-मोटी अनेक संस्थाओं को दस-दस पांच-पांच हजार रूपये की रकम से सहायता दी गयी. इस खबर का लाभ उठाकर अनेक लोगों द्वारा जिनके व्यक्तिगत पत्र सहायता के लिए आने लगे. किंतु अनजान हाथों में रकम देकर मानवीय प्रवृति दूषित करना अच्छा नहीं लगा. वे कहते हैं 'आधी से ज्यादा रकम खर्च हो चुकी है. शेष पर सरकार को 'वेल्थ टैक्स' मिलता है साथ ही इस पर जो ब्याज मिलता है उसमें भी सरकार को आयकर का भुगतान करना ही पड़ता है. फिर भी इन सारी बातों के बावजूद रेस खेलना तो ठीक नही समझते क्यों कि शायद कभी किसी आदमी को भाग्य होने पर वैसे मिलते हैं' रेस खेलने के सिलसिले में एक कहानी बयान करते हैं राजेन्द्र कृष्ण....'रेस राजे-महाराजाओं की चीज थी लेकिन इस बीमारी के चक्कर में ढेर सारे लोग आ गये. मुझसे जब कोई इस बारे में कहता है तो मैं उससे कहता हूं कि उस मैदान की तरफ भी मत जाना. मैंने सिर्फ शौक और दिल बहलाव के लिए शुरू किया था लेकिन मेरा एक शौक भी अब खत्म होता जा रहा है. जब कभी ही अब रेस कोर्स जाया करता हूं. रेस कितनी बुरी चीज है उसके बारे में एक बड़ी शिक्षाप्रद कहानी है-कलकत्ते में एक करोड़ प्रति आदमी एक भीखारी से टकरा गया. भीखारी को ही धौंस देते हुए उस आदमी ने कहा, 'देखते नहीं'. भिखारी ने कहा-'अगर मैं देखता तो आप मुझसे क्यों टकराते. वह करोड़पति चलने लगा. भिखारी ने उसे आशीष दिया कि उसे रेस की आदत लग जाए उस आदमी को रेस खेलने की आदत लगी और वह सब कुछ गवां बैठा. इसी से शिक्षा ली जा सकती है'. राजेन्द्र कृष्ण अपने गीतों में राष्ट्रीय और सांस्कृतिक भावनाओं के प्रसार पर विशेष ध्यान देते हैं. 48 में गांधी जी के निधन के बाद 'सुनो-सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की ये अमर कहानी' जैसा गीत लिखा जो हर वर्ष 30 जनवरी को गांधी जी को श्रद्धांजली अर्पित करने के क्रम में करोड़ों लोगों द्वारा गाया और सुनाया जाता है. अपने लम्बे फिल्म-जीवन में राजेन्द्र कृष्ण जी ने जो प्रतिष्ठा और यश अर्जित किया है और फिल्म-उद्योग को उन्होंने जो अपनी अमूल्य सेवाएं दी हैं उसे हमेशा याद किया जाता रहेगा. 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