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यूँ तो बिमल रॉय का नाम किसी पहचान का मोहताज नहीं है। दो बीघा ज़मीन, सुजाता, बंदिनी, मधुमतीआदि सन 50 और 60 के दशक की वो फिल्में हैं जिन्हें देश ही नहीं दुनिया भर में ख्याति मिली है। बिमल रॉय जिन्हें तब इंडस्ट्री बिमल दा के नाम से बेहतर जानती थी; 1935 में आई सर्वप्रथम देवदास के असिस्टेंट डायरेक्टर थे। बिमल रॉय यूँ तो ज़मीदार खानदान से ताल्लुक रखते थे लेकिन उनका दिल रंगमंच और सिनेमा में बसा हुआ था। उस दौरान कलकत्ता के मशहूर न्यू थिएटर्स में वह काम करते थे और वहीँ उन्होंने फिल्ममेकिंग की बारीकियां सीखी थीं।
फिर आज़ादी के बाद न्यू थिएटर्स को चलाना मुश्किल होने लगा और धीरे-धीरे बंगाल सिनेमा बम्बई शिफ्ट होने लगा। इसी बीच सन 1950 में बिमल रॉय भी अपनी टीम के साथ बम्बई शिफ्ट हो गए। उनकी टीम में तब के मशहूर संगीतकार सलिल चौधरी थे जो बांग्ला में लिखते भी थे। संग हृषिकेश मुख़र्जी उनके एडिटर हुआ करते थे, नबेंदु घोष उनके स्क्रीनराइटर थे और असित सेन उनके असिस्टंट थे। सारे लाव लश्कर के साथ ये टीम जब बम्बई पहुँची तो पता चला कि यहाँ का सिनेमा तो बांग्ला सिनेमा से बहुत भिन्न है। लेकिन बिमल दा तो बिमल दा थे, उन्होंने बम्बई फिल्म इंडस्ट्री के फेमस बॉम्बे टॉकीज़ में काम करना शुरु किया और वहीँ अपनी फिल्मों में बांग्ला छाप देनी शुरु कर दी। उन्होंने सबसे पहले फिल्म माँ बनाई पर इस फिल्म को लेकर उनका कोई प्लान नहीं था। बॉम्बे टॉकीज़ ने बकायदा ज़िद करके बिमल दा को बुलाया था और उनसे ये फिल्म अपनी मनपसंद कास्ट ‘भारत भूषण और लीला चिटनिस’ और अपने मनपसंद संगीतकर ‘एस के पॉल’ के साथ बनवाया था। फिल्म की कहानी नोबेंदु घोष ने लिखी थी लेकिन फिल्म कहीं न कहीं हॉलीवुड फिल्म ओवर द हिल्स से इन्सपयार्ड थी।इस फिल्म के बाद बिमल दा ने अपना प्रोडक्शन हाउस खोल लिया और यहीं से दुनिया भर से अवार्ड जीतने वाली पहली भारतीय फिल्म की नींव पड़ी।
सन 1953 में रिलीज़ हुई दो बीघा ज़मीन गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर के बंगाली नॉवेल पर बेस्ड थी। इस फिल्म में बलराज साहनी और निरूपा रॉय मुख्य किरदार थे। यह फिल्म ज़मीदारों के अत्याचार पर बेस थी जबकि आपको याद दिला दूँ कि बिमल दा ख़ुद एक समय ज़मीदार रह चुके थे। इस फिल्म के लिए बिमल दा को न सिर्फ पहला फिल्मफेयर अवार्ड मिला बल्कि विश्व स्तर पर फिल्म की पूछ हुई और कैनंस फिल्म फेस्टिवल (फ्रांस) में भी इस फिल्म को अवार्ड से नवाज़ा गया। इस फिल्म की मेकिंग को लेकर भी बहुत अजब किस्सा है। इस फिल्म का प्लाट (रिक्शावाला) सलिल चौधरी के दिमाग में आया था और वो इसे लेकर बिमल दा के पास पहुँचे थे। बिमल दा उस वक़्त, सन 1952 में, पहले इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल मुंबई में आई इटालियन फिल्म बाइसिकल थीव्स देखकर निकले थे और ये तय कर चुके थे कि उन्हें भी कोई ऐसी रियल लोकेशन पर फिल्म बनानी है। जब उन्होंने सलिल चौधरी से ये कहानी सुनी तो उन्होंने शर्त रख दी कि सलिल अगर तुम फिल्म का म्यूजिक भी दोगे तो मैं ये फिल्म बनाने वाला हूँ।
फिल्म की कहानी एडिट करने के लिए ऋषिकेश मुख़र्जी थे ही, लेकिन कास्ट के वक़्त बहुत पंगा हुआ। शुरुआत में पैदी जयराज, त्रिलोक कपूर और नज़ीर हुसैन को लेकर फिल्म बनाने की तैयारी हुई पर जब बिमल र्रॉय ने ‘हमलोग’ में बलराज सहनी को एक्टिंग करते देखा तो देखते ही रह गए। उन्होंने अपने ‘शम्भू’ के लिए बलराज साहनी को ही फाइनल कर दिया लेकिन बाकी क्रु इस बात से ख़ासा नाराज़ हो गया। ख़ुद सलिल चौधरी का मानना था कि बलराज साहनी पंजाबी पर्सनालिटी का आदमी, अमूमन अमीर रईसजादो के रोल ही करता है, ये कहाँ ग़रीब किसान के करैक्टर में फिट बैठेगा? पर बलराज साहनी भी कम डेडिकेटेड एक्टर नहीं थे। उन्होंने वाकई कलकत्ता की गलियों में रिक्शा खींचा। तब आज जैसा पैडल वाला रिक्शा नहीं होता था। तब रिक्शे को हाथ से खींचते हुए दौड़ना पड़ता था। उस दौरान उन्हें ये जान बड़ी हैरानी हुई कि जिस कहानी पर वो लोग काम कर रहे हैं वो मुसीबत तो वाकई बहुत से रिक्शेवाले फेस कर रहे हैं।इस फिल्म में काम करते वक्त निरूपा रॉय ने कहा था कि ये पहली फिल्म है जिसमें रोने का सीन शूट करते वक़्त मुझे ग्लिसरीन की ज़रुरत ही न पड़ी।
इस फिल्म को डायरेक्ट करते–करते ही बिमल दा ने परिणीता भी डायरेक्ट कर ली। परिणीता महान लेखक शरतचंद की कहानी बस बेस्ड थी। इस फिल्म ने नाम भी कमाया और पैसा भी।ये फिल्म भी 1953 में दो बीघा ज़मीन के बाद ही रिलीज़ हुई थी पर इसे अगले साथ फिल्मफेयर में नोमिनेट किया गया और ये लगातार दूसरी फिल्म थी जिसके लिए बिमल दा को फिल्मफेयर अवार्ड मिला। इस फिल्म को अशोक कुमार ने प्रोड्यूस किया था और फिल्म में मीना कुमारी के साथ अशोक कुमार की केमेस्ट्री बहुत पसंद की गयी थी। फिर इसके ठीक बाद हितेन चौधरी के प्रोडक्शन में शरत चंद्र के एक और बंगाली नॉवेल बिराज बहु पर इसी नाम से फिल्म बनाई और इसके लिए भी बिमल दा ने फिल्मफेयर अवार्ड जीता। यानी भारत के पहले 3 फिल्मफेयर अवार्ड्स बिमल दा ने लगातार तीन साल तक जीते। अब एक बार फिर सन 1955 में उन्होंने शरतचंद्र के ही एक और नॉवेल देवदास पर दिलीप कुमार को लेकर देवदास बनाई और ये फिल्म बम्पर हिट हुई। हालाँकि इसके लिए उन्हें फिल्मफेयर नहीं मिला पर नेम-फेम-मनी में कोई कमी न रही। इसके बाद 3 साल का गैप लेकर, एक और कालजयी फिल्म बनाई मधुमती, इस फिल्म ने उस वक़्त चार करोड़ की कमाई की जिस वक़्त बहुत से फिल्ममेकर जानते नहीं थे कि करोड़ रुपए होते कितने हैं। ऋत्विक घटक की लिखी ये कहानी भारत की पहली पुनर्जन्म पर बनी कहानी थी। इसके बाद ही हॉलीवुड में मधुमती से इंस्पायर्ड होकर सन 1978 में रिइनकार्नेशन ऑफ पीटर प्राउड बनाई गयी थी। इस फिल्म को 9 फिल्मफेयर अवार्ड्स मिले थे जिसमें बेस्ट डायरेक्टर भी शामिल था। यानी बिमल दा का ये चौथा फिल्मफेयर अवार्ड था। इस फिल्म से दिलीप कुमार और वैजंतीमाला की जोड़ी भी ज़बरदस्त जोड़ी माने जानी लगी थी। इस फिल्म के गाने ”घड़ी घड़ी मेरा दिल धड़के” चार्टबस्टर गाना बन गया था। वहीँ “दिल तड़प-तड़प के कह रहा है आ भी जा” मुकेश की आवाज़ में आज तक बहुत सुना जाता है। इस फिल्म की कमाई का आप इस तरह अंदाज़ा लगाइए कि बिमल दा के जाने के बाद सालों तक उनकी फैमिली सिर्फ इस फिल्म की कमाई के चलते ठाठ से रही है।
इसके बाद बिमल दा ने सुनील दत्त और नूतन के साथ सुजाता बनाई। ये फिल्म भी सुबोध घोष की बंगाली लघु कथा पर बेस्ड थी। इस फिल्म के लिए फिर पाँचवी बार बिमल दा को बेस्ट डायरेक्ट फिल्मफेयर अवार्ड से नवाज़ा गया। इसके बाद बिमल दा ने अपने जीवन की पहली और आख़िरी हल्के मूड की व्यंग्यात्मक फिल्म बनाई ‘परख’। इसमें साधना और मोतीलाल मुख्य भूमिकाओं में थे। यह फिल्म डेमोक्रेसी पर कटाक्ष थी। इस फिल्म के लिए उन्हें छठी बार फिल्मफेयर अवार्ड मिला और कमाई के मामले में भी ये फिल्म झंडे गाड़ गयी। इसके कुछ समय के लिए बिमल दा बंगाली फिल्मों की ओर वापस मुड़ गए और नादेर निमाई बनाई। फिर सन 62 में उन्होंने प्रेम पत्र बनाई जिसमें शशि कपूर और साधना मुख्य किरदारों के लिए चुने गए। यह फिल्म भी एक बंगाली फिल्म से इंस्पायर्ड थी। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर न चल सकी।
लेकिन उन्हीं दिनों बिमल दा बंदिनी पर काम कर रहे थे जो चारु चक्रवर्ती की नॉवेल तमसी पर बेस्ड थी।इस फिल्म के लिए उन्होंने नये कलाकार धर्मेन्द्र को मौका दिया था और लीड रोल में अशोक कुमार संग नूतन थीं। एक बार फिर बिमल दा के डायरेक्शन का जादू पूरे भारत के सिर चढ़कर बोला था और ये फिल्म 6 फिल्मफेयर अवार्ड्स ले गयी थी। यहीं से धर्मेन्द्र भी स्टार बनकर उभरे थे तो महान गीतकार, लेखक, फिल्मकार गुलज़ार की नींव भी इसी फिल्म के गाने – ‘मोरा गोरा अंग लइले’ से पड़ी थी।
अनगिनत प्रतिभाओं को दिया मंच
बिमल रॉय ने सिर्फ़ बेहतरीन फ़िल्में ही नहीं बनाईं, बल्कि कई प्रतिभाशाली कलाकारों को मंच भी दिया. फिल्म बंदिनी से जुड़ा एक बेहद रोचक किस्सा यह है कि इसी के ज़रिए गुलज़ार (असली नाम: सम्पूर्ण सिंह कालरा) ने हिंदी सिनेमा में बतौर गीतकार अपने करियर की शुरुआत की.
1947 के बंटवारे के बाद जब गुलज़ार मुंबई आए, तो वे एक मोटर गैराज में मैकेनिक का काम करने लगे. साथ ही, वे शायरी और कविताएं भी लिखते थे. हर रविवार वे 'प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन' की मीटिंग्स में शामिल होते थे, जहां उनकी मुलाकात गीतकार शैलेन्द्र और शायर अली सरदार जाफ़री से हुई. इन्हीं दिनों बंदिनी पर काम चल रहा था. संगीतकार एस.डी. बर्मन और शैलेन्द्र के बीच किसी बात पर मतभेद हो गया, जिससे एक गीत अधूरा रह गया. शैलेन्द्र ने गुलज़ार को बिमल रॉय से मिलवाया और उन्हें गाना लिखने की सलाह दी.
गुलज़ार ने फिल्म की सिचुएशन समझकर वैष्णव भजन की शैली में 'मोरा गोरा अंग लइ ले' गीत लिखा, जिसे लता मंगेशकर ने अपनी मधुर आवाज़ दी. यह गीत बेहद लोकप्रिय हुआ और गुलज़ार को बतौर गीतकार पहली बार पहचान मिली. बंदिनी को 1964 के फिल्मफेयर अवॉर्ड्स में 6 पुरस्कार मिले, और इसी फिल्म से गुलज़ार का सफर हिंदी सिनेमा में शुरू हुआ.
गुलज़ार के अलावा बिमल रॉय ने ऋषिकेश मुखर्जी, आशा पारेख, बेबी फरीदा, नज़ीर हुसैन, नवेंदु घोष जैसे नामों को भी सिनेमा में प्रवेश दिलाया.
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