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हरिवंशराय बच्चन की वह कविता, जो आपको अंदर तक झकझोर देती है...

27 नवम्बर 1907 को पैदा हुए हरिवंश राय बच्चन ने लंबे समय तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। इसके बाद 2 साल तक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में विलियम बट्लर येट्स पर पीएचडी की।

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By Mayapuri Desk
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साहित्य को प्रेम करने वाला और साहित्य को रचने वाला दोनों ही स्थितियों में शायद ही कोई अपवाद होगा जो महाकवि हरिवंश राय बच्चन के नाम से परिचित न हो. उन्होंने साहित्य को मधुशाला, मधुबाला, अग्निपथ और निशा निमंत्रण जैसी काव्य-रचनाएं दीं. 27 नवम्बर 1907 में हरिवंश राय बच्चन का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से सटे प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गांव बाबूपट्टी में हुआ था. को पैदा हुए लंबे समय तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया. इसके बाद 2 साल तक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में विलियम बट्लर येट्स पर पीएचडी की. बच्चन जी की हिंदी, उर्दू और अवधी भाषा पर अच्छी पकड़ थी. वह ओमर ख़य्याम की उर्दू-फ़ारसी कविताओं से बहुत प्रभावित थे. आपको बता दें कि हरिवंश राय हिन्दी साहित्य (के उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवियों में से एक हैं.

लोकप्रिय कवि हरिवंशराय बच्चन ने मधुबाला,  मधुकलश,  मिलन यामिनी, प्रणय पत्रिका, निशा निमन्त्रण , तेरा हार,  हलाहल दो चट्टानें और एकांक-संगीत, सूत की माला,  जैसी रचनाएं लिखी है. हिंदी साहित्य में उनकी अतुलनीय सेवा के लिए 1976 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. उनकी कविताएं आज भी खूब चाव से पढ़ी जाती है.

यहाँ पड़े पद्म भूषण से सम्मानित हरिवंशराय बच्चन की खास कविता:

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अग्निपथ
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छांह भी,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ,  कर शपथ,  कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु स्वेद रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

मधुशाला
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला, 
अलग अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ – 
राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला

लाल सुरा की धार लपट-सी कह न इसे देना ज्वाला, 
फेनिल मदिरा है मत इसको कह देना उर का छाला, 
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी है,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला

बनी रहे अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला, 
बनी रहे वह मिट्टी जिससे बनता है मधु का प्याला, 
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने, 
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला!

मुसलमान औ हिन्दू है दो, एक मगर उनका प्याला, 
एक मगर उनका मदिरालय, एक मगर उनकी हाला, 
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते, 
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला।

यज्ञ अग्नि-सी धधक रही है मधु की भट्ठी की ज्वाला, 
ऋषि-सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला, 
मुनि कन्याओं-सी मधुघट ले फिरती साकीबालाएँ, 
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।

ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला, 
गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला, 
साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा, 
दुनियाभर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।

यदि इन अधरों से दो बातें प्रेमभरी करती हाला, 
यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला,
हानि बता जग तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर, 
मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला।

कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय बना पाया हाला, 
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला! 
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय न कोई जानेगा, 
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह

यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं कवि का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।

मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।
 
बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,
कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।

पितृ पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।

जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई

चिड़ियाँ चहकी, कलियाँ महकी, पूरब से फिर सूरज निकला, जैसे होती थी, सुबह हुई, क्यों सोते-सोते सोचा था, होगी प्रातः कुछ बात नई, लो दिन बीता, लो रात गई

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का, लहरा लहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का, कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो, बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का, तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो, उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा।

एक अन्य कविता

ना दिवाली होती, और ना पठाखे बजते ना ईद की अलामत, ना बकरे शहीद होते तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता, …….काश कोई धर्म ना होता.... …….काश कोई मजहब ना होता.... ना अर्ध देते, ना स्नान होता ना मुर्दे बहाए जाते, ना विसर्जन होता जब भी प्यास लगती, नदीओं का पानी पीते पेड़ों की छाव होती, नदीओं का गर्जन होता ना भगवानों की लीला होती, ना अवतारों का नाटक होता ना देशों की सीमा होती , ना दिलों का फाटक होता ना कोई झुठा काजी होता, ना लफंगा साधु होता ईन्सानीयत के दरबार मे, सबका भला होता तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता, …….काश कोई धर्म ना होता..... …….काश कोई मजहब ना होता.... कोई मस्जिद ना होती, कोई मंदिर ना होता कोई दलित ना होता, कोई काफ़िर ना होता कोई बेबस ना होता, कोई बेघर ना होता किसी के दर्द से कोई बेखबर ना होता ना ही गीता होती , और ना कुरान होती, ना ही अल्लाह होता, ना भगवान होता तुझको जो जख्म होता, मेरा दिल तड़पता. ना मैं हिन्दू होता, ना तू भी मुसलमान होता तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता। 

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