'मोरा गोरा अंग लइले, मोहे स्याम रंग दइदे' से न चाहते हुए भी अपना फिल्मी सफर शुरु करने वाले मशहूर शायर, फ़नकार, लेखक, निर्देशक, निर्माता और उम्दा गीतकार गुलज़ार (Gulzar) कहते बताते हैं कि उन्होंने जो भी कुछ लिखा वो किसी को खुश करने के लिए नहीं लिखा।
गुलज़ार (Gulzar) की बात चलती है तो एक तीन अलग-अलग पीढ़ियाँ तीन अलग-अलग गाने याद कर लेती हैं। दादा वर्ग की पीढ़ी जहाँ अपने ग्रामोफोन पर 'तुम्हें ज़िन्दगी के उजाले मुबारक, अंधेरे हमें आज रास आ गए हैं' बजाती है तो वहीं पिता वर्ग की पीढ़ी अपने कैसेट प्लेयर पर 'मेरा कुछ सामान' तलाशती है। लेकिन आज की यंग जेनेरेशन भी गुलज़ार के जादू से अछूती नहीं, इन्हें 'नमक इस्क़ का' भी भाता है और 'जय हो' भी। यहाँ तक की छोटे नन्हें बच्चे भी गुलज़ार साहब की कलम से दूर नहीं रहे हैं, क्योंकि ये गुलज़ार ही हैं जो कभी 'चड्डी पहन के फूल खिलाते' हैं तो कभी 'लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा और घोड़े की दुम पर हथौड़ा मरवाते हैं।'
शायद ही लेखन से जुड़ी कोई श्रेणी होगी जो गुलज़ार साहब (Gulzar) से अछूती रही होगी। इसी सिलसिले में उन्होंने बताया कि वो तो चाहते ही नहीं थे कि वो इस फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा बने। उन्हें अदबी जगत में ही अपना नाम रौशन करना था। लेकिन, उनके एक दोस्त, गीतकार शैलेन्द्र और बिमल दा की मेहरबानी से वो इस इंडस्ट्री में आए और उन्होंने अपना पहला गाना लिखा - मोरा गोरा अंग लइले' जो बहुत पसंद किया गया।
Gulzar ऐसा कैसे लिख लेते हैं कि हर वर्ग उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता
हाल ही में गुलज़ार (Gulzar) ने बताया कि वो किसी को खुश करने के लिए कभी नहीं लिख पाए। उन्होंने वो लिखा जो उन्होंने महसूस किया। उन्होंने किसी सपने में रहकर कोई बात न लिखी, अपनी ज़िंदगी के अनुसार, जैसा जीते गए वैसा लिखते गए। इससे पहले भी गुलज़ार से एक दफा उनकी लेखनी के सीक्रेट के बारे में सवाल हुआ था तो उन्होंने कहा था कि जो आप देखते हैं वही मैं देखता हूँ। जो आपको नज़र आता है उतनी ही क्षमता मेरी नज़र की भी है बस मैं जो देखता हूँ उसे अलग नज़रिए से देखता हूँ। मुझे खिड़की पर आता हुआ चाँद ठीक वैसा ही दिखाई देता है जैसे कोई महबूब अपनी प्रेयसी को खिड़की पर बुलाने के लिए गली से आवाज़ लगाता है।
गुलज़ार की आदत रही है कि वो जो भी बात करते हैं खुले शब्दों में करते हैं। ढकी छुपी बातें उनसे नहीं होतीं। उन्होंने खम ठोककर कहा कि वो हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तानी होने पर उन्हें फख्र महसूस होता है। एक नहीं बल्कि सौ मौके मिलें तो भी वह हिन्दुस्तान में ही पैदा होना चाहेंगे।
उम्र भले ही गुज़र के सुफ़ैद हो रही हो पर काली बदरी जवानी की छटनी नहीं चाहिए
उम्र के 86वें बरस में भी गुलज़ार (Gulzar) वो शख्सियत हैं जो अपनी सेहत का अभी ध्यान रखते हैं और अपने काम का भी। इस उम्र में भी वह लिखना नहीं बंद करते। उनका रूटीन सालों से वही है, सुबह तड़के 4 बजे उठने के बाद टेनिस खेलने निकल जाना, फिर अच्छा नाश्ता करना, फिर अपनी डेस्क पर बैठकर घंटों लिखते रहना। इन दिनों वह कोरोना महमारी पर लिख रहे हैं। हाल ही में विशाल भारद्वाज की डॉक्यूमेंट्री फिल्म 1232km रिलीज़ हुई है और उस फिल्म में गाने गुलज़ार साहब ने ही लिखे हैं। इस फिल्म में आप लॉकडाउन के वक़्त मजदूरों को हुई मुसीबतें और पलायन का दर्दनाक मंज़र देख सकते हैं।
आज की पीढ़ी से गुलज़ार साहब का अलग ही जुड़ाव है। साहित्य में होती इन दिनों की हलचल पर वो मुस्कुराते हुए कहते हैं कि साहित्य यकीनन बेहतर हो रहा है। हाँ बुरा लेखन पहले भी होता था, आज भी होता है, तब में से भी छटा हुआ बढ़िया साहित्य ऊपर-ऊपर तैरता आ गया था, ये भी कुछ ऐसा ही उभर आयेगा।