Birthday Special Smita Patil: वो कब की चली गई, लेकिन वो बार-बार याद आती है

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By Ali Peter John
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Birthday Special Smita Patil

लोग कहते थे कि वो पैदाइशी बेहतरीन कलाकार है, समीक्षकों ने उसकी तारीफ में अनगिनत कसीदे लिखे थे और दर्शाया था कि स्मिता सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्रियों में से एक है. कला फिल्मों या कहूं कि समान्तर सिनेमा की जान थी स्मिता, मगर सिर्फ इसी में सीमित न होकर स्मिता नियमित अंतराल पर मसाला और कमर्शियल फिल्मों करने में भी मास्टर थी. उसके पास एक नहीं दर्जनों ऐसी खूबियाँ थीं और एक अभिनेत्री होने के नाते उसने जो भी किया, पूरी शिद्दत से पूरे दिल से किया. 

वो एक ही समय में गुस्से में धधकती आग हो जाती थी तो दूसरे ही पल में गिरती मुलायम बर्फ बनकर रुई केे फाये जैसी भी हो जाती थी. वो जिस पैशन से काम करती थी, उसकी किसी से बराबरी मुमकिन ही नहीं है. गुस्सा क्या होता है इसका जीता-जागता उदाहरण स्मिता थी. वो एक झुग्गी में रहने वाली ऐसी हरिजन महिला भी बन जाती थी जिसके पास नहाने के लिए बाथरूम तक नहीं है, या एक आदिवासी महिला है जिसका बलात्कार हुआ है और वो अब बुरे के घर तक पहुँच हर जघन्य अपराध किए हुए दोषियों, शैतानों को अपनी आँखों में अंगारे उतारे और दिल में आग लिए लड़ती नजर आती है.

वो क्या कुछ नहीं कर सकती थी भला इस बात से कौन परिचित नहीं है, बल्कि जाने क्या कुछ ऐसा अभी बाकी था जो स्मिता बड़े पर्दे पर करती मगर अफसोस उसकी जिन्दगी बहुत- जल्दी पूरी हो गयी. मात्र 30 साल की उम्र में इस दुनिया को छोड़कर जा चुकी थी. मगर उस छोटे से दौर में भी स्मिता ने जो काम किया था, जो एक्टिंग हमारी फिल्म इंडस्ट्री को दिखाई थी वो हमेशा-हमेशा के लिए याद रखी जायेगी.

स्मिता पाटिल एक परिपूर्ण अदाकारा थी जिसमें दम था कि सबसे चैलेंजिंग और मुश्किल करैक्टर को निभा सके और मजे की बात देखिये, उस वक्त जो स्मिता ने रोल किए, जो क्राफ्ट लोगों तक पहुंचाई वो आज बेहतरीन एक्टिंग का उदाहरण बन चुकी है. स्मिता किसी भी तरह से किसी चीज के भरोसे रहकर अपनी एक्टिंग को बांधे नहीं रखती थी, उसे किसी प्रॉप्स की या किसी अन्य सुविधा की जरुरत नहीं पड़ती थी. सोचने वाली बात है कि जिस कैलिबर की स्मिता पाटिल अदाकारा थी उस हिसाब से उसे कभी पहचान नहीं मिली. स्मिता उन सभी अभिनेत्रियों से कहीं ज्यादा फेम डिजर्व करती थी जो अपनी दायरे में बंधी एक्टिंग होने के बावजूद अपनी पैतरेबाजियों से और कुछ मैनीपुलेशन के चलते शीर्ष कुछ में बनी रहती थीं. जबकि अगर सच्चाई की और टैलेंट की बात हो तो ये शीर्ष की लिस्ट हकीकत से कोसों दूर नजर आती थी. वहीं स्मिता ने कभी कोई चाल-वाल चलने की कोशिश नहीं की, किसी किस्म का कोई खेल नहीं बनाया कि उसको ज्यादा अटेंशन मिले. उसने अपना काम किया और बाकी दर्शकों पर छोड़ दिया कि वो तय करें उसमें कितनी काबिलियत है. वो बस अपनी खुद की स्मिता पाटिल बनी रही जो अपने रोल को न सिर्फ अच्छी तरह समझती थी बल्कि उस रोल में घुसकर खुद को भुला देती थी और उस करैक्टर को जीने लगती थी. स्मिता वो शख्सियत थी जिसे कोई चिंता को कोई स्ट्रेस नहीं रहती थी. न ही किसी रोल के लिए अति-प्रयास ही करती नजर आती थी. अगर पिछले सौ सालों की भारतीय अभिनेत्रियों की बात करूँ तो स्मिता उनमें सर्वश्रेष्ठ थी.

वहीं स्मिता के परिवार में कोई फिल्मी बैकग्राउंड नहीं था. वो सिर्फ खुद पर निर्भर थी और उसने बिना कहीं स्पेशली सीखे भी एक्टिंग को बारीकी से सीख लिया था. स्मिता ने खुद अपना एक युग बनाया था, स्मिता पाटिल युग जो सिर्फ और सिर्फ उसकी खुद की काबिलियत पर बना था.

स्मिता महाराष्ट्र के एक मध्यम वर्गीय परिवार से थी जहाँ समाजवादी सोच चलती थी. स्मिता के माँ बाप ने उसकी प्रारंभिक शिक्षा मराठी में ही करवाई. उसके बाद स्मिता सबसे बेहतरीन इंग्लिश मीडियम कॉलेज में से एक में पढ़ना शुरु किया और मजे की बात, स्मिता वहां भी हर विषय में बेहतरीन रहीं, चाहें वो पढ़ाई हो, सामाजिकता हो या वाद-विवाद प्रतियोगिता.

जब कैरियर की शुरआत में ही नेशनल अवार्ड से नवाजा गया  

जिन दिनों स्मिता कॉलेज में थी उसी वक्त वो दूरदर्शन में मराठी समाचार पढ़ने के लिए चुन ली गयी थीं. स्मिता इतनी खूबसूरत, आकर्षक और बोलने में इतनी अच्छी थीं कि लोग न्यूज में इंटरेस्ट न होते हुए भी स्मिता की वजह से न्यूज देखते थे. श्याम बेनेगल वो पहले डायरेक्टर थे जिन्होंने स्मिता के हुनर को समझते हुए उन्हें ‘निशांत’ नामक फिल्म में मुख्य किरदार निभाने का मौका दिया था. उस फिल्म में पहले ही बहुत से गुणी आर्टिस्ट्स काम कर रही रहे थे, फिर भी स्मिता ने इतना अच्छा काम किया था उस फिल्म में कि जिसने भी फिल्म देखी वो स्मिता के रोल को खातिर में लाने को मजबूर हुआ. श्याम बेनेगल को इतना विश्वास था स्मिता पर कि उन्होंने फिर स्मिता को एक हरिजन के रोल में मंथन नामक फिल्म में कास्ट किया. फिर “भूमिका” नामक फिल्म में एक उलझी हुई अदाकारा का किरदार करने को दिया था. तीनों फिल्मों में स्मिता की अदाकारी को न सिर्फ लोगों की तारीफ मिली, बल्कि अवाॅर्ड्स की भी झड़ी लग गयी थी. यहाँ तक की नेशनल अवार्ड भी स्मिता पाटिल को मिला और सबकी नजर में आ गया कि एक बहुत बेहतरीन टैलेंट इंडस्ट्री की झोली में आ गिरा है जो यकीनन एक से बढ़कर एक उचाईयों को छूने वाला है. श्याम के अलावा जो और मुख्य निर्देशक थे जो एक समय स्मिता की अदाकारी पर आश्रित से हो गए थे, उनमें हैं रबिन्द्र धर्मराज जिन्होंने चक्र बनाई थी, गोविन्द निहलानी जिन्होंने अर्ध सत्य और आक्रोश बनाई थी. मिर्च मसाला के निर्माता केतन मेहता, डॉक्टर जब्बार पटेल भी, जिन्होंने मराठी फिल्म जैत रे जैत, हिंदी फिल्म सुबह और एक मराठी फिल्म उम्बर्था का निर्माण किया था और सबके चहीते महेश भट्ट जिन्होंने अर्थ बनाई थी जिसमें स्मिता की धुर प्रतिद्वंदी शबाना आजमी भी थीं. आज, जब फिल्म को रिलीज हुए करीब चालीस साल हो चले हैं तब भी दोनों में से कौन बेहतर थी इसको लेकर डेबिट होती रहती है.

अब जिस वक्त स्मिता अपनी कलाकारी के चलते तो मशहूर हो ही चुकी थी, पर अब उसके दिल ने एक अलग नया निर्णय लेने की सोची. उसने बॉम्बे की सिनेमा नगरी की मुख्य धारा में अपनी एंट्री की. यहाँ भी उस अदाकारा ने कुछ नामी फिल्मों में अपनी कला का लोहा मनवा लिया. बॉलीवुड मसाला फिल्मों में आने के बाद स्मिता ने कई बड़े नामों के साथ काम किया जिसमें रमेश सिप्पी, प्रकाश मेहरा, राज कुमार कोहली और यहाँ तक की बी ग्रेड फिल्में बनाने वाले बी सुभाष तक शामिल रहे. उन्होंने उस दौर के महानायकों दिलीप कुमार, देव आनंद, धर्मेंद्र, शशिकपूर और शहंशाह कहलाने वाले अमिताभ बच्चन के साथ भी काम किया.

क्या सोसाइटी और इंडस्ट्री दोनों ने ही स्मिता का बॉयकॉट कर दिया?

उसके बाद स्मिता ने राज बब्बर के साथ जोड़ी बनाई और दोनों ने कई फिल्में साथ में की लेकिन न राज ही उन फिल्मों में अपनी कोई छाप  छोड़ सके और न ही स्मिता. फिर स्मिता ने पूरी जानकारी होते हुए भी कि राज बब्बर पहले से शादीशुदा हैं और उनके दो बच्चे भी हैं उनको अपनी जिन्दगी का प्यार चुनना पसंद किया. स्मिता उस दौरान सब भूल बैठीं, अपनी महत्वकांक्षाएं ही नहीं बल्कि उन लोगों की उम्मीदें भी जो स्मिता पर भरोसा रखते थे, स्मिता के भरोसे थे. वो हर चेतावनी हर सलाह, हर बंधन समाज को किनारे कर चुकी थीं. उन्होंने सारे नियम कानूनों को धता बताकर राज के साथ शादी की और जैसा की अपेक्षित था, इसकी बहुत कॉन्ट्रोवर्सी हुई. स्मिता ने उसी दौरान एक बच्चे को जन्म दिया जिसका नाम प्रतीक रखा. उस कॉन्ट्रोवर्सी ने स्मिता के कैरियर पर भी गहरा असर डाला, उन दोनों को ही उतना काम मिलना बंद हो गया जितना उनके पास अमूमन रहता था. क्या ये सोसाइटी और इंडस्ट्री का उनके अनकहा प्रति बॉयकॉट था या कुछ और? ये सवाल आज तक  बदस्तूर अपनी जगह बना हुआ है.

उसके पार्थिव शरीर को दुल्हन की तरह सजाया गया.

फिर एक दिन स्मिता अचानक बीमार हो गयी और उस नई बनी माँ को जसलोक हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया. कुछ बेहतरीन डॉक्टर्स ने मिलकर उसे बचाने की कोशिश की मगर कामयाब न हो सके. स्मिता पाटिल एडमिट होने के कुछ ही घंटो बाद चल बसी और अपने पीछे एक पूरी दुनिया को सकते की हालत में छोड़ गयी जो उसकी कला को सलाम करती थी. उसकी मौत के बाद क्रियाकर्म को लेकर भी कांग्रेस और शिवसेना के बीच घमासान हो गया. आखिरकार शिव सेना ने ही क्रियाकर्म किया जिसे स्टेट फ्यूनरल भी कहा जा सकता था. उसके पार्थिव शरीर को दुल्हन की तरह सजाकर शिवाजी पार्क के पास शिवाजी महाराज की मूर्ति के पास रखा गया जहाँ हजारों चाहने वाले स्मिता को श्रद्धांजलि देने के लिए आये. उसके शरीर को जब आग दी गयी और जब वो राख हुआ तब हजारों लोगों के मन में लाखों सवाल दे गया. इन अलग अलग सवालों से घिरे लोग भी एक बात पर स्वम्वेत स्वर में सहमत थे कि स्मिता जैसी दूसरी कोई अदाकारा न है, न थी और न कभी होगी.

और कहानी जारी है...

स्मिता सेंट जेवियर्स कॉलेज मुंबई की सबसे मेधावी छात्रों में से एक थीं. उन्होंने अपनी प्रारंभिक स्कूली शिक्षा मराठी में की थी और वह अपनी मां की कट्टर अनुयायी थीं, जो सेवा दल की संस्थापक सदस्य थीं, जो अपने अधिकारों से वंचित महिलाओं के कल्याण के लिए काम करती थीं. वह बहुत कम उम्र में सामाजिक रूप से जागरूक और प्रतिबद्ध लड़की थी. मराठी उनकी मातृभाषा थी लेकिन उन्होंने जल्द ही अंग्रेजी और हिंदी जैसी भाषाओं में महारत हासिल कर ली और यहां तक कि तीनों भाषाओं में वाद-विवाद और भाषण प्रतियोगिताओं में भी भाग लिया. वह हमेशा सर्वश्रेष्ठ थीं और उनके प्रोफेसरों ने उनके लिए एक उज्ज्वल भविष्य देखा लेकिन किसी ने नहीं सोचा था कि वह एक दिन एक प्रसिद्ध अभिनेत्री होंगी.

स्मिता ने टीवी पर मराठी में समाचार पढ़ना शुरू किया और एक सर्वेक्षण के अनुसार वह मराठी में अब तक की सबसे लोकप्रिय नई पाठक थीं. ’लोगों ने मराठी समाचार देखा, वे केवल स्मिता के अभिव्यंजक चेहरे और बात करने वाली आँखों के कारण समाचार सुनने में रुचि नहीं रखते थे, एक प्रमुख फिल्म निर्माता डॉ. जब्बार पटेल, जो बाद में उनके साथ उत्कृष्ट फिल्में बनाने वाले थे, याद करते हैं.  

श्याम बेनेगल ने उन्हें निशांत में कास्ट किया जिसमें उनके साथ शबाना आज़मी, नसीरुद्दीन शाह और गिरीश कर्नाड भी थे, लेकिन वह उन सभी में सबसे अलग थीं और निशांत ने सबसे शानदार अभिनेत्री के युग की शुरुआत की.

स्मिता एक सीधी-सादी इंसान थी जो इंडस्ट्री के काम करने के तौर-तरीकों को नहीं समझ पाती थी. वह इस खेल से पूरी तरह अनजान थीं, उनके कुछ सहयोगी और समकालीन लोग इसमें विशेषज्ञ थे. उन्हें अपनी प्रतिभा के कारण ही कुछ बेहतरीन भूमिकाएँ मिलीं और कुछ बेहतर भूमिकाएँ अन्य कम प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों से खो दीं क्योंकि वे उन अभिनेत्रियों को बेहतर जोड़-तोड़ करने वाली थीं.

वह समानांतर फिल्में और नई लहर फिल्में करती रहीं लेकिन एक साहसिक कदम उठाया और राज खोसला द्वारा निर्देशित मेरा दोस्त मेरा दुश्मन नामक अपनी पहली व्यावसायिक फिल्म की. फिल्म ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया लेकिन स्मिता को “नई तरह की अभिनेत्री“ के रूप में पहचाना गया.

जब एक अच्छी फिल्म ने उनसे कुछ बोल्ड सीन करने की मांग की तो स्मिता ने समझौता नहीं किया. चक्र में खुले में नहाने का दृश्य और आक्रोश में क्रूर बलात्कार और अमिताभ बच्चन के साथ बारिश में कामुक दृश्य इसके कुछ उदाहरण थे.

स्मिता ने हमेशा फीकी जींस और एक साधारण टॉप और साधारण चप्पल पहनी थी, जिसने शशि कपूर को एक बार तुम इतनी अच्छी कलाकर हो, तुम पढ़ी लिखी भी हो पर टिप्पणी की थी. तुम लोग इतने गंदे कपड़े क्यों पहनते हो?

स्मिता का दिल सोने का था. वह किसी की भी हर संभव मदद करने के लिए हर संभव कोशिश करती थी. स्मिता के साथ काम करने वाली सभी प्रमुख अभिनेत्रियों ने उनकी प्रशंसा की और वह दिलीप कुमार, सुनील दत्त, देव आनंद और अमिताभ बच्चन की विशेष पसंदीदा थीं.  

स्मिता छोटी-छोटी बातों में खुश थी. वह बहुत खुश थी जब उसने अपनी पहली कार, एक फिएट पद्मिनी और फिर एक आयातित कार खरीदी, ताकि वह एक स्टार के रूप में अपनी स्थिति को बनाए रख सके, जैसा कि उसे सलाह दी गई थी.

स्मिता ने हमेशा अपना वादा निभाया. मैंने एक बार उन्हें डॉक्टरों के एक समारोह में मुख्य अतिथि बनने के लिए आमंत्रित किया था. उसी रात बम्बई की सारी बत्तियाँ बुझ गईं. उन्होंने फिर भी जिद की कि हम फंक्शन में जाएं. हम अँधेरे में गाड़ी चलाकर उस जगह पहुँचे जहाँ डॉक्टर पेट्रो मैक्स लैम्प्स लेकर उसका इंतज़ार कर रहे थे. संयोग से, उसने अपना भाषण यह कहकर शुरू किया कि मुझे सभी डॉक्टरों से नफरत है और फिर समझाया कि क्यों. वह मुझे रात के साढ़े ग्यारह बजे वर्सोवा में घर ले गई और फिर अपने घर दक्षिण मुंबई चली गई.

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